शनिवार, 19 अगस्त 2017

नायक के लिए तरसता समाज


   अजीब तर्क दिया जा रहा है वे कह रहे हैं विपक्ष के पास कोई चेहरा नहीं है, कोई ऐसा नेता नहीं है जो मोदीजी का विकल्प हो!यह असल में उनका तर्क है जो नायक के सहारे समाज की मुक्ति के दिवा-स्वप्न देखते हैं। नायक केन्द्रित मनोदशा हमारी राजनीति की रही है उसने नायक पूजा को सबसे बड़ा बनाया है। अभावों में जीने वाले लोग हमेशा नायक में मुक्ति की खोज करते  हैं, हमारे समाज की बुनावट भी कुछ ऐसी है कि हमें नायक के बिना नींद नहीं आती, बस नायक मिल जाए तो हम चैन की नींद सोएँ! 
      सवाल यह है नायक की तलाश करके हम जाना कहाँ चाहते हैं ? किस तरह का समाज बनाना चाहते हैं ? नायक पूजा की संस्कृति निर्मित करके हमने देश को शक्तिशाली बनाया या खोखला ?क्या भारत को नायक चाहिए या विकल्प में कुछ और चाहिए ? आमतौर पर वैचारिक संकट के समय नायक की तलाश सबसे ज्यादा करते हैं, हम अच्छे विचार नहीं खोजते,अच्छे मूल्य नहीं खोजते ,अच्छी नीति नहीं खोजते,उलटे नायक खोजते हैं, चाहे नायक मूल्यहीन हो।
       नायक खोजने की आदत समाज में परजीविता की गहरी जड़ों को रेखांकित करती है।हमें जब राजनीति के नायक से बोरियत होने लगती है तो हम फ़िल्मी नायक से दिल बहलाने लगते हैं।नायक की आड़ में जीने और आनंद लेने की मानसिकता बुनियादी तौर पर वैचारिक और सांस्कृतिक दरिद्रता की प्रतीक है।हमें हर हालत में नायक पूजा से बचना चाहिए।नायक पूजा हमारे आलोचनात्मक विवेक को सबसे पहले अपहृत करती है।हम मूल्यों पर बहस नहीं कर रहे, नीतियों पर संवाद-विवाद नहीं कर रहे, बल्कि नायक पर विवाद कर रहे हैं। 
     भारत में नायक का विचार अजर,अमर है।दिलचस्प बात है एक नायक के जाते ही हठात् दूसरा नायक हमारी आँखों के सामने आ बैठता है।कल तक जो नायकपूजा के रुप में इंदिरा गांधी से  नफरत करते थे वे ही नायक के रुप में नरेन्द्र मोदी की अहर्निश पूजा कर रहे हैं।मोदी में उन्होंने तकरीबन वे सारे गुण खोज लिए हैं जिन गुणों के लिए वे इंदिरा गांधी की आलोचना कर रहे थे। दिलचस्प बात यह है कि मोदी अनेक मामलों में   इंदिरा गांधी के अनुयायी नजर आते हैं।मसलन् इंदिरा गांधी ने नक्सलवाडी आंदोलन को कुचलने के नाम पर बंगाल के युवाओं की बडे पैमाने पर हत्याएँ कीं , ठीक यही हालात कश्मीर में मोदीजी ने किए हैं,निर्दोष कश्मीरी आए दिन में मारे जा रहे हैं, १९७२-७७ केबंगाल के अर्द्ध फासी आतंक को लेकर सारे देश में बेगानापन था यहां तक कि बाबू जयप्रकाश नारायण से ज्योति बसु ने कहा कि हमारे बंगाल में जुल्म हो रहा है विधानसभा चुनावों में व्यापक धाँधली हुई है तो  बाबू जयप्रकाश नारायण को विश्वास नहीं हुआ,सन् १९७२ में बंगाल में विधानसभा चुनाव में भयानक धाँधली हुई और सिद्धार्थ शंकर राय मुख्यमंत्री बने, बंगाल में नक्सलवाडी आंदोलन से लेकर १९७७तक कई हजार वाम युवा पुलिस की गोलियों के शिकार हुए।ठीक वही पैटर्न कश्मीर और बस्तर में चल रहा है।
       मूल मुद्दा यह है कि भारत को नायक खोजने की बीमारी से कैसे छुट्टी दिलाई जाए।हम सबको नायक केन्द्रित राजनीति की बजाय जनराजनीति पर जोर देना चाहिए। जनता को शिक्षित करना चाहिए , जनता की समस्याओं को प्रमुखता से केन्द्र में रखना चाहिए। 
       हमारी राजनीति में जनता की समस्याएँ केन्द्र में नहीं रहतीं नायक केन्द्र में रहता है।नायक के केन्द्र में रहने का अर्थ है जनता की समस्याओं का चेतन जगत में अंत, हम समस्याओं पर सोचना बंद कर देते हैं, नायक के भाषण, कपड़े, मीडिया जलवे, शोहरत के झूठे क़िस्सों में समय व्यतीत करने लगते हैं। 
      मोदी के प्रचार की सबसे बडी विशेषता है कि उसने सार्वजनिक जीवन से बुनियादी समस्याओं पर बहस को गायब कर दिया है और हम सब मोदी के जश्न और शोहरत के क़िस्सों में व्यस्त हो गए हैं। नायक के रुप में मोदी के भाषण,जश्न,जलसों और शोहरत से आम जनता के जीवन में ख़ुशहाली आने वाली नहीं है, ये सारी चीजें तो मोदी मोह में बाँधे रखने की कला के नुस्ख़े हैं।

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