सोमवार, 15 अगस्त 2016

विभाजन की पीड़ा और कोलकाता

     कोलकाता कुछ मामले में असामान्य शहर है।इस शहर ने जितनी राजनीतिक उथल-पुथल झेली है वैसी अन्य किसी शहर ने नहीं झेली।यह अकेला शहर है जिसने दो बार भारत विभाजन की पीड़ा को महसूस किया है।यह असामान्य पीड़ा थी।मैं अभी तक समझ नहीं पाया हूं कि बंगाली समाज के मनोविज्ञान पर इन दोनों विभाजन की घटनाओं के किस तरह के असर रहे हैं।मैं स शहर के विभिन्न इलाकों में कईबार घूमा हूँ,अनेक रंगत के लोगों से मिला हूँ,लेकिन कहीं पर भी हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य की अनुभूति नहीं हुई ।दिलचस्प बात यह है पहले भारत विभाजन के समय कई साल आंदोलन चला । यह बंग-भंग के नाम से चला आंदोलन था।यह पहला सबसे बड़ा आंदोलन था जिसने राष्ट्रवाद की परिकल्पना को सड़कों पर साकार होते देखा।इस दौर के राष्ट्रवाद के हीरो थे सुरेन्द्र नाथ बनर्जी। सांस्कृतिक भिन्नता के बावजूद हम सब एक हैं का नारा,इसकी धुरी था। इस आंदोलन ने संस्कृति के भेदों और अंतरों को बीच में आने ही नहीं दिया।उल्लेखनीय है उस समय बंगाल समूचा राष्ट्रवादी नेतृत्व उच्च जाति के हिन्दुओं के हाथ में था,लेकिन हम सब एक हैं,का नारा प्रमुख रहा।राष्ट्रवाद के साथ धर्म को किसी ने नहीं जोड़ा।लेकिन दुखद है कि इधर के वर्षों में आरएसएस ने राष्ट्रवाद के साथ धर्म को जोड़ दिया है।कालांतर में चित्तरंजन दास ने सभी धर्मों की एकता को ´जन राष्ट्रवाद´ की शक्ल में रूपान्तरित कर दिया।इसका आधार उन्होंने हिन्दू-मुसलिम एकता को बनाया।

बंग-भंग आंदोलन के मुझे दो प्रसंग याद आ रहे हैं जिनसे हम आज भी बहुत कुछ सीख सकते हैं। 28सितंबर1905 को महालया अर्थात् पितृविसर्जन का दिन था।उस दिन के कलकत्ता के प्रसिद्ध कालीघाट के काली मंदिर में अनोखी विराट पूजा हुई।उसका वर्णन करते हुए अंग्रेजी दैनिक ´अमृत बाजार पत्रिका´ ने 29सितंबर को लिखा , ´सबेरे से ही नंगे पैर लोगों के जुलूस चितपुर रोड़ और कार्नवालिस स्ट्रीट में कालीघाट की तरफ चलने लगे।दोपहर 2बजे तक मंदिर के सामने 50हजार से ज्यादा विशाल जनसमुदाय जमा हो गया।कीर्तन पाटियां राष्ट्रीय गाने गा रही थीं।विराट पूजा के बाद मंदिर के ब्राह्मणों ने संस्कृत में आह्वान कियाः ´सब देवताओं से पहले मातृभूमि की पूजा करो; संकीर्णता,सारे धार्मिक मतभेदों,कटुता और स्वार्थपरता को छोड़ दो,सब लोग मातृभूमि की सेवा करने की सौगंध लो और उसके कष्ट दूर करने में अपना जीवन लगा दो ।´

इसके बाद लोग बड़े बड़े जत्थों में मंदिर के अंदर गए और निम्नलिखित सौगंध लीः

´मां इस पवित्र दिन आपके सामने और इस पवित्र स्थान में खड़े होकर मैं गंभीरता से प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं भरसक विदेशी वस्तुओं का कभी इस्तेमाल कभी न करूँगा,कि मैं ऐसी वस्तुओं को विदेशी दुकानों से न खरीदूँगा जो भारतीय दुकानों में मिलती हैं,कि मैं ऐसे काम के लिए विदेशियों को नियुक्त नहीं करूँगा जिसे मेरे देशवासी कर सकते हैं।´

दूसरा वाकया रवीन्द्रनाथ टैगोर से जुड़ा है।16अक्टूबर 1905 को ,जिस दिन भारत सरकार बंगाल के दो टुकड़े करने जा रही थी उस दिन उन्होंने ´राखी दिवस´मनाने का आह्वान किया और कहा ´यह दिन पूर्व बंगाल के लोगों और पश्चिम बंगाल के लोगों के बीच,धनियों और गरीबों के बीच,इस भूमि में पैदा हुए ईसाइयों,मुसलमानों और हिन्दुओं के बीच अटूट भातृत्व को सूचित करने के दिवस के रूप में मनाया जाए।´

इन दो घटनाओं ने आम जनता में अटूट एकता और साम्प्रदायिक सौहार्द बनाए रखने में बहुत बड़ी भूमिका अदा की।इसके विपरीत इन दिनों जितने भी आंदोलन हो रहे हैं उनमें आरएसएस खुलकर धर्म का राजनीतिक दुरूपयोग करके आम जनता की एकता तोड़ने,मुसलमानों और हिन्दुओं में भाईचारा नष्ट करने का प्रयास करता रहा है।इससे स्वतंत्र भारत, विषाक्त भारत की अनुभूति देने लगा है।बंग-भंग जैसी महान दुर्घटना के बावजूद नेताओं ने जनता की एकता बनाए रखने की भरपूर कोशिश की।यही वह मुख्य बिन्दु है जहां से हमें अपनी सभी किस्म की राजनीतिक गतिविधियों,लेखन,सांस्कृतिक कार्यों आदि को देखना चाहिए।जनता में एकता रहे,साम्प्रदायिक सद्भाव रहे चाहे जितनी कठिन परिस्थिति हो हम इस मार्ग से विचलित न हों।



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