शुक्रवार, 13 मई 2016

भक्त प्रोफेसरों के प्रतिवाद में -

           जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की एकेडमिक कौंसिल की बैठक में शिक्षकों ने जिस एकजुटता का परिचय दिया है वह हम सबके लिए गौरव की बात है।इससे देश के प्रोफेसरों को सीखना चाहिए। जेएनयू के शिक्षकों ने अपने संघर्ष और विवेक के जरिए जेएनयू कैंपस के लोकतांत्रिक परिवेश और लोकतांत्रिक परंपराओं को मजबूत किया है।हमारे देश के विश्वविद्यालयों के अधिकांश प्रोफेसर यह भूल गए हैं कि उनका स्वतंत्र अस्तित्व तब तक है जब तक विश्वविद्यालय स्वायत्त हैं।प्रोफेसर अपने पेशे के अनुरूप आचरण करें।लेकिन हमारे अधिकांश प्रोफेसरों ने अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति हेतु विश्वविद्यालय के स्वायत्त स्वरूप पर हमलों को सहन किया ,हमलों में मदद की ,इसके कारण राजनेताओं और मंत्री का मन बढ़ा है।इस तरह के प्रोफेसरों को ´भक्त प्रोफेसर´ कहना समीचीन होगा। प्रोफेसर का पद गरिमा और बेहतरीन जीवनमूल्यों से बंधा है उसकी ओर भक्तप्रोफेसरों ने आलोचनात्मक ढ़ंग से देखना बंद कर दिया है।वे शासन की भक्ति में इसकदर मशगूल हैं कि उनको देखकर प्रोफेसर कहने में शर्म आती है,इस तरह के ´भक्तप्रोफेसरों´ की स्थिति गुलामों जैसी है।हमें हर हाल में विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता की रक्षा करनी चाहिए और विश्वविद्यालय के अंदर और बाहर स्वायत्तता,अकादमिक स्वतंत्रता और अकादमिक गरिमा के पक्ष में खड़ा होना चाहिए।

हमारे सामने नमूने के तौर पर दिल्ली के दो विश्वविद्यालय हैं और वहां दो भिन्न किस्म के रूख प्रोफेसरों के नजर आ रहे हैं।जेएनयू में शिक्षकसंघ लोकतांत्रिक हकों के पक्ष में खड़ा है और लड़ रहा है। वहीं दूसरी ओर दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ और डीयू के अधिकांश प्रोफेसरों का रवैय्या चिंता पैदा करने वाला है।स्मृति ईरानी ने आदेश दे दिया है कि दिविवि की अकादमिक कौंसिल की बैठक का एजेण्डा पहले मंत्रालय से स्वीकृत कराओ उसके बाद अकादमिक परिषद की बैठक करो,कोई फैसला लेने के पहले मंत्री से अनुमति लो।यह सीधे डीयू की स्वायत्तता पर हमला है लेकिन भक्तप्रोफेसर चुप हैं,वे चुप क्यों हैं ॽ शिक्षकसंघ चुप क्यों है ॽकोई जुलूस या धरना इस आदेश के खिलाफ क्यों नहीं निकला ॽ क्या इस तरह चुप रहकर विवि की स्वायत्तता की रक्षा होगी ॽ पीएम की डिग्रियों को लेकर विवाद हो रहा है लेकिन दिविवि शिक्षक संघ चुप है ॽकौन रोक रहा है प्रतिवाद करने से ॽ हमें शिक्षक संघों को निहित स्वार्थी घेरेबंदी से बाहर निकालना होगा। हमें प्रोफेसर की मनो-संरचना में घुस आई भक्ति को नष्ट करना होगा।इस भक्ति का ज्ञान से बैर है।यह भक्ति वस्तुतःनए किस्म की गुलामी है जिसे हम विभिन्न रूपों में जीते हैं।

उस मनो-संरचना के बारे में गंभीर सवाल खड़े करने चाहिए जिसमें जिसमें विवि के प्रोफेसर रहते हैं। प्रोफेसर का पद स्वतंत्र और स्वायत्त चिंतनशील नागरिक का पद है।इस पद को हमने तमाम किस्म के दबाव-अनुरोध-मित्रता और निहित स्वार्थी राजनीतिक पक्षधरता का गुलाम बना दिया है।अब हमारे प्रोफेसरों को स्वतंत्र और स्वायत्त विचार पसंद नहीं हैं, अनुगामी विचार पसंद हैं।हमें बस्तर के माओवादियों की जंग तो अपील करती है लेकिन विवि में उपकुलपति के अ-लोकतांत्रिक फैसले नजर नहीं आते।मंत्री के हमले देखकर हमारा खून नहीं खौलता।ये असल में भक्त प्रोफेसर हैं,जो हर हाल में वीसी के भक्त बने रहने में अपनी भलाई समझते हैं।

हमने प्रोफेसर के नाते किसी न किसी राजनीतिकदल के लठैत का तमगा अपने सीने पर चिपका लिया है।प्रोफेसर जब अपने शिक्षा के काम को राजनीतिक दल के लक्ष्यों के अधीन बना देता है तो वह वस्तुतःआत्महत्या कर लेता है।यही वह बुनियादी बिंदु है जहां से स्वायत्तत प्रोफेसर का अंत होता है और भक्त प्रोफेसर जन्म लेता है। भक्त प्रोफेसर ´ पर उपदेश कुशल बहुततेरे´ की धारणा से ऊपर से नीचे तक लिपा-पुता होता है।इन लोगों ने ही अकादमिक गरिमा,स्तर,मूल्य आदि की गिरावट में बहुमूल्य योगदान किया है।भक्त प्रोफेसर शिक्षा में कैंसर हैं।वे स्वयं को नष्ट करते हैं,छात्रों को नष्ट करते हैं और विवि की स्वायत्ता को भी नष्ट करते हैं।





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