शुक्रवार, 30 जून 2017

गुलाम संविधान को नहीं मानते


                नए दौर का सबसे खतरनाक पहलू है कि गुलाम विचारधारा में यकीन रखने वाले हमारे देश के उदारतावादी संविधान को नहीं मानते।वे संविधान प्रदत्त नैतिकता को ठुकराते हैं।एक जमाना था ब्रिटिश गुलामी से मुक्त होने के लिए देश में स्वाधीनता की आकांक्षा थी, गुलामी से मुक्त होने के लिए स्वाधीनता ,स्वतंत्रता और उदारतावाद को हमने गले लगाया, उससे जुड़े मूल्यों और नैतिकता को अपना कंठहार बनाया।लेकिन आपातकाल के बाद पैदा हुए युवावर्ग में देश के लिबरल संविधान के प्रति, उससे जुड़ी नैतिकताओं के प्रति नफरत पैदा हुई ,इस नफरत की जड़ में है धर्म और जाति आधारित गुलाम विचारधाराएं।

आपातकाल के बाद पैदा हुए समाज में युवा का आतंक है, आक्रामकता है,राजनीति में जिसका चमकता हुआ चेहरा नजर आ रहा है,यह वह युवा है जिसके पास किसी भी किस्म के लोकतांत्रिक मूल्यों और हकों के लिए संघर्ष करने का कोई अनुभव नहीं है। इसे सारी लिबरल मान्यताएं बिना संघर्ष के मिली हैं।यह युवा अपने निहित स्वार्थों में इस कदर डूबा है कि उसे लोकतांत्रिक मनुष्य, लोकतांत्रिक समाज और लोकतंत्र के निर्धारक मूल्यों और नैतिकता से ऩफरत है।वह अपनी जाति और अपने धर्म की श्रेष्ठता और उनकी सर्वोपरि भूमिका के नशे में डूबा है।हर चीज को जाति और धर्म के पैमाने पर कसकर देख रहा है।यहां तक कि संविधान को भी जाति और धर्म के पैमाने पर परखकर देख रहा है।कायदे से जाति और धर्म की श्रेष्ठता पर उसे शर्म आनी चाहिए,लेकिन जाति और धार्मिक पहचान के रूप उसे इस कदर पसंद हैं कि उनके अलावा वह कोई चीज सुनने को तैयार नहीं है। यह वह युवा है जिसे बिना कोई संघर्ष किए सभी लोकतांत्रिक हक मिले हैं,लेकिन वह लोकतांत्रिक हकों, लिबरल संविधानजनित मूल्यों और नैतिकता को ठेंगे पर रखता है।हर चीज को जाति और धर्म की भीड़चेतना के आधार पर तय करना चाहता है।फलतः लोकतंत्र को इसने भीड़तंत्र में तब्दील कर दिया है।आप जरा टीवी इमेजों में जाति और धर्म के नाम पर उठे आंदोलनों को देखिए और उनमें शिरकत करने वालों की उम्र देखिए तो पाएंगे कि इनमें अधिकांश युवा हैं।

राममंदिर आंदोलन,असम आंदोलन,आरक्षण विरोधी आंदोलन आदि से यह युवा अपनी नई अ-लोकतांत्रिक पहचान के साथ समाज में दाखिल होता है। उल्लेखनीय है इन आंदोलनों में आरएसएस की केन्द्रीय भूमिका थी। समग्रता में इन सभी आंदोलनों के जरिए एक ही संदेश गया है ´हम संविधान को नहीं मानते´ ,´संविधान प्रदत्त मूल्यों और नैतिकता को नहीं मानते।´इन आंदोलनों में शामिल युवाओं को संविधानप्रदत्त हकों का लाभ मिला लेकिन इन लोगों ने संविधान प्रदत्त मूल्यों और नैतिकताओं को मानने से इंकार किया। वे अपने को विभिन्न नामों से संबोधित करने में रुचि रखते हैं लेकिन ´लोकतांत्रिक´ या ´नागरिक´ कहलाने में इनकी कोई रुचि नहीं है,मसलन्, वे कहते हैं ´हम भारतीय हैं´,´हम भारतीय मुसलमान हैं´,´हम हिंदू हैं´,´हम ईसाई हैं´,´हम दलित हैं´,आदि, लेकिन वे अपने को लोकतांत्रिक या नागरिक कहने से परहेज करते हैं।लोकतंत्र में रहना, लोकतांत्रिक उदार संविधान के हकों का उपभोग करना और लोकतांत्रिक पहचान के ´नागरिक´ रूप में अपने को न देखना,यह सबसे बड़ी कमी है।इस कमी को हमारा देश जिस दिन पूरा कर लेगा उस दिन वह संविधान का सम्मान करना सीख जाएगा।

नागरिक की पहचान हमें गुलाम पहचान के रूपों से मुक्त करती है, एक बड़ा परिवेश देती है,नए लोकतांत्रिक असंख्य विकल्पों को जन्म देती है। लोकतांत्रिक आत्म-सम्मान पैदा करती है। आयरनी यह है हम नागरिक के गौरव में जीने की बजाय जाति और धर्मगत पहचान के आत्म-सम्मान में जीना पसंद करते हैं।इससे समाज में लोकतंत्र कमजोर हुआ है और उससे फासिज्म को मदद मिली है।आज जो युवा मोदी-मोदी का नारा लगा रहा है,यह वही युवा है जिसके अंदर जाति और धर्म की गुलाम पहचान कूट-कूटकर भरी हुई है।वह गुलामी में मस्त है और निरंकुश की तरह व्यवहार कर रहा है।



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...