रविवार, 14 अगस्त 2016

तर्कवाद और मंदिर की प्रतिस्पर्धा का केन्द्र है कोलकाता

         कोलकाता में रहते मुझे 27साल हो गए,इस दौरान कोलकाता में बहुत कुछ बदलते देखा है।कोलकाता में अनेक किस्म की विचारधारात्मक लड़ाईयां देखीं,नए किस्म के जनांदोलन देखे।लेकिन सबसे बड़ा परिवर्तन यह देखा कि हठात् मंदिर संस्कृति चारों ओर छा गयी।कोलकाता में पहले इतने मंदिर नहीं थे, लेकिन मेरे देखते ही देखते हर गली के मुहाने पर,हर पेड़ के आसपास कोई न कोई मंदिर आ गया,मंदिर बनाने वालों का यहां संगठित गिरोह है.ये मंदिर स्वतःस्फूर्त्त नहीं हैं।मैं जिस इलाके (काकुरगाछी) में रहता हूँ वहां देखते ही देखते कई छोटे-छोटे मंदिर जन्म ले चुके हैं।

कोलकाता सबसे जागृत राजनीतिक धर्मनिरपेक्ष शहर है,लेकिन हजारों छोटे-छोटे मंदिरों का शहर है। इस शहर में जिस तरह हर व्यक्ति ´तर्कवादी´,´विवेकवादी´है ,उसी तरह हर व्यक्ति के सामने मंदिरों का नए सिरे से हर मुहल्ले में उभरकर आना भी एक चुनौती है।´तर्कवाद´ और´मंदिर´का यह द्वंद्व इस शहर की जान है।इस शहर को जानना है तो इस द्वंद्व को समझना होगा,इस द्वंद्व में ही पश्चिम बंगाल की आत्मा नजर आएगी और भारत की आत्मा भी नजर आएगी।

कोलकाता ही अकेला शहर नहीं है जहां मंदिरों की बाढ़ आई हो,देश के विभिन्न शहरों में विगत 40 सालों में मंदिरों की बाढ़ को सहज ही देखा जा सकता है। कोलकाता तो इस देश के वैचारिक द्वंद्वों की आत्मा है। भारत के वैचारिक संघर्षों का अध्ययन करना है तो कोलकाता को गहराई के साथ जानना बहुत जरूरी है।कहने के लिए कोलकाता मुख्यधारा से दूर,कटा हुआ,अलग-थलग नजर आता है,लेकिन असल में ऐसा नहीं है।

कोलकाता पहला शहर है जिसमें आधुनिककाल में ´तर्कवाद´ और ´विवेकवाद´ ने ´ईश्वर´के खिलाफ वैचारिक जंग सुनियोजित ढ़ंग से लड़ी।जो लोग ´विवेकवाद´के लिए संघर्ष कर रहे थे वे अपने लिए कच्चा माल परंपरा से बटोरकर ला रहे थे।वे जाना चाहते थे भविष्य में लेकिन उनका कच्चा माल था अतीत का।यह ऐसा द्वंद्व था जो अभी भी बना हुआ है,हमारा समाज जाना चाहता है अंतरिक्ष युग में लेकिन हनुमान की पूजा करते हुए! पहले तमाम संस्थाओं,रीति-रिवाजों और मूल्यों को तर्क की कसौटी और सामाजिक प्रासंगिकता के आधार पर परखा गया फिर उसमें से बहुत कुछ को छोड़ दिया गया और उसके कारण जो अभाव पैदा हुआ उसके लिए पश्चिम से मूल्य,मान्यताएं और परंपराएं ग्रहण कर ली गयीं।यही वह प्रस्थान बिंदु था जिसने भारतीय जनमानस में नए सिरे से ´तर्कवाद´को पैदा किया,आज इसी ´तर्कवाद´को कोलकाता से लेकर पश्चिम बंगाल के सुदूरवर्ती इलाकों में पैर पसारे देख सकते हैं,आम जनता में कभी-कभी यह तर्कवाद सोने भी लगता है,लेकिन फिर अचानक किसी शॉक के झटके खाकर उठ बैठता है।

कोलकाता में पैदा हुए ´तर्कवाद´ बनाम ´मंदिर´ (ईश्वर भी कह सकते हैं )के द्वंद्व ने सबसे मूल्यवान चीज विकसित की वाद-विवाद में अहिंसा।कोलकाता में वैचारिक विवाद हिंसक,अपमानजनक, गाली-गलौज से भरा नहीं होता। कोलकाता के इसी सहिष्णु रूप ने आधुनिक भारत के सहिष्णु चरित्र को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की । 19वीं सदी से लेकर आज तक जितने ज्यादा वैचारिक संघर्ष और परिवर्तन कोलकाता ने देखे हैं उतने संभवतः भारत के किसी शहर ने नहीं देखे ।

शहर की नई परिभाषा गढ़ने में कोलकाता सबसे आगे है,यह इच्छाओं का शहर है।यहां ´तर्कवादी´इच्छाओं को जितना मान-सम्मान मिलता है आम लोग उतना ही धार्मिक इच्छाओं को भी सम्मान देते हैं।इस शहर में भगवान जितना जरूरी है उतना ही जरूरी मनुष्य और विवेकवाद भी है।भगवान और विवेकवाद के द्वंद्व को इस शहर ने बड़े ही कौशल के साथ हल किया है।विभिन्न धर्म हैं, उनके मानने वाले हैं,लेकिन अधिकांश धर्मनिरपेक्ष हैं।धर्म को राजनीति और सरकार के साथ घालमेल करके जनता नहीं देखती और राजनीतिकदल भी इस घालमेल से बचते हैं।यहां साम्प्रदायिक संगठन हैं लेकिन लोग उनके प्रति भी अहिंसक भाव से पेश आते हैं।इस शहर में सभी किस्म की विचारधाराओं के लिए समान रूप से जगह है। ´तर्कवाद´बनाम ´मंदिर´के द्वंद्वं को सामंजस्य और सहिष्णुता के पैमाने देखने की परंपरा यहां इतनी पुख्ता है कि हर तरह के विचार के व्यक्ति को यहां सुरक्षा महसूस होगी।इस समूची प्रक्रिया में कोलकाता से लेकर समूचे पश्चिम बंगाल में मानवाधिकारों को लेकर देश के अन्य इलाकों से बेहतर सचेतनता है। यहां विज्ञान की जितनी मान्यता है परम्परा का भी उतना ही सम्मान है।यहां परंपरावादी भी तर्कवाद का सहारा लेकर परम्पराओं को तरासते रहे।यहां जाग्रत आधुनिक समाज है तो ऐसा समाज भी है जो हिन्दू होने में गौरव का अनुभव करता है।अ-हिन्दू और हिन्दू में यहां कटुता नहीं है,लेकिन सामाजिक विकास के क्रम में दूरी बढ़ी है।सामाजिक सद्भाव है लेकिन संशय बढ़ा है।बड़े पैमाने पर मुसलिम समाज है जो अपने जलसे-त्यौहार आदि बड़ी तैयारियों के साथ मनाता है और सारा शहर उसमें सहयोग करता है,उसके साथ सामंजस्य बिठाता है,कभी कटुता नजर नहीं आती,उसी तरह हिन्दुओं के बड़े त्यौहार बड़े शान से मनाए जाते हैं और मुसलमान उनमें सहयोग करते हैं।शहर की पूरी अर्थव्यवस्था मिश्रित संस्कृति, मिश्रित खान-पान,मिश्रित भावनाओं पर टिकी है।



कोलकाता में आज भी सघन हिन्दू इलाकों में मुसलमानों की दुकानें,सघन मुसलिम इलाकों में हिन्दुओं की दुकानें मिल जाएंगी।एक ही मार्केट में हिन्दू-मुसलमानों की एक साथ दुकानें मिल जाएंगी।इसने इस शहर में साम्प्रदायिक कटुता को कभी पैदा ही नहीं होने दिया,जबकि कोलकाता पर भारत-विभाजन से लेकर बंगलादेश से आए शरणार्थियों तक का बहुत दबाव रहा है,लेकिन ´तर्कवाद´के आधार पर उसने इस तरह के संकटों का समाधान अहिंसक ढ़ंग से खोज लिया है।इस शहर में एक करोड़ से ज्यादा लोग रहते है लेकिन इसकी चाल एकदम कस्बे जैसी है।इसमें कहीं पर भी महानगर जैसी बेचैनी और असंतोष नहीं है।

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