रविवार, 7 अगस्त 2016

दूसरी परम्परा , सत्ता और रवीन्द्रनाथ

       इन दिनों अचानक सत्ता के साथ लेखक के संबंध के सवाल को नामवरजी के जन्मदिन के बहाने हमारे अनेक लेखक मित्रों ने सत्ता को रसीले,लुभावने ढ़ंग से परिभाषित करना आरंभ कर दिया है,इसके लिए वे कुतर्क तक गढ़ रहे हैं।लेखक और सत्ता के संबंध का सवाल प्रमुख सवालों में से एक है,यह आश्चर्य की बात है कि ´दूसरी परम्परा की खोज´करते समय इस सवाल पर लोगों ने कभी विचार नहीं किया।जबकि दूसरी परम्परा ने सर्जक रवीन्द्रनाथ ने इस सवाल को अपने तरीके से हल करने की कोशिश की है और उससे बहुत कुछ सीख सकते हैं।

लॉर्ड कर्जन के आदेश से जब दिल्ली-दरबार का आयोजन किया गया तो रवीन्द्रनाथ ने उसका तीव्र विरोध किया था।इसके कारण उनको सरकार का क्रोध सहना पड़ा।उस समय उन्होंने जो बातें कही थीं उनको आज फिर से स्मरण करने की जरूरत है। रवीन्द्र नाथ ने लिखा ´दरबार एक प्राच्य वस्तु है।जब पाश्चात्य अधिकारी उसका उपयोग करते हैं तो उसका खोखलापन ही सामने आता है;उसकी पूर्णता नहीं।इस प्राच्य समारम्भ में ´प्राच्यता´ कहां है ॽ प्राच्यता इसमें है कि दो पक्षों के बीच आत्मिक सम्बन्ध स्वीकार किया गया है।तलवार के जोर से जो सम्बन्ध जुड़ता है वह तो विरोध का सम्बन्ध होता है। लेकिन सौजन्य द्वारा प्रस्थापित सम्बन्ध दोनों पक्षों को निकट लाता है।दरबार में सम्राट को अपना औदार्य व्यक्त करने का अवसर मिलता था।उस दिन सम्राट के महल का द्वार खुला रहता था और उसके दान की कोई सीमा न होती थी।पाश्चात्य नकली दरबार में कृपणता है,वहाँ जन-साधारण का स्थान बहुत ही संकीर्ण है।पहरेदारों के हथियार ´राजपुरूषों´ की संशय-वृत्ति जताते हैं और दरबार में जो व्यय होता है उसका भार अतिथियों को ही वहन करना पड़ता है। नतमस्तक होकर राजा का प्रताप स्वीकार करना-यही है इस दरबार का एक-मात्र तात्पर्य।इस उत्सव-समारोह में दोनों पक्षों के सम्बन्धों में जो अपमान-भावना निहित है वही व्यक्त होती है,और तड़क-भड़क से व्यक्त होती है।ऐसे कृत्रिम,हृदयहीन आडम्बर से प्राच्य हृदय को आक्रान्त किया जा सकता है इस विचार से ही धृष्टता टपकती है और शासकों की प्रजा के प्रति अपमानजनक भावना स्पष्ट होती है।भारत में अँग्रेजों का प्रभुत्व प्रत्येक स्थान पर व्याप्त है-विधान में,सभागृह में,शासनप्रणाली में।लेकिन इस प्रभुत्व को उत्सव का रूप देकर उसे और भी तीव्र बनाने का आखिर क्या प्रयोजन है ॽ ´

रवीन्द्र नाथ ने आगे लिखा ´इस तरह के कृत्रिम उत्सव से घोषित होता है कि भारतवर्ष में अँग्रेज़ मजबूती से जम गए हैं; लेकिन उनके साथ हमारा सम्बन्ध यान्त्रिक है,मानवीय नहीं।इस देश के साथ उनका नाता लाभ का है,व्यवहार का है,हृदय का नाता नहीं है।कर्तव्य के जाल से देश आवृत्त है।इस कर्तव्य की निपुणता और उपयोगिता स्वीकार की जा सकती है।फिर भी हमारी मानवीय प्रकृति तो स्वभावतःइस प्राणहीन शासन-तन्त्र से पीड़ित होती है।´

उन्होंने आगे जो कहा वह बहुत ही महत्वपूर्ण है, लिखा ´भारतवासी यदि आजीवन एक प्रबल शक्तिशाली यन्त्र का हाथ पकड़कर चलने के अभ्यस्त हो जायं तो इससे बढ़कर देश की दूसरी दुर्गति नहीं,चाहे उससे कितनी ही सुविधा क्यों न प्राप्त हो।´





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