सोमवार, 4 जनवरी 2016

जन सांस्कृतिक मंच के 40साल-लोकतांत्रिक विचारधाराओं का संगम है जन सांस्कृतिक मंच


                मथुरा में आज जन सांस्कृतिक मंच की स्थापना के 40 साल पूरे होने पर मित्रगण पूरे जोशोखरोश के साथ सांस्कृतिक आयोजन कर रहे हैं।मैं दुखी हूँ कि उनके बीच में नहीं हूँ। एक सांस्कृतिक संगठन के लिए 40साल बहुत छोटा समय है,लेकिन जन सांस्कृतिक मंच ने 40सालों में अपने सीमित संसाधनों के जरिए जिस तरह की सामाजिक भूमिका मथुरा के माहौल में निभायी है वह काबिलेगौर है। इस दौरान मंच को सैंकड़ों युवाओं को जन संस्कृति से जोड़ने में मदद मिली है।लोकतांत्रिक मूल्यों और मान्याताओं के प्रति आदर-सम्मान का भाव पैदा करने,सामंती सोच और सामंती आदतों से लड़ने की भावनाओं को निर्मित करने में उसने बहुत बड़ी भूमिका निभायी है।

मथुरा का सामान्य परिवेश अ-लोकतांत्रिक मान्यताओं और सामंती सांस्कृतिक मूल्यों से भरा हुआ है। जनसांस्कृतिक मंच की जब स्थापना की गयी तो उस समय सामंती मूल्यों के खिलाफ लड़ने के साथ साथ आपातकाल में अधिनायकवादी राजनीतिक माहौल के खिलाफ लड़ने की भी गंभीर चुनौती थी।लोकतंत्रप्रेमी युवाओं और संस्कृतिकर्मियों ने मिलकर आपातकाल में जन सांस्कृतिक मंच की मथुरा में आज से 40साल पहले स्थापना की।संस्थापकों में प्रमुख थे- सव्यसाची,मनमोहन,हरिवंश चतुर्वेदी, भारतभूषण, (सम्प्रति इलाहाबाद उच्चन्यायालय के जज) अनिल चौधरी नाट्य निर्देशक,दिनेश अग्रवाल आदि। आरंभ में किसी ने सोचा भी नहीं था कि मंच इतनी बड़ी ताकत बनेगा,लेकिन धीरे-धीरे काम करते हुए मंच में सभी साथियों की सक्रिय भागीदारी ने मथुरा के युवाओं में व्यापक अपील पैदा की।मैं स्वयं भी आपातकाल में मंच के करीब आया और आज तक मंच से संबंध बना हुआ है।मंच ने मथुरा में वह सब किया जो सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए आवश्यक था और यह काम सामान्य स्तर पर न्यूनतम चंदा वसूल करके किया गया।

आरंभ में मंच की जो परिकल्पना बनी उसमें लाइब्रेरी,फिल्म,सेमीनार और सोशलवर्क ये चार क्षेत्र रखे गए। प्रत्येक शनिवार को किसी न किसी सम-सामयिक विषय पर परिचर्चा होती थी जिसमें सभी सदस्य भाग लेते थे.यह अकेला ऐसे संगठन था जिसमें लड़कियों की भी व्यापक स्तर पर भागीदारी थी। चार लाइब्रेरी यूनिट बनाई गईं जिनमें प्रगतिशील साहित्यकारों की रचनाएं क्रमशःएकत्रित करके रखी गयीं,पुस्तकालय के लिए मात्र 1रूपया मासिक शुल्क लिया जाता था ,ये चारों यूनिट शहर के विभिन्न मोहल्लों में स्थापित की गयीं,और प्रत्येक पाठक से पढ़ी गयी किताब पर सदस्यों के द्वारा नियमित फीडबैक ली जाती थी और चर्चाएं होती थीं,देश के सभी प्रख्यात बुद्धिजीवी और लेखकों को मंच पर बोलने का अवसर मिला ,जिनमें सैंकडों श्रोता हुआ करते थे। फिल्म शो के नाम पर समानान्तर सिनेमा की फिल्में और फिल्म के प्रोजेक्टर के जरिए विश्व के विख्यात फिल्ममेकरों की फिल्मों के शो नियमित ढ़ंग से मंच पर,सिनेमा हॉल में और कईबार गलियों में भी आयोजित किए गए। शतरंज और कैरम टूर्नामेंट तो युवाओं के सबसे प्रिय खेल थे,जिनमें सैंकड़ों युवाओं ने शिरकत की है। हर बार फिल्म शो के बाद दिखाई गयी फिल्म पर दर्शकों से एक प्रश्नावली भरायी जाती थी और एक सेमीनार रखी जाती थी जिसमें फिल्म के किसी न किसी जानकार विद्वान का भाषण हुआ करता था। सामाजिक कार्य के तहत प्रति माह गरीबों की किसी न किसी बस्ती में सफाई अभियान,मेडीकल शिविर,मुफ्त दवाओं का वितरण आदि के काम किए जाते थे।यह सिलसिला इस गति से चला कि हम सबको समय का पता ही नहीं चला और इस सिलसिले में सैंकड़ों सक्रिय युवा हम सबके बीच जुड़ते चले गए। ये वे युवा थे जो लोकतांत्रिकचेतना और लोकतांत्रिक मूल्यों से लैस थे। कालान्तर में सभी युवाओं ने नौकरियां और काम धंधे हासिल किए लेकिन मंच के साथ अपना लगाव कम नहीं किया। खासकर 1983-84 के बाद से उसकी काम करने की शैली बदल गयी,बीच में कुछ समय काम ठंड़ा पड़ा ,लेकिन कुछ साल विराम के बाद फिर से विगत कई सालों से मंच के पुराने मित्रगण सक्रिय होकर मैदान में आ गए और मंच ने अपनी पहचान को नए सिरे स्थापित करने का प्रयास आरंभ कर दिया है।

जन सांस्कृतिक मंच की खूबी है लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता।लक्ष्य है लोकतांत्रिक मूल्यों का प्रसार करना। युवाओं को जन संस्कृति और वैकल्पिक संस्कृति से जोड़ना। इसमें सदस्यता लेने वाले अपने राजनीतिक विचारों के प्रति स्वतंत्र हैं। मंच ने कभी किसी विचारधारा विशेष के पक्ष में खड़े होने या मानने के लिए सदस्यों पर दवाब नहीं डाला,वहां सभी रंगत की विचारधाराओं के सदस्य हैं।इस अर्थ में जन सांस्कृतिक मंच विचारधाराओं का संगम है।सब एक-दूसरे के भिन्न विचारों और दलीय प्रतिबद्धताओं का सम्मान करते हैं और गहरे मित्र की तरह साथ में रहते हैं।







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