शुक्रवार, 20 मई 2016

बंगाल और हिन्दी के बुद्धिजीवी-लेखक

      मुझे पश्चिम बंगाल में रहते हुए 27साल गुजर गए।इसबीच यहां बहुत कुछ बदला है लेकिन अफसोस यह है हिन्दी के बुद्धिजीवियों-लेखकों का संस्कार नहीं बदला।पश्चिम बंगाल में हिन्दी के बुद्धिजीवी देश के विभिन्न कोनों से आते रहे हैं।भाषण करते रहे हैं,सम्मान लेते रहे हैं।लेकिन कभी इन बुद्धिजीवियों ने आँखें खोलकर बंगाल के यथार्थ पर नहीं लिखा,जो कुछ लिखा वह किताबी विषयों पर लिखा,मसलन् रैनेसां पर लिखा,लेकिन उसकी जमीनी हकीकत को कभी जानने की कोशिश नहीं की।चूंकि अधिकांश बुद्धिजीवी प्रगतिशील थे अतःवे यहां के जमीनी यथार्थ से आँखें चुराकर भागते रहे हैं।यही हालत पश्चिम बंगाल के बंगाली बुद्धिजीवियों की है।वे नंदीग्राम के बहाने उठे और फिर सो गए।

सवाल यह है पश्चिम बंगाल के यथार्थ को जानने और समझने के लिए जिस जोखिम को उठाने की जरूरत है वह जोखिम लेखक उठाने से क्यों कतराते रहे हैं ॽ जो भी थोडा-बहुत लेखन है वह वाम के पक्ष और विपक्ष में है।वाम की आलोचना पर है। लेकिन वाम के अलावा बंगाल का सामाजिक यथार्थ भी है जिसकी ओर आलोचनात्मक नजरिए से देखने की जरूरत है।यह काम पहले नहीं हुआ अभी भी नहीं हो रहा।सारी समस्याएं यहीं पर हैं। हमारे सरोकार राजनीतिक हार -जीत तक आकर सिमटकर रह गए हैं, कुछ पद-पुरस्कार पाने तक सीमित रह गए हैं।इससे बंगाल के यथार्थ के साथ अलगाव और भी गहरा हुआ है।

मैं निजी तौर पर यथाशक्ति इस दिशा में लिखता रहा हूँ और इसकी मुझे राजनीतिक –सामाजिक कीमत भी चुकानी पड़ी है। एक लेखक के नाते मैंने बंगाल के यथार्थ को नहीं छोड़ा,पार्टी छूटी,पद छूटे,मित्र छूटे ,लेकिन मैंने निडर होकर लिखना नहीं छोड़ा। सवाल यह है बंगाल जब हिन्दीभाषियों को प्रभावित करता है तो यह भी तो देखें कि हिन्दीभाषी लोग और राज्य किस तरह बंगाल को प्रभावित कर रहे हैंॽ बंगाल में किन वर्गों का ह्रास हुआ ॽ किन क्षेत्रों में ह्रास हुआ ॽऔर इस ह्रास के कारण जो समाज पैदा हुआ वह कैसा है ॽ



आज का बंगाल पहले के बंगाल से भिन्न है।आज बंगाल में हिन्दीभाषी क्षेत्र की तमाम विकृतियां और अमानवीय मूल्य पैर पसार चुके हैं।बंगाली जाति पूरी तरह हिन्दीभाषियों की कु-सभ्यता के रूपों से सीख रही है,उनका अनुकरण कर रही है।यह बहुत बड़ा विपर्यय है।इसे बुद्धिजीवी देखना नहीं चाहते।

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