सोमवार, 9 मई 2016

मुरारी बापू और बाबा रामदेव का मीडियागेम

           मुरारीबापू और बाबा रामदेव में बुनियादी अंतर है। मुरारीबापू कथा कहते हैं।कथा के बहाने व्यापार नहीं करते। वे जो कथा कहते हैं उसका पारिश्रमिक लेते हैं।अपनी रचनाओं को बेचते हैं,यह उनका एक परंपरागत बुद्धिजीवी के नाते सही काम है।लेकिन बाबा रामदेव तो योग के बहाने उद्योग चला रहे हैं.योग को राजनीतिक प्रचार का मंच और माध्यम के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। संतई में राजनीतिक घालमेल यानी साम्प्रदायिक विचारधारा का प्रचार- प्रसार कर रहे हैं।जबकि मुरारी बापू सीधे परंपरागत पाठ और जीवनमूल्यों की बातों तक सीमित रखते हैं।

सामान्यतौर पर हमारे बौद्धिक जगत का भारतीय ज्ञान और आख्यान परंपरा से कम संबंध है और उनको वह कम जानता है। मुरारीबापू जैसे संतों का महत्व यह नहीं है कि उनके पास कितना बड़ा एम्पायर है,कितनी दौलत है,कितने राजनेता उनकी चरणवंदना करते हैं। ये चीजें गौण महत्व की हैं। काम की बात है आज के आम आदमी के लिए सटीक संदेश।मुरारीबापू ने एक कथा में महात्मा बुद्ध के हवाले से कहा - "कभी किसी के प्रभाव में नहीं जीना, अपने प्रभाव में जीना.सत्य जहाँ से मिले ले लो, पर किसी से प्रभावित नहीं होना."

मुरारीबापू की कथा में अनेक ऐसी बातें आती हैं जो समानतावादी और विवेकपूर्ण विमर्श को बढ़ावा देती हैं। कायदे से मुरारीबापू को मासकल्चर के अंग के रूप में पढ़ें,वे मासकल्चर के अंग के रूप में भारतीय पाठ बना रहे हैं। मुरारीबापू का मानना है विवेक चार प्रकार से मिलता है:

१) एक मांगने से मिलता है. फ़िर वो कृपा करे तो.

२) मंथन से मिलता है. खुद के चिंतन से.

३) सत्संग करने से.

४) हमारा गुरु बिन बोले हमें विवेक प्रदान करता है.

मुझे मुरारीबापू की निम्नलिखित तीन बातें पसंद हैं- वे कहते हैं-

हमारे देश में तीन वस्तु आदमी को आदर के साथ मिलनी चाहिये :

- आगम/ शिक्षण: सबको शिक्षा मिलनी चाहिये.

- उसको अन्न मिलना चाहिये; कोई आदमी भूखा नहीं रहना चाहिये, बच्चे तो खासतौर पर.

- आदमी को आदर के साथ आरोग्य प्राप्त होना चाहिये.

मोक्ष के लिए मरना जरूरी नहीं है, बल्कि पूंजीवाद को खत्म करने से सीधे मोक्ष मिलता है।

भगवान को मानने की नहीं जानने की जरूरत है।

मुरारी बापू ने बाबा कयामुद्दीन द्वारा 325 वर्ष पूर्व भारतीय वेदांत और कुरान का समन्वय करते हुए लिखी गई पुस्तक 'नूर-ए-रोशन' का लोकार्पण करते हुए कहा देश में लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभा की तर्ज पर एक 'सद्भावना सभा' भी होनी चाहिए। जहाँ देश के बुद्धिजीवी, संत और विद्वान बैठकर देश की समस्याओं पर चिंतन कर सकें।

मुरारी बापू ने कुँअर बाराबँकी के शेर में अपनी बात यों कही-

न हारा है इश्क़ न दुनिया थकी है,

दिया जल रहा है और हवा चल रही है।

वो जहाँ भी रहेगा रोशनी फैलाएगा,

चिरागों का कोई मकाँ नहीं होता।

तसबी छोड़दी मैने इस खयाल से,

गिनकर नाम क्या लेना, वो तो बेहिसाब देता है।



मुरारी बापू ने भी अपने उद्बोधन में एक घटना सुनाते हुए कहा बरसों पहले जब मैं ऋषिकेश में अकेला रहता था और प्रतिदिन यज्ञ करता था तो यज्ञ समाप्त होने के बाद देर रात एक बजे गंगा नदी पार कर एक सूफी फकीर यज्ञ की वेदी पर आता था। ये सिलसिला सात दिन तक चलता रहा। एक दिन मैने उससे पूछा कि तुम इतनी रात को यज्ञ की वेदी के पास आकर क्यों बैठते हो, तो उसने कहा, मैं एक मुसलमान फकीर हूँ और कहीं मेरी वजह से हिन्दू लोग नाराज नहीं हो जाए इसलिए रात के अंधेरे में आकर इस पवित्र अग्नि के पास आकर बैठता हूँ। मुरारी बापू ने कहा कि इसके बाद हम दोनों देर रात को अकेले ही चुपचाप यज्ञ की वेदी पर बैठे रहते थे, कभी हमने कोई बात नहीं की, मगर ऐसा लगता है कि उस सूफी फकीर ने मुझ पर अपनी सारी करुणा बरसा दी और मैं आज तक उसमें भीगा हुआ हूँ।



इसके विपरी बाबा रामदेव का मानना है देश को गुरू,साधक,योगी,योद्धा चाहिए। सवाल यह है क्या सच में हमें ये लोग चाहिए या नागरिकचेतना सम्पन्न नागरिक चाहिए ?

बाबा रामदेव के दकियानूसी विचारों से क्या देश का विकास होगा ? बाबा का मानना है 'अतीत का गर्व हमारे दिल में हिलोरें ले रहा है।' सवाल यह है आधुनिक समाज का निर्माण क्या अतीत की हिलोरों पर संभव है या विज्ञानसम्मतचेतना के प्रचार से संभव है ?

भारत स्वाभिमान के नाम पर जिस तरह का दकियानूसी शास्त्र प्रचारित किया जा रहा है,उसका नमूना है बाबा रामदेव और उनके प्रौपेगैंडा प्रचारक । वे संस्कार चैनल पर कह रहे हैं न्याय पाने के लिए पुरानी किताबों का अनुकरण करो न्याय मिल जाएगा। इसके लिए वह दयानन्द सरस्वती की किताबों,मनुसंहिता आदि का नाम भी ले रहे हैं। क्या इन किताबों से आधुनिक न्याय संभव है ?

जो पोगापंथ और जातिप्रथा के समर्थक हैं वे पहले आयुर्विज्ञान और विज्ञान का विरोध करते थे वे ही लोग हैं जो आज भी समाज में विज्ञान और विज्ञानसम्मतचेतना के प्रचार-प्रसार का विरोध कर रहे हैं। वे आयुर्विज्ञान के साथ अध्यात्म को जोड़ रहे हैं।फासिस्ट राजनीतिक एजेण्डे को प्रवचनों-कसरतों के बहाने जोड़ रहे हैं। इन संतों-वैद्यों-बाबाओं को सहज ही धार्मिक और लाइफ स्टाइल टीवी चैनलों पर देखा जा सकता है। ये निंदा के नहीं उपेक्षा के पात्र हैं।इन संतों में एक हैं बाबा रामदेव।

भारत में आयुर्विज्ञान ने चिकित्सा के क्षेत्र में जादू-टोने,झाड़-फूंक आधारित चिकित्सा पद्धति से हटकर तर्काश्रित चिकित्सा पद्धति को जन्म दिया। यानी दैव-व्यपाश्रय भेषज के स्थान पर युक्ति -व्यपाश्रय भेषज को प्रतिष्ठित किया। इससे पोंगापंडित,कठमुल्ले,रूढ़िवादी सभी नाराज हो गए। पुरोहित वर्ग के लिए यह चुनौती सांकेतिक थी लेकिन थी महत्वपूर्ण। क्या आज के बाबा लोग आयुर्विज्ञान का विज्ञान के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं ?क्या वे जादू-टोने,झाड़-फूंक को चुनौती दे पा रहे हैं ?



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