रविवार, 19 जून 2016

न्याय की गुलामी

         विचारों की दरिद्रता कहें या फिर गुलामी कहें न्यायपालिका की प्रशंसा करते थकते नहीं हैं,सच यह है न्याय प्रक्रिया एकदम भ्रष्ट और उत्पीड़नकारी है,इ सके बावजूद न्यायपालिका की प्रशंसा बढती ही जा रही है।यही है हमारे समाज का संकट ।वह सच को देखने,और सच बोलने से डरता है।
हम सब जानते हैं अदालतों में हर ईंट घूस खाती है लेकिन कभी. कोई पकडा नहीं गया।वकील बेहिसाब पैसे लेते हैं लेकिन कोई नियमन नहीं है।अदने से अहलकार से लेकर पेशकार तक सब पैसे लेते हैं,बिना पैसे लिए कोई काम नहीं करता,इसके बावजूद कभी कोई बोलता नहीं है,सिस्टम चलाने वालों से लेकर जजों तक सबको मालूम है कि पेमेंट की दर क्या है,जब न्यायपालिका भ्रष्ट होगी तो देश भी भ्रष्ट होगा,न्याय दुर्लभ होगा।न्याय कभी समय पर नहीं होगा।जिस देश में न्याय समय पर न हो,जल्दी फैसले न हों तो उस देश का अपराधीकरण तो होगा ही।

पेशेवर लोगों में कभी वकील और जजों को भी आलोचनात्मक नजरिए से देख लिया करो।वकील और जज के पेशे में दिन प्रतिदिन स्वस्थ मूल्यों की गिरावट आई है,जगह जगह राजनीतिक गिरोह बनाकर वकील काम कर रहे हैं। हर दल का वकीलों में नेटवर्क है।जब वकील नेटवर्क का अंत बनेंगे तो न्यायपालिका अपाहिज होगी।इसी तरह संवैधानिक मूल्य,मान्यताएं सबसे ज्यादा दैनंदिन आचरण से नष्ट होते हैं,इस मामले में भी अधिकांश वकीलों का आचरण ईमानदारी भरा नहीं है।इसमें सबसे करप्ट रूप है वकील की फीस का पेमेंट।इसका कोई मानक नहीं है,अकल्पनीय मनमानी है इस मामले में।


दूसरी ओर जजों के फैसले असभ्यों के तर्कों या फासिस्ट मीडिया के तर्कों के सहारे जब लिखे जाने लगे हैं। न्याय को सभ्यता का अंग होना चाहिए लेकिन कई न्यायाधीशों पर इन दिनों पापुलिज्म का दबाव बहुत है।हाल में कई इस तरह के फैसले आए हैं जिनमें भारत के फासिस्टों और नरसंहार करने वालों के तर्कों को आधार बनाकर जजमेंट आए हैं।इस तरह के लक्षणों को गुजरात से लेकर जेएनयू तक के मामलों में आए अनेक फैसलों में देखे जा सकते हैं।

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