रविवार, 17 जनवरी 2016

कला ,भाजपा और साम्प्रदायिकता-

     हाल ही में भाजपा का विरोध करने वाले कलाकारों पर भाजपा ने जिस तरह हमला करना आरंभ किया है वह शर्मनाक और निंदनीय है। आमिर खान के बोलने के बाद तो ये लोग बौखलाएहुए हैं।संघ के नेतागण सरेआम आमिर खान की फिल्म न चलने देने की धमकी दे रहे हैं।हम सब धर्मनिरपेक्ष लोग उनकी हरकतों की निंदा करते हैं। उल्लेखनीय है कि देश में संघियों से प्रेरणा लेकर अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता भी सक्रिय हो उठी है और विभिन्न बहानों के जरिए हमलावर हो उठी है।इसके कारण फेसबुक पर बहुसंख्यक साम्प्रदायिक के पक्षधर मोदीभक्तों को जहरीला प्रचार करने का एक और मौका मिला है। साम्प्रदायिकता के ये दोनों रूप विषाक्त हैं,जो लोग इनमें अमृतरस खोज रहे हैं वे भारत-विभाजन को भूल रहे हैं।ये दोनों ही साम्प्रदायिक ताकतें एक-दूसरे को जागृत-संगठित कर रही हैं, समाज का विभाजन कर रही हैं और धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक ताने-बाने को कमजोर बना रही हैं। सभी धर्मनिरपेक्ष और लोकतंत्रकामी नागरिकों की यह जिम्मेदारी है कि दोनों ही किस्म की साम्प्रदायिकता के खिलाफ आवाज बुलंद करें।

फेसबुक पर आमिर खान और शाहरूख खान के असहिष्णुता संबंधी बयानों को लेकर जिस तरह की भाषा का बेशर्मी और अभद्रता के साथ मोदीभक्तों ने इस्तेमाल किया है उससे सर्जनात्मक लोगों के मन को ठेस लगी है।
जो लोग यह सोचते हैं कि कलाकार-अभिनेता-लेखक का अपमान करके वे मोदी का दर्जा ऊँचा कर रहे हैं,वे गलतफहमी में हैं।जिस समाज में कलाकारों का अपमान होता है वहां सत्ता के मुखिया का सिर कभी इज्जत के साथ ऊँचा नहीं हो सकता।यह समूची मानव सभ्यता का अनुभव है।

फेसबुक पर मोधीभक्तों ने लगातार असहिष्णुता के मसले पर जिस तरह मेढ़कगान किया है उसने यह संदेश भी दिया है कि वे प्रतिवादी लेखकों के नजरिए को समझने में असफल रहे हैं।वे यह समझने को तैयार नहीं हैं कि एक लेखक-कलाकार-चित्रकार के दुनिया देखने और उसकी धड़कनों को महसूस करने और सामान्यजन के दुनिया को महसूस करने और देखने में जमीन-आसमान का अंतर होता है।
यदि लेखक-कलाकार के नजरिए और आमजन के नजरिए में अंतर न होता तो हर आदमी लेखक होता,लेकिन वास्तविकता यह है हर आदमी लेखक नहीं होता।फेसबुक पर लिखना लेखक होने का प्रमाण नहीं है।एसएमएस करना लेखक होने का प्रमाण नहीं है।फेसबुक लिखकर या ह्वाटस-एप मैसेज तो रचना नहीं है।यह कम्युनिकेशन है लेकिन कला नहीं है।प्रत्येक संप्रेषण कला नहीं होता।कला वह है जहां जीवन कोनए सिरे से रचा जाए।

दिलचस्प बात है कि इंटरनेट पर कुकुरमुत्तों की तरह साम्प्रदायिक वेबसाइट नजर आ रही हैं वहां पर अहर्निश साम्प्रदायिक लेखन हो रहा है और यह भारत का वह घिनौना चेहरा है जिसे देखकर कोई भी कह सकता है भारत अभी गुलामदशा में जी रहा है। साम्प्रदायिक नजरिया वस्तुतःगुलामी है। इन बेवसाइट के जरिए एवार्ड लौटाने वाले लेखकों के प्रति घृणा अभियान जारी है। फेसबुक पर देश की सभी समस्याओं के लिए उनसे ही प्रतिवाद की मांग की जा रही है। हम यही कहना चाहते हैं मित्रो कभी खुद भी प्रतिवाद कर लिया करो !

उल्लेखनीय है परजीवीपन के मामले में साम्प्रदायिकता सबसे आगे है।यह कारपोरेट पूंजी की दया-माया और भीख पर जिंदा है।
धर्मनिरपेक्ष लेखकों के खिलाफ फेसबुक पर वे लोग लिख रहे हैं जो संविधान वर्णित अधिकारों का सम्मान नहीं करते,लेखक का सम्मान नहीं करते,नागरिक अधिकारों का सम्मान नहीं करते,वे तो सिर्फ एक नायक की पूजा करते हैं ,जैसे हर शनिवार को शनि की करते हैं, ये लोग फेसबुक पर मोदीजी की आरती उतारते हुए लेखकनिंदा में मशगूल हैं,जो फेसबुक पर मोदी आरती उतार रहे हैं, वे इंतजार में परजीवियों की तरह हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं कि मोदीजी बेड़ा पार लगाएंगे।ये मोदीभक्त ,घृणा और भक्ति का विलक्षण इंटरनेट संगम हैं।मजेदार बात है सरकार चलाएं मोदीजी और जवाब दें धर्मनिरपेक्ष लेखक,यह कौन सी बुद्धि है जी।देशकी जिम्मेदारी नहीं ले सकते मोदीजी तो छोड़ दें सरकार को। भाजपा के चरित्र को इस रूप में देखें।भाजपा का अधिकनायकवादी रवैय्या ही है कि उसने मराठी लेखक श्रीपाल सबनीस के बयान को लेकर उनके खिलाफ एक एफआईआर दर्ज करायी है। कितना प्रमाण चाहिए,अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले का और भाजपा-संघ के असहिष्णु आचरण का। शर्म की बात है लेखकों के मन में भय पैदा किया जा रहा है कि वे खुलकर मोदी की आलोचना न करें।यह मानसिकता भाजपा के पतन का आरंभ है।

श्रीपाल सबनीस( मराठी साहित्य सम्मेलन के भावी सभापति) को मोदी की आलोचना करने कारण दो लोगों ने जान से मारने की धमकी दी है ,इनके खिलाफ लेखक ने एफआईआर दर्ज कराई है,ये दोनों भाजपा के सदस्य हैं। इस घटना के बाद भी फेसबुक पर जाहिल लोग हल्ला कर रहे हैं कि असहिष्णुता कहां है ?

मराठी साहित्य सम्मेलन के मंच से अध्यक्ष श्रीपाल सबनीस कोई विवाद खड़े न करें।यह कहना है महाराष्ट्र के भाजपा नेताओं का।सवाल यह है साहित्य सम्मेलन में किन विषयों पर बहस होगी यह भी क्या भाजपा तय करेगी ?यदि ऐसा है तो भाजपा के अंतिम दौर की घंटी बज चुकी है।लेखक अपने सम्मेलन में किन मसलों पर बहस करेंगे यह वे ही तय करेंगे,कोई राजनीतिक दल इसे तय नहीं कर सकता।देखना होगा कि सम्मेलन के दौरान किस तरह की बहस होती है,खासकर भाजपा समर्थित लेखक क्या रूख ग्रहण करते हैं। क्योंकि सम्मेलन में अभिव्यक्ति की आजादी पर बढ़ रहे हमलों पर एक प्रस्ताव आना तय है और असहिष्णुता का सवाल भी केन्द्र में है। उल्लेखनीय है मराठी साहित्य सम्मेलन के सदर श्रीपाल सबनीस ने पीएम मोदी को (5जनवरी2016)पत्र लिखकर अफसोस जताया है, लेकिन अपने बयान को वापस लेने या माफी मांगने से इंकार किया है। जबकि भाजपा उनसे सार्वजनिक तौर पर माफी मांगने की मांग कर रही थी,लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा जो माफी मांगने लायक हो,हरियाणा की भाजपा सरकार ने फासिस्ट नजरिए का एक अन्य उदाहरण पेश किया। हाल ही में कीकू शारदा नामक हास्य कलाकार को मीमिक्री करने और चुटकुला सुनाने के आरोप में हरियाणा की जेल में बंद कर दिया गया,उनके खिलाफ 3 जिलों में एफआईआर दर्ज करायी गयी है। सवाल यह है मिमिक्री क्राइम कब से हो गया ? कहां सोए हैं कानून के रखवाले! भारत में रोज अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले हो रहे हैं,इस पर तुर्रा यह कि कहां है असहिष्णुता !

ऊपर वाला भगवान ,मनुष्य की किसी हरकत से नहीं डरता,व्यंग्य करने या आलोचना करने या अस्वीकार करने से परेशान नहीं होता,अपमानित नहीं होता,उसकी भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचती,लेकिन समाज में जी रहे धंधेखोर भगवान तो टुईंया से रिएक्शन से डरने लगते हैं,उनका रखवाला कु-कानून भी चिंता करने लगता है,कानून के रखवाले मुख्यमंत्री भी सीधे पुलिस को हरकत में ले आते हैं,अब खैर नहीं मजाकिया कलाकारों की।

हम तो यही कहेंगे भगवान से मत डरो,भगवान को मानने वालों से भी मत डरो।निर्भीक रहो,संविधान मानो, नागरिकचेतना पैदा करो।निजी सुरक्षा का सबसे बड़ा मंत्र है नागरिक चेतना न कि भगवानचेतना।भगवानचेतना तो नागरिकचेतना का विलोम है।

दूसरी बात यह कि देवी-देवता ब्रह्मचारी या अनैतिक नहीं होते,देवता का शरीर नहीं होता,फलत: उनके नैतिक मूल्य भी नहीं होसाहित्य संस्कारों और कला-आस्वाद से वंचित लोग साहित्यकार की पीड़ा और नजरिए को नहीं समझ सकते।इस तरह के कला शून्य मोदीभक्तों की फेसबुक पर संख्या बेशुमार है,यही वे लोग हैं जो लेखकों के द्वारा उठाए गए असहिष्णुता के सवाल को आज तक समझ नहीं पाए हैं। वे वोटबैंक राजनीति से आगे देख नहीं पाए हैं।लेखक के नजरिए का संबंध उसकी सामाजिक अवस्था में मच रही हलचलों,अशान्ति और असुरक्षा से है।हर साम्प्रदायिक घटना पर प्रतिवादी लेखकों से कैफियत मांगना असहिष्णुता का घृणिततम रूप है।समाज में घट रही हर साम्प्रदायिक घटना पर कैफियत देने का दायित्व सरकार का है ,खासकर केन्द्र सरकार और साम्प्रदायिक संगठनों का है।देवता तो मिथ है,कल्पना है।वह हमारा अतीत है।







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