गुरुवार, 1 सितंबर 2016

पब्लिक इंटिलेक्चुअल नहीं हैं नामवर सिंह-


मैं गरम लिखता हूँ,नरम भी लिखता हूं,मार्क्सवादी भी लिखता हूँ,बुर्जुआ दृष्टिकोण से भी लिखता हूँ,मुझे अनेक बातें बुर्जुआजी की पसंद हैं,अनेक बातें क्रांतिकारियों की पसंद हैं,मुझे नास्तिक प्यारे हैं लेकिन मैंआस्तिकों का भी सम्मान करता हूं।पेशे से शिक्षक हूँ,आमतौर पर मुझे मार्क्सवाद पसंद है,लेकिन मैं क्रांतिकारी नहीं हूं,मैं उस समय भी क्रांतिकारी नहीं था जब जेएनयूएसयू का अध्यक्ष बना था,उन दिनों भी क्रांतिकारी नहीं था जब मैं माकपा का सक्रिय सदस्य था,मेरे अधिकतर दोस्त कम्युनिस्ट हैं।इसके बावजूद मैं क्रांतिकारी नहीं हूँ।मैं सही अर्थ में मार्क्सवादी भी नहीं हूँ।हां सच बोलना,सच देखना,सच के साथ खड़े होना मैंने कम्युनिस्टों से ही सीखा है।इसके बावजूद मैं क्रांतिकारी नहीं हूँ,मैं पेशेवर शिक्षक हूँ,बुद्धिजीवी हूँ ,फर्श पर बैठकर मैंने संस्कृत पाठशाला में पढ़ाई की है,जाहिर है यह सुख

नामवरजी को भी नसीब नहीं हुआ।वे फर्श पर बैठकर कभी नहीं पढ़े।मैंने साम्यवाद की शिक्षा कैरियर के लिए नहीं लीसाम्यवादी विचार बड़े ही स्वाभाविक ढ़ंग से मथुरा में यमुना की तरंगों की तरह मेरे जीवन में शामिल हुए हैं।निम्न-मध्यवर्गीय परिवार में जन्म हुआ,ऐसे परिवार में पढ़कर मथुरा के परिवेश में यथार्थको देखने,राजनीति करने की शिक्षा मुझे उन तमाम मित्रों से मिली जो मध्यवर्ग से आते थे,जेएनयू जाकर मुझे कुछ पक्के समर्पित क्रांतिकारियों से मिलने का मौका मिला।

उसके पहले मैं निजी तौर पर दो पेशेवरक्रांतिकारियों से परिचय प्राप्त कर चुका था वे हैं का.सुनीत चोपड़ा और का.प्रकाश कारात,इन दोनों से मेरा परिचय मथुरा में ही आपातकाल में हुआ था। मैं ये बातें इसलिए लिख रहा हूं कि मेरे बारे में भ्रम है कि मैं मार्क्सवादी हूँ।मैं कतई मार्क्सवादी नहीं हूँ।मुझे वैष्णव सम्प्रदाय पसंद है,शाक्त सम्प्रदाय में मेरी दीक्षा हुई और अंत में ईश्वरमु्क्त हो गया,लेकिन बीच-बीच में मुझे भगवान की याद वैसे ही सताती है,जिस तरह मनुष्य को अतीत याद आता है।मैं मजदूरों-किसानों की पक्ष में खड़ा होना सामाजिकजिम्मेदारी मानता हूँ।मुझे अन्याय नापसंद है।उसी तरह जालिमाना हरकतें नापसंद हैं।मैं पेशे से क्रांतिकारी नहीं शिक्षक हूँ।चमचागिरी से मुझे सख्त नफरत है।मैं कोई भी बात इसलिएनहीं मान लूँगा कि वह बात किसी मार्क्सवादी ने कही है,मैंने मार्क्सवाद को यथार्थ की कसौटी पर कसने की कला मार्क्स से सीखी है,नामवर सिंह ने यदि कुछ सही लिखा है तो मैंने माना है,लेकिन गलत लिखा है या गलत बोला है तो उसकी तत्काल आलोचना की है।मैं जानता हूं हिन्दी में बहुत बड़ा वर्ग है प्रोफेसरों का,जो नामवरजी का ऋणी है,उनके नाम पर अहर्निश झूठी प्रशंसा करता है,इस तरह के प्रोफेसरों ने नामवर सिंह का नुकसान किया है साथ ही हिन्दी के बौद्धिक परिवेश को क्षतिग्रस्त किया है। हिन्दी विभागों में अनपढों या कमपढों की नियुक्तियां करके नामवरजी ने हिन्दी जगत की जितनी क्षति की है उसके लिए उनको कभी हिन्दी जगत माफ नहीं कर सकता।इतनी व्यापक क्षति होने के बावजूद यदि दिल्ली विश्वविद्यालय का एक प्रोफेसर बेहूदे किस्म के कमेंटस हम लोगों पर लिखने की कोशिश कर रहा है तो हम उससे यही कहना चाहेंगे नामवर सिंह के नोटस या किसी किताब या किसी निबंध पर पहले खुलकर आलोचना लिखकर दिखाओ,पहले वह आलोचकीय विवेक पैदा करो जो नामवरजी से पढ़कर हमने हासिल किया है।हमने नामवरजी का श्रेष्ठग्रहण किया है,घटिया ग्रहण नहीं किया है।नामवरजी की हमने प्रशंसा भी लिखी तो उनके सामाजिक-साहित्यिक लेखन की आलोचना भी लिखी।हम विनम्रतापूर्वक कहना चाहते हैं,नामवरजी विद्वान हैं,बुद्धिजीवी हैं,बेहतरीन शिक्षक हैं,लेकिन पब्लिक इंटेलेक्चुअल नहीं हैं।वे मंच पर बैठे बुद्धिजीवियों में शोभा देते हैं।लेकिन वे पब्लिक इंटिलेक्चुअल नहीं हैं।वे आम जनता के हितों ,नीतियों और कार्यक्रमों से जुड़े सवालों पर निरंतर न तो बोलते रहे हैं और न लिखते रहे हैं।पब्लिक इंटिलेक्चुअल हमेशा जनता में सच के साथ खड़ा रहता है,वह नफा नुकसान देखकर राय व्यक्त नहीं करता।नामवरजी तो इस मामले में पक्के बनिया हैं,वे नफा-नुकसान देखकर रायदेते हैं।पब्लिक इंटिलेक्चुअल सत्य का हिमायती होता है।नामवरजी तो अवसरवादी राजनाति के पक्ष में खड़े रहे हैं। संक्षेप में इतना ही,बाकी प्रोफेसर गोपेश्वर सिंह के उत्तर आने के बाद।

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