शनिवार, 17 जनवरी 2015

सेंसरबोर्ड का संकट और मोदी सरकार


  नरेन्द्र मोदी को " स्वायत्तता " पदबंध से नफरत है ! उनको "लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली" से एलर्जी है। उनको हर प्रतिवादी " कांग्रेसी" या " माओवादी" या "देशद्रोही" नजर आता है । सवाल यह है क्या संसदीय बहुमत अधिनायकवादी बना देता है? भारत का अनुभव बताता है कि बहुमतवाले नेता की मनोदशा यदि सामंती हो तो वह अधिनायकवादी रुपरंग में जल्दी आ जाता है।मोदी सरकार की कार्यप्रणाली और सेंसरबोर्ड के संकट को इसी नज़रिए से देखने की ज़रुरत है। 
    
सेंसरबोर्ड के नौ सदस्यों ने कल सूचना और प्रसारण मंत्रालय के पास अपना इस्तीफ़ा भेज दिया , इसके पहले सेंसरबोर्ड की अध्यक्षा लीला सेम्सन इस्तीफ़ा दे चुकी हैं। मीडिया और भाजपा ने तुरंत ही इन इस्तीफ़ों को कांग्रेसी साज़िश कहकर ख़ारिज कर दिया। सच्चाई यह है यूपीए सरकार के ज़माने से ही सेंसरबोर्ड के सदस्य इस संगठन का कार्यप्रणाली से असंतुष्ट होकर कई पत्र लिख चुके थे और पूर्ण स्वायत्तता दिए जाने की माँग कर रहे थे। लेकिन सूचना प्रसारण मंत्रालय ने कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया ।
      मोदी सरकार आने के बाद सेंसरबोर्ड के सदस्य उम्मीद लगाए बैठे थे नई सरकार के आने से मंत्रालय के नज़रिए में बदलाव आएगा।लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। सेंसरबोर्ड को पिछली सरकार के ज़माने में अनपढ़, जाहिल और सिनेमानिरक्षर लोगों से भर दिया गया था और इसकी ओर लीला सेम्सन ने कई पत्र लिखकर मंत्रालय का ध्यान खींचा। नई सरकार आने के बाद स्थितियाँ और भी भयानक हो गयीं , बोर्ड की मीटिंग बुलाना ही मुश्किल हो गया।
  मोदी सरकार ने बोर्ड के 17 मेम्बरों का कार्यकाल नए बोर्ड की नियुक्ति तक बढा दिया , लेकिन काम करने की अनुमति का माहौल ख़त्म कर दिया ,बोर्ड की मीटिंग के लिए अनुमति देने से मना कर दिया, अध्यक्षा को न्यूनतम काम करने के लिए फ़ंड मुहैय्या कराने से मना कर दिया।
    विगत सरकार से मोदी सरकार का अंतर यह है कि बोर्ड की अध्यक्षा का मंत्रालय से विवाद पहले भी चल रहा था और वे अपना काम करने के लिए स्वतंत्र थीं, मीडिया की ख़बरों से यही लगता है कि मोदी सरकार आने के बाद सूचना प्रसारण मंत्रालय से पुराना विवाद तो बरक़रार रहा साथ में काम करने के मार्ग रोड़े डाल दिए गए । मूल विवाद सेंसरबोर्ड को पूर्ण स्वायत्तता देने से जुडा है। बोर्ड की मीटिंग को मंत्रालय की अनुमति और फ़ंड के बिना बुलाना ही संभव नहीं था । यहीं से मोदी सरकार का हस्तक्षेप आरंभ होता है। मोदी सरकार ने फ़ंड ही रोक दिए। यही वह बिंदु है जहाँ से सदर और नौ सदस्यों के इस्तीफ़े आए हैं।
      मोदी सरकार की कार्यशैली का अब तक का प्रधान लक्षण रहा है कि कोई स्वायत्त नहीं है। पीएम ऑफ़िस या मंत्रालय की ओर से जो कहा जाए वह काम करो। यदि कहा जा रहा है कि कोई काम मत करो तो मुँह बंद करके चुप रहो वरना कांग्रेस एजेंट कहकर अपमानित क्या जाएगा। यही हाल योजना आयोग का हुआ है ,वही दुर्दशा सेंसरबोर्ड की हुई है। 
         सेंसरबोर्ड के सदर ने यह भी कहा है कि मंत्रालय ने MSGफिल्म को पास कराने के लिए दबाव डाला है तो उस पर अविश्वास का कोई कारण नहीं लगता, कारण यह है कि सेंसरबोर्ड से पास हुए बिना ही जिस तरह आननफानन में इस फिल्म को दिखाने की अनुमति ट्रिब्यूनल दी है उससे लीला सेम्सन के आरोप की पुष्टि होती है। 
         मोदी सरकार को सारे विवाद को समाप्त करके सबसे पहले MSGफिल्म का प्रसारण रोकना चाहिए । साथ ही सेंसरबोर्ड को तुरंत पूर्ण स्वायत्तता देकर पुनर्गठित करना चाहिए। 

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