मंगलवार, 17 नवंबर 2015

स्वतंत्रता और विवेकवाद के नायक स्वामी विरजानंद सरस्वती


          स्वामी विरजानंद सरस्वती का भारत के स्वाधीनता संग्राम में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान रहा है। खासकर19वीं सदी में हिन्दीभाषी क्षेत्र में जिनलोगों ने आम जनता में विवेकवाद की मशाल जलाए रखी उनमें स्वामीजी प्रमुख हैं। स्वामीजी की सबसे बड़ी विशेषता थी कि वे अवतारवाद और मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं करते थे। वे दशनामी संन्यासी थे और उनका शंकराचार्य द्वारा स्थापित संन्यासी सम्प्रदाय से संबंध था। उनके गुरु पूर्णानंद भी शंकर के मतावलम्बी थे। वे वेदान्त के प्रगतिशील अग्रदूतों में गिने जाते हैं।

सन्1857 के स्वाधीनता संग्राम में स्वामी विरजानंद सरस्वती की महत्वपूर्ण भूमिका थी,मथुरा –हरिद्वार और आसपास के इलाकों की पंचायतों के जरिए स्थानीय लोगों को अंग्रेजों के खिलाफ गोलबन्द करने में उनकी केन्द्रीय भूमिका थी। दिलचस्प बात यह है कि स्वामी विरजानंद के गुरु पूर्णानंद,उनके गुरु स्वामी ओमानंद भी 1857 के संग्राम में शरीक हुए। असल में स्वामी ओमानंद और स्वामी पूर्णानंद ने 1857 के संग्राम में भाग लेने का ब्लूप्रिंट तैयार किया और स्वामी विरजानंद ने उसे लागू किया। दिलचस्प बात यह है कि 1857 में स्वामी ओमानंद 160 साल के थे और स्वामी पूर्णानंद 110साल के थे और स्वामी विरजानंद उस समय लगभग 79वर्ष के थे।यह वह दौर था जब मथुरा और उसके आसपास के इलाकों में जबर्दस्त वैचारिक संघर्ष चल रहा था जिसका मथुरा और हिन्दीभाषी क्षेत्र की विवेकवादी परंपरा के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान है। मसलन्, सन्1845 के आसपास मौलवी इस्माइल ने “रद्दे हनूद”( हिंदूमत का खंडन) किताब लिखी,चौबे बद्रीदास ने “रद्दे मुसलमान”(मुस्लिम मत का खंडन) लिखी।सन्1856 में अब्दुल्ला ने “तोहद-तुल हिंद” (भारत की सौगात)लिखी।इस किताब में हिंदू देवी-देवताओं की आलोचना की गयी है।इंद्रमणि ने इसके उत्तर में “तोहफुलइस्लाम” (इस्लाम का उपहार) लिखी।इस धारा से भिन्न विरजानंद सरस्वती की परंपरा थी जिसमें हिन्दुओं-मुसलमानों की एकता पर जोर दिया गया था।

स्वामी विरजानंद सरस्वती की बचपन में शीतला के कारण एक ऑख चली गयी,लड़कपन में उनके माता-पिता न रहे। उनकी भौजाई उन्हें बहुत सताती थीं।आखिरकार तंग आकर वे घर (कर्तारपुर,पंजाब)से हरिद्वार की ओर चले गए।उस समय वे मात्र बारह वर्ष के थे। यहीं पर उन्होंने संस्कृत व्याकरण का असाधारण ज्ञान प्राप्त किया। उनके शिष्यों में अन्यतम हैं दयानंद सरस्वती। स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने पूना प्रवचन के दौरान अपने गुरु के बारे में कहा था कि “ वे दोनों आँखों से अँधे थे और उन्हें वेदशूल का रोग था।” .. “ उनकी वेद शास्त्रादि ग्रंथों में रुचि थी” , “भागवतादि पुराणों का वे तिरस्कार करते थे”, कल्पना करें मथुरा में रहकर भागवत का तिरस्कार करना कितना बड़ा जोखिम था।

सन् 1856 में मथुरा के पास जंगल में पंचायत हुई। उसमें मीर मुश्ताक मिरासी नाम के सज्जन उपस्थित थे। उन्होंने उर्दू में उस पंचायत का हाल लिखा है और उसमें विरजानंद के भाषण का सारांश दिया है।यह एक तथ्य है कि 1857 के संग्राम की तैयारी में अन्य लोगों के अलावा साधु-संतों-फकीरों की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी। मीर मुश्ताक ने लिखा है, “ जब महात्मा विरजानंद को पालकी में बिठा कर लाया गया उस वक्त हिंदू-मुसलमान फ़कीरों ने उनकी खुशी में शंख,घड़नावल,नागफणी,निकाडा,तुरही,नरसिंघे बजाए थे और खुदापरस्ती और वतनपरस्ती के गीत गाए थे।यह नावीना साधु गैर-इल्म के समझने की ताकत रखता था और खुदा का जलवे-जुलाल इसकी ज़बान से ज़ाहिर होता था।मैंने भी अपनी रुह के तक़ाजे के मुताबिक़ 5फूल इनके सामने पेश किए और उनकी कदमबोसी की और खुदा से दुआ माँगी कि खुदा,ऐसी नेक रुहों को ख़लक़त की भलाई के लिए हमेशा पैदा कीजिए।” यह पंचायत चार दिन चली। एक दिन आदम से लेकर हजरत मोहम्मद तक “सवाने अमरी” सुनाई गई। एक दिन राम,कृष्ण,बुद्ध,महावीर आदि पर भाषण हुए।और एक दिन स्वामी विरजानंद और साईं मियाँ महमूदन शाह के व्याख्यान हुए। इस सभा में नाना साहब,अजीमुल्ला और बहादुर शाह के पुत्र एक पुत्र भी मौजूद थे। स्वामी विरजानंद सरस्वती ने इस सभा में जो कुछ कहा उसका सारांश मीर मुश्ताक़ मिरासी ने पेश किया है। यह भाषण एक ऐतिहासिक दस्तावेज है।

स्वामी विरजानंद सरस्वती ने कहा, “ आज़ादी जन्नत है और गुलामी दोज़ख है।अपने मुल्क की हुकूमत ग़ैरमुल्क की हुकूमत के मुकाबले में हज़ार दर्जे बेहतर है। दूसरों की गुलामी हमेशा बेइज्जती और बेशरमी का बायस है।हमें किसी कौम से और किसी मुल्क से कोई नफ़रत नहीं है। हम तो ख़लके –खुदा बहबूदे के लिए खुदा से रोज़ दुआ माँगते हैं मगर हुकमराह कौम ख़ासकर फिरंगी जिस मुल्क में हकुमत करते हैं उस मुल्क के बाशिंदों के साथ इन्सानियत का बरताव नहीं करते और कितनी ही अच्छाई की तारीफ करें मगर उस मुल्क के बाशिंदों के साथ मवेशियों से गिरा हुआ बरताव करते हैं। खुदा की खलकत में सब इन्सान भाई-भाई हैं मगर ग़ैर-मुल्की हुकमराह क़ौम इन्हें भाई न समझ कर गुलाम समझती है। किसी भी मज़हब की किताब में ऐसा हुक्म नहीं है कि अश् रफुल्मख़लूकात के साथ दग़ा की जावे और अल्लाह के हुक्म के खिलाफवरजी की जावे। इस वास्ते मातहत लोगों का न कोई ईमान है न कोई शान है। फिरंगियों में बहुत-सी अच्छी बात है मगर सियासी मसले में आकर वह अपने कौल-फेल को न समझकर फौरन बदल जाते हैं और अच्छाई और नेक सलाह को फौरन ठुकरा देते हैं। इस(की) असिल वजूहात यह है कि हमारे मुल्क को वह अपना वतन नहीं समझते हैं। हमारे मुल्क का बच्चा-बच्चा उनकी ख़ैरख़वाही का दम भरे फिर भी अपने वतन के कुत्ते को इन्सानों से अच्छा समझते हैं। यह सब कर्मा (?) का बायस है, इन्हें अपने ही वतन से मोहब्बत है,इसलिए मैं सब बाशिंदगान हिंद से इलतजा करता हूँ कि जितना वह अपने मज़हब से मुहब्बत करते हैं उतना ही इस मुल्क के हर इन्सान का फ़र्ज़ है कि वह वतनपरस्त बने और मुल्क के हर बाशिंदे को भाई-भाई जैसी मोहब्बत करे,तब तुम्हारे दिलों के अंदर वतनपरस्ती आ जाएगी,तो इस मुल्क की गुलामी यहाँ से खुद-ब-खुद जुदा हो जाएगी।हिंद के रहने वाले सब आपस में हिंदी भाई हैं और बहादुरशाह हमारा शाहंशाह है।” यह समूचा प्रसंग विश्लेषित करते हुए रामविलास शर्मा ने लिखा है कि इस “भाषण में कहीं पर भी अँग्रेजों को काफिर या म्लेच्छ कहकर उनके विरुद्ध मज़हबी जोश उभारने का प्रयत्न नहीं है।एशियाइयों और खासकर ‘हिंदुस्तान’ के ‘काले’ आदमियों के प्रति अँग्रेज जब-तब नस्लपंथी घृणा प्रकट करते रहते थे,उसकी प्रतिक्रियास्वरुप गोरों के प्रति घृणा का भाव नहीं है।सारी बातें विदेशियों की दासता से मुक्त करने की भावना से प्रेरित हैं।परोक्ष रुप से वक्ता के मन में विश्वबंधुत्व और सर्वमानवता के हित के भाव विद्यमान हैं।”








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