रविवार, 8 मई 2016

मेरा बचपनः माँ के आँसू और आनंद


           वह रो रही थी और अभिव्यक्त कर रही थी।उसके पास भाषा नहीं थी,सिर्फ आँसू थे।पता नहीं कब और कैसे आँसू निकलते-निकलते बंद हो गए और वह उठी और घर के कामों में जुट गयी।आँसू और श्रम यही उसकी दिनचर्या थी।पता नहीं उसे आँसू में राहत मिलती थी या घरेलू श्रम में शांति मिलती थी,यह बात मैं कभी जान नहीं पाया,जब भी जानने की कोशिश की वह हमेशा टालती रही।वह बोलती नहीं थी,लेकिन इशारों में सब कुछ कहती थी,बार-बार पूछने पर हमेशा टाल देती थी,उसको किस बात का दुख है या फिर किन चीजों से उसे तकलीफ होती है,वह सब बताने की वह जरूरत महसूस नहीं करती थी, मैं हमेशा उसके साथ रहता था ,वह मेरे जरिए सारी बातें समझती थी,हर बात,हर समस्या वह सामने रखती,हर चीज जानना चाहती,उसकी अनंत जिज्ञासाएं थीं,शर्त एक ही थी कि मैं हमेशा उसकी आँखों के सामने रहूँ।कहने को हम पाँच भाई-बहन थे,लेकिन वह मेरे ऊपर कुछ ज्यादा मेहरबान थी।वह मेरा ख्याल सबसे ज्यादा रखती थी,उसे अच्छा लगता था कि मैं खूब पढूँ,मैं जब पढ़ता था तो वो हमेशा मेरे पास मौजूद रहती,संयुक्त परिवार था,हलचल रहती थी घर में,वह मेरे लिए एकांत बनाती थी, जिससे मुझे कोई परेशान न करे,मेरा पढ़ने से ध्यान न बंटाए।

मुझे याद है कि मैंने जब कक्षा पाँच पास की और मथुरा के माथुर चतुर्वेद संस्कृत महाविद्यालय में प्रथमा में मेरा दाखिला लिया तो माँ बहुत खुश थी,पिता ने गुरूपूर्णिमा के दिन ले जाकर दाखिला कराया,कॉलेज के सभी शिक्षकों को 1-1 किलो आम गुरूदक्षिणा में भेंट किए।उसके बाद पढ़ने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह आज तक जारी है।मुझे माँ से बेइंतहा प्यार मिला,संभवतःअपने बचपन के मित्रों में मैं अकेला था जिसके लिए प्रथमा में ही निजी तौर पर 1969 में टेपरिकॉर्डर और रेडियो था। मेरे लिए घर में एक छोटा कमरा बनवाया गया।उसमें चारपाई,कुर्सी,टेबिल और दीवार में पत्थर की दो बड़ी अलमारियाँ बनवाई गईं।यानि कक्षा 8से मैं स्वतंत्र रूप से अपने कमरे में अलग रहा हूं,मेरी प्राइवेसी थी और उसमें कोई दखल नहीं देता था,कहने को संयुक्त परिवार था,लेकिन उसमें उसने मेरे लिए रहने,सोने,पढ़ने की स्वतंत्र व्यवस्था करा दी थी,मुझे पतंगबाजी का खूब शौक था,उसके लिए नियमित पैसे मिलते थे,कंचे या गोली खेलने की आदत थी उसके लिए भी पैसे मिलते थे,हाथ खर्च के लिए दो आने रोज मिलते थे।इस सबमें मेरी दादी उसकी मदद करती थी क्योंकि वो घरकी मुखिया थी।मेरी माँ और दादी का मानना था कि मुझमें पढ़ने-लिखने की संभावनाएं सबसे ज्यादा हैं अतःमेरा ज्यादा ख्याल रखा जाए।हमारे ताऊजी के दो लड़के थे,मेरे खुद के 4भाई-बहन थे,लेकिन इन सबके रहते हुए,मेरे लिए बचपन में ही स्वतंत्र कमरे की व्यवस्था हो गयी।यह सब कुछ संभव हुआ माँ के कारण।वह पढ़ी लिखी नहीं थी,लेकिन शिक्षा के महत्व को जानती थी।संस्कृत पाठशाला में जाने के बाद मेरा कोर्स बढ़ गया,किताबें बढ़ गयीं,इसके लिए मैंने सुबह चार बजे उठने की आदत डाली,इसमें मेरी माँ की महत्वपूर्ण भूमिका थी,वह सुबह की नल आने के समय जग जाती और मुझे भी जगा देती।जगाने का एक सिस्टम था। माँ नीचे के कमर में सोती थी,मेरे लिए कमरा ऊपर बनाया गया,उस कमरे में एक खुली खिड़की बनायी गयी जिसके जरिए एक डोरी मेरी माँ के पास रहती और मेरे कमरे में एक घंटा मंदिर से उतारकर लाकर बाँध दिया गया था उसकी आवाज सुनकर मैं जग जाता था और सुबह जगने के साथ ही एक कप चाय मेरे पास रहती थी,माँ नीचे से नजर रखती थी कि मैं जगा हूँ या सो रहा हूँ,नियम से मुझे कुर्सी पर बैठकर पढ़ना पढ़ता,चारपाई पर बैठकर पढ़ना मना था,इसमें प्रधान कारण यह था कि मेरी माँ नीचे से कुर्सी-टेबिल देख सकती थी और नजर रखती थी कि मैं कहीं सो तो नहीं गया,यदि मैं सो जाता तो वह ऊपर आकर प्यार से सिर सहलाकर जगा देती और जोर देती कि पढो।इस पढाई का एक अन्य प्रेरक तत्व था रोज सुबह दो कचौड़ी और 2जलेबी का नाश्ता या कलेवा।मुझे खास तौरपर प्रतिदिन यह नाश्ता मिलता,नाश्ते के पहले यमुना स्नान,संध्यावंदन,गायत्री मंत्र का जप,महात्रिपुरसुंदरी की पूजा।कभी-कभी पूजा छूट जाती थी जिसे मैं शाम को करता था,माँ इन सबकी निगरानी रखती कि मैं यह सब ठीक से करता हूँ या नहीं ,ठीक से न करने पर गुस्सा भी होती और इस सबमें वह यह ख्याल रखना नहीं भूलती कि मैंने समय पर खाया है कि नहीं,समय पर शरीर साफ किया है कि नहीं। उसकी निगरानी का ही सुफल है जिसने मुझे नियमित,संगठित और नियोजित ढ़ंग से पढ़ने का आदी बना दिया।

मैं जब भी लिखता हूँ मां की इमेज आँखों में रहती है।संभवतःअपने मित्रों में अकेला हूँ जिसने जमकर लिखा,खूब लिखा।यह लिखना हो ही नहीं पाता यदि मेरी गूंगी-बहरी माँ ने मेरी जिन्दगी संगठित न की होती।संगठित होकर रहने कला मैंने माँ से सीखी,जबकि लिखने और बोलने की कला पिता से सीखी।

यह सच है मैं जितना अपनी माँ पर गर्व करता हूँ वह भी अपने बच्चों पर गर्व करती थी,मैंने जब शास्त्री की परीक्षा पास की तो मेरी माँ बेइन्तहा खुश हुई।उसे खुशी इस बात से हुई कि मैं पिता से ज्यादा डिग्री पाने में सफल हो गया।वह यह चाहती थी कि मैं पिता से ज्यादा पढूँ।मैंने समझाया कि पिता शास्त्री प्रथम वर्ष तक ही पास कर पाए हैं,जबकि मैंने दोनों साल की परीक्षा पास करके शास्त्री की डिग्री हासिल की है,मैंने शास्त्री 1976 में पास किया, मैं अपने वंश में पहला स्नातक हूँ। अफसोस यह कि मेरे शास्त्री परीक्षा परिणाम आने के चारदिन बाद ही माँ की मृत्यु हो गयी।





2 टिप्‍पणियां:

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...