गुरुवार, 7 जुलाई 2016

आज कवि केदारनाथ सिंह का जन्मदिन है- जनप्रिय केदारनाथ सिंह

         केदारनाथ सिंह पर लिखना बहुत मुश्किल काम है।नामवरजी पर जल्दी लिख सकते हैं,मैनेजर पांडेय पर उससे भी जल्दी लिख सकते हैं,लेकिन केदारजी पर लिखना आसान नहीं है,उन पर लिखना नामवरजीसे भी मुश्किल काम है। दो दिन पहले से मन में तय कर लिया था कि केदारजी के जन्मदिन पर फेसबुक पर जरूर लिखूँगा।नामवरजी पर इतना लिख चुका हूँ कि सभी मित्र चिढ़ने लगे हैं,कहते हैं नामवरग्रंथि के शिकार हो ! लेकिन मैंने विगत दो दिन में महसूस किया कि केदारजी पर लिखना सबसे मुश्किल है।उनकी कविता पर सोचता हूँ तो लगता है जन्मदिन पर काव्यमीमांसा गले नहीं उतरेगी,इन दिनों फेसबुक मित्रों का आस्वाद बदल गया है,वे हल्का लिक्विड चाहते हैं जिसके जरिए केदारजी सीधे गले में उतर जाएं।

दिक्कत यह है कि केदारजी इतने सरल,सहज हैं कि वे पहले से ही तरल पदार्थ की तरह युवाओं से लेकर रचनाकारों के गले में उतरे हुए हैं,फेसबुक पर अनेक फोटोग्राफ नजर आए जिनमें वे युवाओं के बीच में हैं।समस्या यह है लेखक के बारे में यदि उसके जन्मदिन को याद करें तो किस तरह याद करें।जन्मदिन मनाने का ´केक काटो खुशियां मनाओ´,आइसक्रीम लेखक के गालों पर मल दो,यह चलेगा नहीं।आखिर जन्मदिन पर कौनसी चीज है जिसे याद करें ॽ मुझे लगता है हर लेखक से पूछा जाना चाहिए कि वह आदमी कैसा है ॽ

केदारजी को मैं बहुत ज्यादा नहीं जानता।बहुत कम जानता हूँ।लेकिन जितना भी जानता हूँ वह उन पर लिखने के लिए पर्याप्त नहीं है।केदारजी से मुझे पढ़ने,उनके निर्देशन में एमफिल्,पीएचडी करने का सौभाग्य मिला,मैं उनको एक बेहतरीन शिक्षक के रूप में बहुत प्यार करता रहा हूँ।केदारजी ऐसा नहीं है कि मेरे प्रिय शिक्षक थे वे उन तमाम छात्रों के प्रिय शिक्षक थे जो जेएनयू पढ़ने आते थे।मैंने अपने जीवन में इस तरह का इंसान नहीं देखा जो पढ़ाते समय डूबकर पढाए,रिश्ते और संबंध निभाते समय मानवता और संवेदनशीलता की डोर से बंधा रहे,छात्रों को तिकड़म का पाठ न पढ़ाए।



केदारजी बेहद सरल हैं लेकिन राजनीति में बेहद कठोर,उनके अंदर लोकतांत्रिक भावों और हकों को लेकर गहरी निष्ठा और लगाव है जो हम सब छात्रों को जेएनयू में प्रेरित करता रहा है।मैं जेएनयू में छात्रों के बीच में सबसे सक्रिय छात्रों की टोली में था,बहुत कम समय मिलता था उनसे मिलने का,लेकिन पढ़ने का समय मिल जाता था।केदारजीकी सबसे बेहतरीन बात यह कि वे जब कहो मिलने को राजी हो जाते।मुझे एक बार का वाकया याद आ रहा है मैं1981-82 में एसएफआई की ओर से उपाध्यक्ष का उम्मीदवार था और पूर्वांचल होस्टल में चुनावी जनसभा थी रात को,मैं एमफिल में था।वे मेरे गाइड थे। मैं चुनाव प्रचार में बुरी तरह मशगूल था,लेकिन केदारजी से मिलना बेहद जरूरी था।वे उन दिनों पूर्वांचल में रहते थे। मैंने उनसे कहा आपसे मिलना है बोले जब मन हो आ जाओ,मैंने कहा मैं आज रात पूर्वांचल होस्टल चुनावसभा करने जाऊँगा,देर रात को साढ़े बारह के बाद सभा खत्म होगी, मैं उसके बाद आपसे मिलने आ जाऊँगा।बोले बेहिचक चले आओ। मैं तकरीबन एक बजे रात को उनके पास पहुँचा,एक घंटा जमकर बातें कीं और दो बजे करीब मैंने कहा चलता हूँ,इतनी देर गए कोई सवारी वहां से मिलने की संभावना नहीं थी,पैदल ही तकरीबन 6किलोमीटर आना था।केदारजी ने कहा आधी दूर तक मैं तुमको छोड आता हूँ,हम दोनों पैदल ही रात को चलते हुए आए,केदारजी आधी दूरी मुझे छोड़कर चले गए और बोले अब तुम आराम से चले जाओगे।मैंने उनको मना किया कि मैं अकेले चला जाऊँगा,बोले नहीं बहुत दूर है,रात गहरी है,ठंड है, तकलीफ होगी,मैं कुछ दूर साथ चलता हूँ,बोरियत कट जाएगी।मैं उनके व्यवहार और आत्मीयता से मस्तभाव में बीच रास्ते में उनको छोड़कर चला आया,दिलचस्प बात यह है आधी दूर वे पैदल चलकर अपने घर गए,मैंने जेएनयू में इस तरह का मिलनसार व्यक्तित्व नहीं देखा।

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