शनिवार, 4 अप्रैल 2015

गुड फ़्राइडे पर अ-न्याय खेल



गुड फ़्राइडे हो या दीपावली  ये हमारे सद्भाव के पर्व हैं। दुखद है कि अब निहित स्वार्थी ताक़तें इन त्यौहारों पर भी राजनीति की रोटियाँ सेंकने से बाज़ नहीं आ रही हैं। हमें संस्थागत हित बनाम व्यक्तिगत हित का सवाल उठाते समय यह बात हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि संस्थान के हित कभी उसमें काम करने वालों के हितों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। संयोग की बात है कि संस्थान के हित को लोकतांत्रिक हक़ों से ऊपर तरजीह देने की बात कही जा रही है। यह भाषा सुप्रीम कोर्ट के मुख्यन्याधीश ने कही है , इसके पहले कभी गुडफ्राइडे या दीपावली के दिन जजों कीकोई सरकारी कॉंफ़्रेंस नहीं रखी गयी। 
  सुप्रीम कोर्ट के मुख्यन्यायाधीश का तर्क है कि संस्थान के कर्तव्य प्रधान हैं और निजी चीज़ें गौण हैं तो इस तर्क के भयानक अ-लोकतांत्रिक परिणाम हो सकते हैं।
       धर्म हमारी लोकतांत्रिक स्वतंत्रता का हिस्सा है। वह सरकारी तौर -तरीक़ों और मान्यताओं से नियमित नहीं होता। जजों के सम्मेलन  की तिथि तय करते समय तिथि की धार्मिक महत्ता का ख़्याल रखना चाहिए। सवाल यह है कि जजों का यह सम्मेलन अन्य किसी दिन क्यों नहीं रखा गया ? क्या ३६५ दिन में यही एक दिन ख़ाली बचा था ? यदि ऐसा है तो हमें गंभीरता से हिसाब माँगना होगा कि हमारे जज सारे साल क्या करते हैं? कितने दिन अवकाश पर रहते हैं ? 
      उल्लेखनीय है जजों की समाज के प्रति ज़िम्मेदारी जितनी महत्वपूर्ण है उसका वे यदि ईमानदारी के साथ पालन कर रहे होते तो न्याय प्रणाली में इतनी सडांध न होती ! न्यायपालिका आज राजनीति से ज़्यादा भ्रष्ट हो चुकी है, ऐसे में जजों का हठात् गुडफ्राइडे के दिन सम्मेलन हमें तो किसी अन्य मंशा की भनक दे रहा है। क्या अब आने वाले समय में न्यायपालिका भी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की दिशा में जाने वाली है  ? 
         न्यायपालिका में न्याय कम और ग़ैर- न्याय ज़्यादा व्यक्त होता रहा है। ऐसे में न्यायपालिका को और भी ज़्यादा लोकतांत्रिक बनाने की ज़रूरत है। जजों को लोकतांत्रिक बनाने की ज़रूरत है। वह न्याय किसी काम का नहीं जो लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं का सम्मान न करे। हमारी न्यायप्रणाली में न्याय और लोकतंत्र के अन्तस्संबंध पर ज़ोर कम रहा है। वहाँ तो न्यायप्रणाली और न्याय के संतुलन पर ही ज़ोर रहा है, इससे भारत का आम आदमी लाभान्वित नहीं हुआ है। यह असल में " न्याय के लिए न्याय " की प्रणाली है। जिसमें न्याय कम और न्याय के नाम पर उत्पीड़न और पैसे की विभिन्न स्तरों पर लूट बहुत होती है। 
     " गुड फ़्राइडे" पर जजों की कॉंफ़्रेंस न होती तो न्यायप्रणाली छोटी नहीं हो जाती! जिन लोगों ने यह फ़ैसला लिया उन्होंने अपने राजनीतिक स्वार्थों का ख़्याल रखा  । इससे न्याय की मर्यादा सम्मानित नहीं होती। उलटे इससे  न्यायप्रणाली में निहित राजनीतिक स्वार्थ की मनोदशा व्यक्त हुई है। 

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