गुरुवार, 11 अगस्त 2016

जाति समाज नहीं नागरिक समाज बनाओ

        भारत में समाज के चरित्र को लेकर विभ्रम इन दिनों गहराता जा रहा है,समाज को विभाजित इकाईयों में देखने की हमारी आदत बनी हुई है,साथ ही पुराने वर्गीकरण दिमाग में काम करते रहते हैं,पुराने नाम और पुरानी अंतर्वस्तु का आग्रह आम बात है।वर्गीय केटेगरी में सोचने और देखने से बचने लगे हैं। इस प्रसंग में मुझे पी.वी.अनेन्कव के नाम मार्क्स का 28दिसम्बर 1846 को लिखा पत्र याद आ रहा है।यह पत्र अनेक आधुनिक समस्याओं पर रोशनी डालता है। मसलन् ,समाज क्या है ,मशीन क्या है,प्रतियोगिता क्या है,किस तरह सोचें या देखें आदि प्रश्नों को मार्क्स ने बहुत सुंदर ढ़ंग से हल किया है।

मार्क्स ने लिखा ´समाज है क्या,उसका रूप चाहे जो हो ॽमनुष्यों की आपसी क्रिया का फल(उत्पाद)। क्या मनुष्य को खुद इस या उस प्रकार का समाज चुनने की आजादी हैॽकिसी हालत में नहीं। मनुष्य की उत्पादक शक्तियों की खास किस्म को आप मान लें आप खास किस्म के वाणिज्य और उपभोग देखेंगे। उत्पादन,वाणिज्य और उपभोग के विकास की विशेष अवस्थाओं की आप अवधारणा करें और आपको उसी के अनुरूप सामाजिक गठन,उसी के अनुरूप परिवारों,व्यवस्थाओं या वर्गों का संगठन,एक शब्द में उसी के अनुरूप नागरिक समाज मिलेगा।एक विशेष नागरिक समाज की अवधारणा करें और आप विशेष राजनीतिक स्थितियाँ पायेंगे जो नागरिक समाज का आधिकारिक इज़हार मात्र हैं।´

भारत के प्रसंग में देखें यहां पर उत्पादन, वाणिज्य और उपभोग के पूंजीवादी रूप और संरचनाएं काम कर रही हैं।समाज का मौजूदा ढांचा पूंजीवादी नियमों से संचालित है,इन्हीं के तहत सामाजिक संरचनाएं काम कर रही हैं और इनसे समूचा समाज संचालित है।लेकिन दिलचस्प बात यह है कि जाति का समूचा विमर्श सामंती फ्रेमवर्क में चल रहा है।सभी किस्म की घटनाओं को,खासकर उत्पीडन,शोषण, दमन आदि की घटनाओं को हम जाति के फ्रेमवर्क,जातिगत अवधारणाओं आदि में रखकर देख रहे हैं।इस फ्रेमवर्क के बाहर निकलकर देखने से डरते हैं।मसलन्,किसी दलित का अपमान हुआ या बलात्कार हुआ तो उसे जाति अपमान या जातिगत बलात्कार के रूप में देखते हैं,जबकि यह पूंजीवादी व्यवस्था में घटित घटना है और उसे सीधे बलात्कार की केटेगरी में रखकर देखा जाना चाहिए।दलित शोषण का जो रूप नजर आ रहा है उसे पूंजीवादी शोषण के रूप में देखा जाना चाहिए,लेकिन हम पूंजीवादी फ्रेमवर्क में देखने की बजाय सामंती केटेगरी में रखकर ही देखते हैं।

वास्तविकता यह है कि समाज का संचालन सामंती नियमों और कानूनों से नहीं पूंजीवादी नियमों और कानूनों के जरिए संविधान और भारतीय दण्ड संहिता के आधार पर हो रहा है। लेकिन हम संविधान प्रदत्त अवधारणाओं में नहीं सोचते।इस सबका परिणाम यह निकला है कि भारत में नागरिक समाज की अवधारणा विकसित ही नहीं हो पायी है।अभी भी हम दलित समाज के फ्रेमवर्क में रखकर ही चीजों को देख रहे हैं।चाहते हैं दलितमुक्ति लेकिन लेकिन दलित समाज के फ्रेम में! नागरिक समाज और संविधान के व्यापक फलक पर रखकर चीजों को देखना ही नहीं चाहते।चाहते हैं संवैधानिक हक लेकिन पुरानी अवधारणाओं में ही जीवित रहना चाहते हैं ! संविधान प्रदत्त हकों को हासिल करने के लिए संविधान निर्मित अवधारणाओं में सोचें,संविधान निर्मित समूह,संगठन आदि बनाएं।दलित समाज की जगह नागरिक समाज बनाने कोशिश नजर नहीं आती,जगह-जगह जाति संगठन पैदा हो गए हैं,हर व्यक्ति जाति के आधार पर हक मांग रहा है। जाति समाज की आलोचना करते ही हल्ला करने लगते हैं,हमले करने लगते,जाति-जाति चिल्लाने लगते हैं,जाति का शोर अंततःनागरिक समाज की चेतना के विकास में अवरोध पैदा करता है।हमारे समाज का कुल निचोड़ जाति नहीं है।जाति की जगह अब पूंजीवादी नए वर्गों ने ले ली है और नए वर्गों के नए अंतर्विरोध हैं,नए अंतर्विरोध नए नजरिए की मांग करते हैं,पुराने नजरिए से नए अंतर्विरोधों को हल नहीं किया जा सकता।पुराने नजरिए से नए अंतर्विरोध हल करने की सभी कोशिशें अंततः असफल होंगी।इससे नया समाज पैदा नहीं होगा।भारत के आधुनिक समाज के विकास के लिए नागरिक समाज चाहिए,न कि जाति समाज।





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