रविवार, 7 अगस्त 2016

रवीन्द्रनाथ से क्या सीखें -

सात अगस्त 1941 को रवीन्द्रनाथ टैगोर की मृत्यु हुई ,यानी आज का दिन हम भारतवासियों के लिए स्मरणीय दिन है।इसदिन हमारा एक महान लेखक इस धरती पर अजस्र सुंदर सपने देकर चला गया। मनुष्य की सत्ता, स्वतंत्रता और इच्छा के महान प्रवक्ता थे टैगोर।टैगोर आज भारत के जनमानस की शक्ति हैं।आमतौर पर टैगोर को कवि के रूप में ही देखने की आदत है,लेकिन वे जितने बड़े कवि थे,उससे बड़े विचारक भी थे। उनसे सीखने लायक कुछ विचार।

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है "फूल जब खिल उठता है तब मन में यही आता है कि जैसे फूल ही पेड़ का एक-मात्र लक्ष्य हो-उसका सौंदर्य,उसकी सुगन्ध ऐसी होती है कि लगता है जैसे वनलक्ष्मी की साधना चरम धन हो।लेकिन यह बात छिपी रह जाती है कि वह फूल लगने का केवल एक उपलक्ष्य है-वह वर्तमान के गौरव में ही प्रसन्न रहता है,भविष्य उसे अभिभूत नहीं करता।"

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है- ' मैं क्षुद्र व्यक्ति जब अपनी एक क्षुद्र बात कहने के लिए चंचल हो उठा था तब न जाने किसने मेरा हौसला बढ़ाकर कहा, ''कहो-कहो,अपनी बात ही कहो। उसी बात के लिए लोग टकटकी लगाए देख रहे हैं।" ' आज यही सबक है कि हम अपनी बात बेधड़क कहें।

´हमारे बचपन में भोग-विलास का सरंजाम नहीं था।इतना कहना काफी होगा। मोटे रूप में तब की जीवन-यात्रा आज की तुलना में कहीं ज्यादा सीधी-सादी थी। ...हमारे घर में तो विशेष रूप से लड़कों की देख-रेख या ले- लपक करना एकदम नहीं था।...ले-लपक वाली बात अभिभावकों के अपने सन्तोष के लिए उनकी तृप्ति के लिए होती है...बच्चों के लिए नहीं।´

´मैं पहले ही कह आया हूँ कि उन दिनों छोटे-बड़े के बीच आवा-जाही के लिए पुल न था,लेकिन इन सब पुराने कायदों की भीड़ में ज्योति दा बिलकुल विशुद्ध नया मन लेकर आये थे। मैं उनसे बारह बरस छोटा था। मुझे इसी का आश्चर्य है कि उम्र की इतनी बड़ी दूरी के बावजूद मुझ पर उनकी नजर कैसे पड़ी। और भी आश्चर्य की बात यह है कि बातचीत में उन्होंने कभी अपने बडप्पन के मारे मेरा मुँह बन्द करने की कोशिश नहीं की। इसीलिए कोई भी बात सोचने में मुझे साहस का अभाव न होता। आज बच्चों के बीच ही में रहता हूँ। पाँच तरह की बातें कहता हूँ और उनका मुँह बन्द देखता हूँ।बात पूछने में डर लगता है। मैं समझ सकता हूँ ,यह लोग सब उन्हीं बूढ़ों के जमाने के बच्चे हैं जिस जमाने के बड़े लोग बात कहते थे और छोटे लोग गूंगों की तरह बैठे रहते थे। बात पूछने का साहस नये जमाने के बच्चों का है और बूढ़ों के जमाने के बच्चे सब कुछ सिर झुकाकर मान लेते थे।" सबक यह कि हम अपने बच्चों को निर्भय होकर बोलने दें।

हमारे बीच अनेक ऐसे लोग हैं जो बेकार की बातें करना पसंद नहीं करते और हमेशा ज्ञान चर्चा में डूबे रहते हैं। वे यही चाहते हैं कि पढ़े लिखे लोगों को हमेशा गंभीर रहना चाहिए। बेकार की बातों पर समय खर्च करने को वे फिजूल में समय की बर्बादी समझते हैं। इस तरह के लोगों को और इनके तर्कों को ध्यान में ऱखकर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा ,' आदमी की असली पहचान दूसरे खर्चों से ज्यादा उसके बेकार के खर्चों से होती है, क्योंकि आदमी खर्च करता है बँधे हुए नियमों के अनुसार ,फिजूलखर्ची करता है अपने मन से। जैसे बेकार खर्चा होता है वैसे ही बेकार बात भी होती है।बेकार बात में ही आदमी पकड़ में आता है। उपदेश की बात जिस रास्ते से चलती है वह मनु के समय से बँधा हुआ है; काम की बात जिस रास्ते से अपनी बैलगाड़ी ठेलकर ले जाती है वह रास्ता कामकाजी लोगों के पैंरों से रौंदा जाकर तृण-पुष्प-शून्य हो गया है।बेकार बात अपने ढ़ंग से कहनी ही पड़ती है।' टैगोर ने लिखा ' जो आदमी कहने के लिए कोई खास बात न रहने पर कुछ कह ही नहीं सकता,बोलेगा तो वेदवाक्य;नहीं तो चुप बैठा रहेगा,हे चतुरानन,उसकी कुटुम्बिता,उसका साहचर्य,उसका पड़ोस ' शिरसि मा लिख मा लिख मा लिख ‍!'



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