रविवार, 7 अगस्त 2016

विज़नरी लेखक थे रवीन्द्रनाथ टैगोर

         सात अगस्त रवीन्द्रनाथ टैगोर की पुण्यतिथि है।टैगोर का कवि के रूप में जितना बड़ा योगदान है उतना ही आलोचना के क्षेत्र में भी योगदान है।आमतौर पर उनके कवि रूप को हम ज्यादा याद करते हैं।रवीन्द्र संगीत को याद करते हैं,लेकिन इन दिनों परम्परा,इतिहास,धर्मनिरपेक्षता आदि पर हमले हो रहे हैं तो उनके विचार हम सबके लिए रोशनी का काम कर सकते हैं।हम देखें कि उनके विचार क्या हैं और उनसे हम क्या सीख सकते हैं।

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है- "लोहे से बना कारखाना ही एकमात्र कारखाना नहीं है-विचारहीन नियम लोहे से भी अधिक कठोर हैं,यन्त्र से भी अधिक संकीर्ण है।जो बृहत् व्यवस्था-प्रणाली निष्ठुर शासन का आतंक दिखाकर युग-युग तक कोटि-कोटि नर-नारी से मुक्तिहीन आचारों की पुनरावृत्ति कराती है,वह क्या किसी यन्त्र से कम है ?उसके जाँते में क्या मनुष्यत्व नहीं पिसता ?बुद्धि की स्वाधीनता पर अविश्वास दिखाकर ,विधि-निषेधों के इतने कठोर,चित्तशून्य कारखाने को भारत के अलावा और कहीं तैयार नहीं किया गया।"

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने राजा राम मोहन राय के बारे में जो लिखा वह बेहद महत्वपूर्ण है।लिखा ´राजा राममोहन राय का जन्म 22 मई 1772 ई. को राधा नगर नामक बंगाल के एक गाँव में, पुराने विचारों से सम्पन्न बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्होंने अपने जीवन में अरबी, फ़ारसी, अंग्रेज़ी, ग्रीक, हिब्रू आदि भाषाओं का अध्ययन किया था। हिन्दू, ईसाई, इस्लाम और सूफी धर्म का भी उन्होंने गम्भीर अध्ययन किया था। 17 वर्ष की अल्पायु में ही वे मूर्ति पूजा विरोधी हो गये थे।वे अंग्रेज़ी भाषा और सभ्यता से काफ़ी प्रभावित थे।उन्होंने इंग्लैंड की यात्रा की। धर्म और समाज सुधार उनका मुख्य लक्ष्य था। वे ईश्वर की एकता में विश्वास करते थे और सभी प्रकार के धार्मिक अंधविश्वास और कर्मकांडों के विरोधी थे। अपने विचारों को उन्होंने लेखों और पुस्तकों में प्रकाशित करवाया। किन्तु हिन्दू और ईसाई प्रचारकों से उनका काफ़ी संघर्ष हुआ, परन्तु वे जीवन भर अपने विचारों का समर्थन करते रहे और उनके प्रचार के लिए उन्होंने ब्रह्मसमाज की स्थापना की।´

वे ब्रह्म समाज के संस्थापक, भारतीय भाषायी प्रेस के प्रवर्तक, जनजागरण और सामाजिक सुधार आंदोलन के प्रणेता तथा बंगाल में नव-जागरण युग के पितामह थे। धार्मिक और सामाजिक विकास के क्षेत्र में राजा राममोहन राय का नाम सबसे अग्रणी है। राजा राम मोहन राय ने तत्कालीन भारतीय समाज की कट्टरता, रूढ़िवादिता एवं अंधविश्वासों को दूर करके उसे आधुनिक बनाने का प्रयास किया।

राममोहन राय के बारे में टैगोर ने लिखा- "उस समय के मर्म को न विदेशियों ने पहचाना था, न भारतवासियों ने। केवल राममोहन राय समझ सके थे कि इस युग का आह्वान महान् ऐक्य का आह्वान है। ज्ञानालोक से प्रदीप्त उनके उदार हृदय में हिन्दू-मुसलमान-ईसाई सबके लिए स्थान था। उनका हृदय भारत का हृदय है, उन्होंने अपने -आप में भारत का सत्य परिचय दिया है।भारत का सत्य परिचय उसी मनुष्य में मिलता है जिसके हृदय में मनुष्य मात्र के लिए सम्मान है,स्वीकृति है।"

टैगोर ने यह भी लिखा ," मानव-इतिहास की मुख्य समस्या क्या है ?यही कि अन्धता और मूर्खता के कारण मनुष्य का मनुष्य से विच्छेद हो जाता है।मानव समाज का सर्वप्रधान तत्व है मनुष्य-मात्र का ऐक्य।सभ्यता का अर्थ है एकत्र होने का अनुशीलन।"

आज के समय और पश्चिम बंगाल पर रवीन्द्रनाथ टैगोर की ये पक्तियां खरी उतरती हैं,टैगोर ने लिखा है- "बंगदेश में ईर्ष्या ,निन्दा,दलबन्दी, और परस्पर धिक्कार तो हैं ही ,उस पर चित्त का प्रकाश भी मलिन हो चले तो आत्मश्रद्धा के अभाव से दूसरों को नीचे गिराने का प्रयास और भी घातक बन जायगा।"

टैगोर ने लिखा - "साधारणतःस्त्रियों के सुख,स्वास्थ्य और स्वच्छन्दता को हम परिहास का विषय मानते हैं।हमारे लिए यह विनोद का एक उपकरण हो जाता है यह भी हमारी क्षुद्रता और कापुरूषता के लक्षणों में से एक है।"

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने वसंत पर लिखा है- "वसंत के दिन विरहिणी का मन हाहाकार करता है, यह बात हमने प्राचीन काव्यों में पढ़ी है-इस समय यह बात लिखने हुए हमें संकोच होता है,बाद को लोग हँसेंगे। प्रकृति के साथ अपने मन का संकोच हमने ऐसा तोड़ लिया है।वसंत में समस्त वन-उपवन में फूल खिलने का समय उपस्थित होता है;बह उनके प्राण की अजस्रता का,विकास के उत्सव का समय है।तब आत्मदान के उच्छवास से तरू-लता पागल हो उठते हैं;तब उनको हिसाब किताब की कोई चेतना नहीं रह जाती;जहाँ पर दो-ठो फल लगेंगे,वहाँ पच्चीस कलियाँ लग जाती हैं। मनुष्य क्या बस इस अजस्रता के स्रोत से रूँधता रहेगा ?अपने को खिलायेगा नहीं,फलायगा नहीं,दान करना न चाहेगा ?"

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने सोवियत संघ की इकसार शिक्षा व्यवस्था पर जो टिप्पणी लिखी थी उसकी कुछ अति मूल्यवान पंक्तियां पढ़ें।ये पंक्तियां ऐसे समय लिखी गयी थीं जिस समय रूस की वे स्वयं प्रशंसा लिख रहे थे। टैगोर ने लिखा- "वह गलती यह है कि शिक्षा पद्धति का इन्होंने एक साँचा-सा बना डाला है, पर
साँचे में ढला मनुष्य कभी स्थायी नहीं हो सकता -- सजीव हृदय तत्व के साथ यदि विद्या तत्व का मेल न हो, तो या तो किसी दिन साँचा ही टूट जाएगा, या मनुष्य का हृदय ही मर कर मुर्दा बन जाएगा, या मशीन का पुर्जा बना रहेगा।" अंततः सोवियतसंघ टूट गया और टैगोर सही साबित हुए।एक विज़नरी लेखक की यही महानता है कि वह बहुत दूर घटने वाली चीजों को भी पकड़ने में समर्थ होता है।

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है- "अज्ञान और अंध-संस्कार की जलवायु निरंकुश शासन के लिए अनुकूल होती है। मानवोचित अधिकारों से वंचित होकर भी संतुष्ट रहना ऐसी अवस्था में ही संभव होता है।हमारे देश के अनेक पुरूषों के मन में आज भी वही भाव है।लेकिन समय के विरूद्दसंग्राम में आखिर उन्हें हार माननी होगी।"

भारतीय समाज के बारे में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा- "इस समाज ने विचार-बुद्धि के प्रति श्रद्धा रखने का साहस नहीं किया।आचार पर ही पूर्णतया अवलम्बित रहा।"

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है भारतीय स्त्रीके लिए -" स्वामी उनके लिए 'आइडिया' (idea) है,किसी व्यक्ति के सामने स्त्री नतशिर नहीं होती, एक idea के सामने धर्मबल से आत्मसमर्पण करती है। स्वामी में यदि मनुष्यत्व हो तो स्त्री के इस 'आइडियल' प्रेम की शिक्षा से उसका चित्त भी उज्ज्वल हो जाता है।ऐसे उदाहरण हमारे देखने में आते हैं । यही 'आइडियल' प्रेम यथार्थ मुक्त प्रेम है। यह प्रेम प्रकृति के मोहबन्धन की उपेक्षा करता है। "









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