रविवार, 30 जुलाई 2017

क्रांतियाँ बेकार नहीं जातीं -


                 
    विश्व विख्यात इतिहासकारों में एरिक हॉब्सबाम अग्रणी हैं।उनके लेखन की विशेषता है इतिहासलेखन को विशेषज्ञों के अध्ययन-अध्यापन के दायरे से बाहर लाकर जनोपयोगी बनाना,साधारण पाठक के लिए बोधगम्य बनाना। साधारण पाठक और इतिहासकार इन दोनों के बीच इतिहास को किस तरह जनप्रिय बनाया जाए इसी बुनियादी लक्ष्य को सामने रखकर उन्होंने 4प्रमुख किताबें लिखीं,वे हैं,1.क्रांति का युग,2.पूंजी का युग,3. साम्राज्य का युग और 4.अतिरेकों का युग।इन चारों किताबों के अनुवाद संवाद प्रकाशन,मेरठ ने छापे हैं। हमारी समीक्षा के केन्द्र में ´पूंजी का युग´ नामक किताब है।अंग्रेजी में यह ´एज आफ कैपीटल´नाम से प्रकाशित है।
     एरिक हॉब्सबाम ने´´पूंजी का युग´´(इतिहास 1848-1875) में लिखा ´बुर्जुआ समाज की विजय जितनी विज्ञानके अनुकूल थी,उतनी कला के लिए नहीं रही।´ यह सच है बुर्जुआ समाज के जन्म के साथ विज्ञान के क्षेत्र में सबसे तेजगति से विकास होता है लेकिन उससे भी बड़ा सच यह है कि लेखकों-कलाकारों के अंदर व्यक्तिवादी मूल्यों के विकास के कारण साहित्य को नित नई ऊँचाईयों को स्पर्श करने का मौका मिला,इसके अलावा छापे की मशीन के आने के साथ ही साहित्य का लोकतांत्रिकीकरण हुआ। रचना के केन्द्र में मनुष्य आया और ईश्वर की विदाई हुई।कमोबेश यह प्रक्रिया हर देश में बुर्जुआ समाज के उदय के साथ घटित हुई।साहित्य और कला के मध्यकालीन मूल्यों की जगह नए आधुनिक कला मूल्यों का जन्म हुआ।
      एरिक हॉब्सबाम की कृति ´पूंजी का युग´कई मायनों में महत्वपूर्ण है।इस किताब में ´पूंजी´ को आधार बनाकर आधुनिककालीन राजनीतिक-आर्थिक और कलागत परिवर्तनों की व्याख्या पेश की गयी है।यह किताब आधुनिककाल का वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य बनाने में मददगार साबित हो सकती है। इस पुस्तक का अनुवाद वंदना राग ने किया है,अनुवाद बेहतरीन है और पढ़ते हुए लगता ही नहीं है कि यह पुस्तक अनुदित है।हिंदी पत्रिका जगत की मुश्किल यह है कि विश्व विख्यात लेखकों की वैचारिक किताबें हिंदी में खूब छप रही हैं लेकिन उन पर चर्चा या उनके मूल्यांकन या पुस्तक समीक्षा के काम को साहित्यिक पत्रिका के संपादक उपेक्षा की नजर से देखते हैं।जबकि इस तरह की वैचारिक किताबों के बारे में व्यापक  चर्चा होनी चाहिए। इससे हिंदी के विचार-जगत और पाठक जगत को विश्व के वैचारिक विमर्श के साथ जोड़ने और आलोचना में छाई अवधारणाहीन बहसों से बचने में मदद मिल सकती है।
     इस किताब का सबसे रोचक पहलू है ´कम्युनिस्ट घोषणापत्र´के प्रकाशन के साथ तत्कालीन क्रांतियों के संबंध की खोज।´कम्युनिस्ट घोषणापत्र´ अज्ञात जर्मन लेखकों के नाम से 24फरवरी 1848 जर्मन में प्रकाशित होता है।बाद में इसे अंग्रेजी,फ्रेंच,इटालियन आदि अनेक भाषाओं में अनुदित करके छापा गया। हॉब्सबाम ने लिखा ´यह कहना सही होगा कि इसके राजनैतिक आग्रहों का जर्मन क्रांतिकारियों के छोटे तबके से बाहर बहुत कम प्रभाव रहा.अलबत्ता1870 के बाद प्रभाव बढ़ा.कुछही हफ्तों में और मैनीफेस्टो के प्रकाशन के कुछ ही घंटों बाद,मसीहाओं की आशाएं,आशंकाएं सब साकार होने को आईं.फ्रांसीसी राजशाही को बग़ावत के बाद सत्ता से अपदस्थ कर दिया गया.गणतंत्र राज्य की घोषणा कर दी गई और यूरोपीय क्रांति का आग़ाज हो गया।´
  ´आधुनिक दुनिया के इतिहास में कई महत्वपूर्ण क्रांतियां हुई हैं.कई क्रांतियां इससे अधिक सफल रही हैं.मगर जंगली आग की तरह इस तीव्रता से चारों ओर फैलने वाली,सरहदों, राज्यों, देशों और महासागरों के पार जाने वाली क्रांतियां कम ही हुई हैं´ दिलचस्प बात यह है 24 फरवरी को ´कम्युनिस्ट घोषणापत्र´प्रकाशित होता है और उसी दिन फ्रांस ने गणतंत्र राज्य की घोषणा की। हॉब्सबाम ने लिखा है ´दो मार्च तक क्रांति दक्षिण-पश्चिमी जर्मनी,छह मार्च बवेरिया,ग्यारह मार्च बर्लिन,तेरह मार्च वियना और तत्काल ही हंगरी,अठारह मार्च मिलान और फिर इटली में फैल गई।´उल्लेखनीय है उन दिनों सबसे तेज संचार व्यवस्था  राथ्सचाइल्ड बैंक की थी ,वह भी पेरिस से वियना तक खबर पांच दिन से कम में नहीं पहुँचाती थी,लेकिन उससे भी तेज गति से क्रांति की आग चारों ओर फैल गयी।उन दिनों कुछ ही हफ्तों में यूरोप के दस से ज्यादा देशों में ´कम्युनिस्ट घोषणापत्र´के प्रकाशन के साथ ही क्रांति हो गई।उस क्रांति के असर से कोई भी सरकारी तंत्र अपना अस्तित्व नहीं बचा पाया।अन्य क्षेत्रों में भी इसके निश्चित प्रभाव दिखाई दिए।हॉब्सबाम कहते हैं कि गंभीर अर्थों में यह वैश्विक क्रांति थी।इस क्रांति ने 1848 में यूरोप के विकसित और पिछड़े दोनों ही किस्म के देशों को प्रभावित किया।हालांकि यह क्रांति सबसे व्यापक थी लेकिन यह सबसे कम सफल साबित हुई.इसके घटित होने के 6माह के बाद ही यह भविष्यवाणी की जा सकती थी कि इसकी विश्वव्यापी असफलता निश्चित है.लगभग 18 महीनों बाद सिर्फ़ एक को छोड़ सारी अपदस्थ सत्ताएं वापस,दोबारा सत्ता पर काबिज़ हो चुकीं थीं। हॉब्सबाम के अनुसार ´1848 की क्रांतियां विलक्षण ढ़ंग से इस किताब से अपना रिश्ता जोड़ती हैं।´ एक क्रांतिकारी किताब के रूप में ´कम्युनिस्ट घोषणापत्र´की सामाजिक-राजनीतिक ताकत का इससे एहसास होता है।हॉब्सबाम ने लिखा ´1848 की क्रांतियों के लिए व्यापक अध्ययन की आवश्यकता है और राज्य,जनता तथा भौगोलिक क्षेत्रों की अलग पड़ताल ज़रूरी है।यहां यह संभव नहीं।फिर भी उन सभी लोगों में कुछ बातें सामूहिक रूप से थीं.यह समझा जा सकता है.सिर्फ़ यह नहीं कि उनके घटित होने का समय एक था,बल्कि यह भी कि उनका एक साझा मिज़ाज था और एक साझा शैली थी.वह एक रहस्यमय-यूटोपियन माहौल था और उससे मिलता-जुलता आडंबरपूर्ण वक्तृत्व था´, ´शुरूआती दौर में स्वतंत्र होने का एहसास,जबर्दस्त आशा और आशावादी भ्रम.यह लोगों का वसंत था-और ठीक वसंत की तरह,स्थायी नहीं था इसलिए दीर्घायु नहीं हो पाया।´इन सभी क्रांतियों की प्रमुख साझा बात थी ´कि वे सब विजयी हुए फिर जल्द ही पराजित हुए´,´शुरूआती दिनों में ज़्यादातर क्रांति के क्षेत्रों की सरकारें या तो पूरी तरह ध्वस्त हुई हैं या असमर्थता की शिकार हुईं.सारी सरकारें बिना चुनौती के समर्पण कर गईं।अपेक्षाकृत बहुत ही कम समय में क्रांतियों ने अपनी पहलकदमी खो दी।´ अगस्त 1849 तक फ्रांस को छोड़कर सभी देशों में क्रांति मृतप्रायः हो गई। ´सारे पुराने सत्ताशाली अपनी सत्ताओं पर विराजमान हो चुके थे,कई जगहों पर पहले की अपेक्षा और शक्तिशाली अंदाजों में,क्रांतिकारी निर्वासित हो इधर-उधर बिखर गए थे.सारे संस्थागत बदलाव,सारे राजनैतिक और सामाजिक स्वप्न,जो1848 के वसंत में देखे गए थे,वे सारे के सारे नेस्तनाबूत हो चुके थे।´
      ´पूंजी के युग´ ने कला और साहित्य के क्षेत्र में जिन चीजों को जन्म दिया वे पहले के किसी भी युग में संभव नहीं थीं।यह सच है आधुनिककाल के पहले बहुत कुछ बेहतरीन साहित्य और दर्शन लिखा गया,उच्च कोटि के स्थापत्य और कला रूपों का निर्माण हुआ।लेकिन उन सबके बनाए मानकों और मूल्यों के दायरे और लेखकीय दायित्वों को आधुनिककाल में लेखक ने नए सिरे से परिभाषित किया। ´पूंजी के युग´ की केन्द्रीय विशेषता है हर चीज को बार-बार परिभाषित करना ।यहां तक कि तयशुदा चीजों,परिभाषाओं,संबंधों आदि को भी बार-बार परिभाषित करने की जरूरत पड़ती है,इसने साहित्य में ´समकालीनता´की धारणा को जन्म दिया।पहले साहित्य तो था लेकिन ´समकालीनता´ की धारणा नहीं थी।पहले लेखक नैसर्गिक भाव से लिखता था अब उसमें नया तत्व जुड़ा ´समकालीनता´।नए युग की रूचियां,स्वाद और मूल्य  ´समकालीनता´से प्रभावित थे।यह सच है कि कलाओं और साहित्य में गुणवत्ता के लिहाज से गिरावट आई,लेकिन ´उपन्यास´विधा के जन्म ने साहित्य के समूचे संसार को ही बदल दिया।
     ´पूंजी के युग´की महानतम साहित्यिक उपलब्धि है उपन्यास।हॉब्सबाम ने उपन्यास के बारे में लिखा ´साहित्य-उपन्यास के माध्यम से पोषित हुआ।यह एक ऐसा फार्म था जो बुर्जुआ समाज के उद्भव एवं अंतर्द्वद्वों से मुठभेड़ कर अपनी बात सक्षम ढ़ंग से रख रहा था।´ उल्लेखनीय है पुराने विधा रूपों नाटक,काव्य,महाकाव्य आदि में नए बुर्जुआ समाज को अभिव्यक्ति करने की साहित्यिक क्षमता ही नहीं थी,उपन्यास के जन्म के साथ पूर्व के सभी विधारूपों के चरित्र में उपन्यास की संगति में बदलाव आए।उल्लेखनीय है उपन्यास ,साहित्य की विभिन्न विधाओं में से एक विधा नहीं है।बल्कि यह विधाओं का राजा है।उसने अपने जन्म के साथ यह घोषणा की कि पहले से प्रचलित विधाएं अपने चरित्र को बदलें और उपन्यास की संगति में अपना विकास करें,जो विधा यह नहीं कर पाएगी वह अप्रासंगिक होने को अभिशप्त है।सन् 1848 के बाद शहरों और भवनों की संरचनाओं और स्थापत्य में बदलाब आया।भवन निर्माण कला को राजसी और आध्यात्मिक भवन कला के दायरे बाहर लाया गया।अब स्थापत्य कला के क्षेत्र में धर्मनिरपेक्ष और नागरिकबोध संपन्न इमारतों का जन्म हुआ। पहले वाले भवन पुराने किलों और राजसी वैभव के प्रतीक हुआ करते थे लेकिन नए भवन –स्थापत्य के केन्द्र में इसके लिए कोई जगह ही नहीं थी।
     हॉब्सबाम के अनुसार ´वियना शहर के पुराने किलों और दीवारों को 1850 के वर्षों में ढहा दिया गया और उससे उपजी ख़ाली जगहों में शानदार चक्करदार सड़कें बनाकर उनके पास बड़े भवनों को निर्मित कर दिया गया।वे कौन -से भवन थेॽ वे क्या थे ॽ एक स्टॉक एक्सचेंज(विनिमय-बाज़ार) का प्रतिनिधि था,दूसरा धर्म का (वोतिवखीशें),तीन उच्च शिक्षण संस्थान ,नागरिक सुविधा और सार्वजनिक मसलों से जुड़े प्रशासनिक भवन थे जैसे शहर की नगरपालिका,न्यायपालिका तथा संसद के महल, और लगभग आठ थिएटर संग्रहालय,शिक्षण-संस्थान आदि थे।´
     यह असल में बुर्जुआजी के विनीत भाव की अभिव्यक्ति का युग भी है।इस प्रक्रिया में बाजार भी बदला,नए किस्म के बाजार का जन्म हुआ।नए विस्तृत और वैभवशाली बाजार ने जन्म लिया।19वीं सदी में विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में अर्जित उपलब्धियों ने इन सभी क्षेत्रों में क्रांतिकारी परिवर्तनों को जन्म दिया।जनोत्पादन और जनोपभोग को नई ऊँचाईयां मिलीं।हर स्तर पर ये दोनों प्रवृत्तियां नजर आने लगीं।जनोत्पादन के कारण हर चीज सस्ते और पुनरूत्पादित रूप में सामने आई।पुनरूत्पादन की तकनीक ने साहित्य,पत्रकारिता,शिक्षा आदि में क्रांतिकारी परिवर्तनों को जन्म दिया।इन क्षेत्रों का लोकतांत्रिकीकरण हुआ।साथ ही कलाओं और साहित्य में अवमूल्यन के तत्व का भी प्रवेश हुआ।पहले कला और साहित्य रूपों का अवमूल्यन नहीं होता था लेकिन नए युग में तेजी से कला और साहित्य रूपों का अवमूल्यन होने लगा।तकनीकी विकास ने साहित्य और कला के आभामंडल को छिन्न-भिन्न कर दिया।पहले लेखक राज्याश्रित था,उसके ही सहारे आजीविका के लिए जिंदा था लेकिन नए ´पूंजी के युग´में वह ´पूंजी´पर आश्रित था,´पूंजी´के नियमों से संचालित था।हॉब्सबाम ने लिखा है ´कला अपने स्वरूप में वैभवशाली और धन का उपार्जन करने वाली थी।सर्जनात्मक प्रतिभा जन-मानस को आकर्षित करती थी और स्तरहीन भी नहीं थी´, ´हम उन लोगों को खोज सकते हैं,जो बुर्जुआ समाज के प्रतिरोध में खड़े  या उन्हें हतप्रभ करने की योजना बना रहे थे।या उन लोगों को भी जो ग्राहक खोजने में असफल रहे। यह विशेषतया फ्रांस में हुआ।´
    ´पूंजी के युग´ में एक नए किस्म के कलाबोध,जीनियस और व्यक्तिगत-उद्यम को जन्म दिया।हॉब्सबाम के अनुसार ´इस दौर में स्त्री-पुरूष वस्तुओं से सुविधासंपन्न हो रहे थे और साथ ही सम्मान भी पा रहे थे।राजसत्ताओं,रजवाड़ों और कुलीन-वर्ग के समाज में कलाकार सज्जा प्रदान करनेवाला व्यक्ति ही नहीं था,बल्कि स्वयं सज्जा का पर्याय बन राजदरबार में उपस्थित रहता था अथवा महंगी विलासिता प्रदान करने वाली वस्तुओं का देयकर्ता होता था,जैसे केश-सज्जा करनेवाले,पोशाक बनानेवाले जिनकी आवश्यकता फ़ैशनेबल लोगों को बनाए रहती थी।बुर्जुआ समाज के लिए वह ´जीनियस´(विलक्षण) था,जो दरअसल व्यक्तिगत उद्यम का ग़ैर-वित्तीय संस्करण था।वह एक ऐसा ´आदर्श´था जो भौतिक सुख-सुविधा को ताज मुहैय्या कराता था और साथ ही आध्यात्मिक  मूल्यों को भी जिलाए रखता था।´
    ´पूंजी के युग´में कला की नई समझ पैदा हुई,जिसके तहत कहा गया कि कला को संपूर्ण मांगों का पूर्तिकर्ता होना चाहिए।पारंपरिक धर्म की जगह पढ़े-लिखे स्वतंत्र लोगों के बीच उसने अपने लिए जगह हासिल कर ली।इस वर्ग को हम मद्यमवर्ग के रूप में जानते हैं।यह इस युग का नया वर्ग था।इसके अलावा नए वर्ग के रूप में मजदूरवर्ग सबसे ताकतवर वर्ग के रूप में  जन्म लेता है।साहित्य में इन दोनों वर्गों की पक्षधरता,जीवनदृष्टि और चित्रण को लेकर सबसे ज्यादा लिखा गया।इस तरह के लेखन में बुर्जुआ और मजदूरवर्ग के आत्मविश्वास से भरपूर नजरिए का जमकर चित्रण हुआ। ´आत्मविश्वास´ इस दौर की सबसे बड़ी लेखकीय पूंजी है।
    ´पूंजी के युग´ में सृजन के हर क्षेत्र में एक ही प्रश्न छाया हुआ था ,वह था ´यह आखिर है क्या ´,यह इस युग का जायज सवाल है।इसके ही गर्भ से यथार्थवाद का जन्म हुआ। ´यथार्थ´ और ´जीवन´ को लेकर साहित्य और अन्य कला रूपों में सबसे ज्यादा वैचारिक-सर्जनात्मक बहसें हुईं। ´शाश्वत साहित्य´ की धारणा का अंत हुआ, ´साहित्य´की नई धारणा का उदय हुआ,साहित्य का मतलब ही है परिवर्तन,समाज और साहित्य की अंतर्क्रियाओं को समझने की ओर ध्यान गया और यह मान लिया गया कि जिस तरह समाज प्रतिक्षण बदलता है वैसे ही साहित्य भी बदलता है।इसी प्रकार पहले लेखक महत्वपूर्ण था लेकिन ´य़थार्थवाद´के युग में लेखक को हल्का बनाया गया और ´य़थार्थवाद´को प्रमुख और वजनी बनाया गया।पुराना साहित्य अतीत से जोड़ता था,नए युग का साहित्य भविष्य से जोड़ता है,यह बुनियादी अंतर हरेक कला रूप में अभिव्यंजित हुआ।
     सन् 1848 का कला और साहित्य पर राजनैतिक दृष्टि से असर यह हुआ कि राजनीतिक प्रतिबद्धता के बिना कला संभव ही नहीं थी।इस दौर में ´जो आंखें देखती हैं´,नारे के तहत साहित्य और फोटोग्राफी के बीच एक नए रिश्ते की शुरूआत हुई।वास्तविकता भी यही थी कि ’पूंजी के युग´की नायिका है फोटोग्राफी और नायक है उपन्यास।ये दोनों मिलकर समूचे समाज को वृहत्तर स्तर पर प्रभावित करते हैं।इस दौर के बारे में हॉब्सबाम ने लिखा ´बदलाव,तकनीकी ईजादों ,तथा विषयवस्तुओं को लेकर समकालीनता नए अर्थ गढ़ती है।´ इस प्रक्रिया में रचना में एक नए गुण का समावेश होता है वह है ´वर्तमान´।अब कला,साहित्य, राजनीति,दर्शन आदि को ´वर्तमान´की कसौटी पर रखकर परखा जाने लगा।साहित्य और जीवन, कला और जीवन, दर्शन और जीवन के बीच मौजूद महा-अंतराल का इसने अंत कर दिया।
पुस्तक का नाम- पूंजी का युग
लेखक-एरिक हॉब्सबाम
अनुवाद-वंदना राग
प्रकाशक-संवाद प्रकाशन,मुंबईःमेरठ।  
(इंद्रप्रस्थ भारती मेंप्रकाशित)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...