सोमवार, 25 जुलाई 2016

आदिविद्रोही ,लाशें और विकास

       ´आदिविद्रोही’ उपन्यास पढ़ते हुए आप एक ऐसी दुनिया में प्रवेश करते हैं जो देखने में प्राचीन है लेकिन सचमुच में एकदम सामयिक है।आज हम जिन सुंदर और भव्य राजमार्गों से गुजरते हैं उनके पीछे लटके मुर्दों को नहीं देखते।हमें राजमार्ग आकर्षित करते हैं,लेकिन उनके पीछे लटके मुर्दे नजर नहीं आते। राजमार्ग बनने का अर्थ है समृद्धि का आना ! यही बात पिछली सरकार समझा रही थी और यही बात मोदी सरकार समझा रही है ! लेकिन समृद्धि आकर नहीं दी !!

आम लोगों की जिन्दगी में पामाली बढ़ी है। आत्महत्या की घटनाएं बढ़ी हैं,अपराध बढ़े हैं।विकास कहीं पर भी नजर नहीं आ रहा। ´आदिविद्रोही´ उपन्यास का रोम से कापुआ जाने वाला राजमार्ग और जगह-जगह सलीब पर लटकी गुलामों की लाशें याद करें।उनमें से ही एक लाश स्पार्टकस की भी थी।वह गुलामों का नायक था।ये गुलाम रोम की समृद्धि के सर्जक थे,लेकिन वंचित,पीड़ित और गुलाम थे।

रूपक के रूप में यह कापुआ जैसे शहर और राजमार्ग आज भी हमारे बीच में मौजूद हैं। रोम से कापुआ जाने वाले मार्ग को ऐपियन मार्ग कहते थे,इस पर छःहजार चार सौ बहत्तर लाशें टिकटियों पर झूल रही थीं। इन लाशों का जिक्र करने के बाद लेखक ने सवाल उठाया है ´इतनी ज्यादा लाशें क्यों ॽ दूसरों को नसीहत देने के लिए तो एक दो आदमियों को सज़ा दी जाती है।मगर छःहजार चार सौ बहत्तर ,इतने क्यों ॽ ´ लाशों और विकास के बीच यह संबंध आज भी बना हुआ है।

इस सवाल के उत्तर में हेलेना कहती है ´वे कुत्ते इसी के योग्य थे´, इसके बाद लेखक कहता है, ´लेकिन इतने जानवर हलाल ही क्यों किये जायँ,अगर तुम उतना सब गोश्त नहीं खा सकतेॽ मैं तुम्हें बतलाता हूं।इससे दाम चढ़ा रहता है।व्यवस्था बनी रहती है।और सबसे बड़ी बात तो यह कि मालिकाने के कुछ नाजुक सवाल इससे हल हो जाते हैं.और एक शब्द में यही उस सवाल का जवाब है।´

1 टिप्पणी:

  1. आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति आचार्य परशुराम चतुर्वेदी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।

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