गुरुवार, 22 जनवरी 2015

जयपुर-बड़ौदा के साहित्य- कला उत्सव और वामलेखक संगठनों की चुनौतियाँ



   जयपुर साहित्य मेला आरंभ हो गया है और बड़ौदा का कला - संगीत उत्सव आरंभ होने वाला है। इन दोनों आयोजनों से भाजपा की राज्य सरकारें जुड़ी हैं। भारत के वामलेखकों को इस तरह के आयोजनों को ध्यान से देखना और सीखना चाहिए । वामलेखकों के संगठनों जनवादी लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ और अन्य सांस्कृतिक संगठनों को भी इस तरह के आयोजनों के बारे में गंभीरता से लेखकों में संवाद चलाने की ज़रुरत है। इस तरह के आयोजन स्वागतयोग्य हैं। इस तरह के आयोजन जहाँ एक ओर साहित्य और कलाओं को लोकप्रिय बनाते हैं , वहीं मध्यवर्गीय युवाओं में साहित्य और कलाओं के प्रति नयी उमंग और कला संस्कार पैदा करने में मदद करते हैं। हमारे वाम लेखक संगठनों के आयोजन बंद दायरों में कैद होकर रह गए हैं और वे युवाओं के बृहत्तर तबक़ों और मीडिया को आकर्षित नहीं कर पाते हैं। वे गिनतीभर लोगों के आयोजनमात्र होकर रह गए हैं। 
       नए दौर की माँग है कि साहित्य और कलाओं को आम जनता के बृहत्तर मध्यवर्गीय युवा समूहों से जोड़ा जाय। साहित्य और कलाओं को सैलीब्रिटी बनाकर यह काम किया जा रहा है। इसमें साहित्य और कला के संस्कार या आदतों के निर्माण पर मुख्य रुप से ज़ोर दिया जा रहा है। हमारे वाम लेखक संगठनों के साहित्यिक आयोजनों को विचारधारात्मक मूल्याँकन  या वैचारिक मुठभेड़ के मंच के रुप में विकसित किया और इसका यह परिणाम निकला है कि साहित्य का दायरा सिकुड़कर चंद लेखकों तक सीमित होकर रह गया है। वामलेखक संगठनों की दूसरी मुश्किल यह रही है कि वे वाम राजनीति के पूरक के तौर पर काम करते रहे हैं इसने साहित्य के दायरे का विस्तार नहीं किया। बल्कि उलटे साहित्य और साहित्यकार तयशुदा समूहों में सीमित होकर रह गया , फलत:  हिन्दी की साहित्यिक किताबों का सर्कुलेशन गिरा और पाठकों की संख्या कम हुई। जयपुर साहित्य मेला में निरंतर पाठकों और श्रोताओं की संख्या बढ रही है, साहित्य की बिक्री भी बढ रही है। हम सोचें कि इस तरह का रेस्पांस किसी भी वाम लेखक संगठन के साहित्य सम्मेलन को क्यों नही मिला ? 
                   जयपुर-बड़ौदा जैसे उत्सवों का लक्ष्य है कलात्मक कम्युनिकेशन के जरिए कलाओं के आस्वाद और संस्कार पैदा करना। यह काम वे विशुद्ध रुप से पापुलर कल्चर प्रमोशन के फ़्रेमवर्क में कर रहे हैं। पापुलर कल्चर प्रमोशन का फ़्रेमवर्क मूलत: दर्शक को विभिन्न रणनीतियों , विज्ञापन,व्यापक प्रचार और मीडिया कवरेज के जरिए आकर्षित करता है। यह नायकों का संगम है,इसका लक्ष्य है मित्रभाव से कलात्मक इच्छाओं को जगाना। इस तरह के आयोजनों में प्रिफार्मेंस पर ज़ोर है। जो लेखक प्रिफार्म कर रहा है , वह चमक रहा है , जो चमक रहा है वह मीडिया में दिख रहा है,साहित्यकार और कलाकार इस तरह के आयोजनों में अपने बयानों और प्रस्तुतियों के जरिए कम्युनिकेट करते हैं और दर्शक के भावबोध को विभिन्न तरीक़ों से स्पर्श करने की कोशिश करते हैं। इससे कला, कलाकार और पाठकों के बीच टूटे संबंध और संपर्क को जोड़ने में मदद मिलती है। कलाएँ अनजान पाठकों से जुड़ती हैं। यह साहित्य और कलाओं के लोकतांत्रिकीकरण की प्रक्रिया भी है। इस तरह के आयोजनों में कारपोरेट घरानों का जुड़ना अच्छी बात है। इससे कला और साहित्य के व्यापक प्रसार में मदद मिलती है। इस तरह के आयोजन इवेंट की तरह होते हैं और सेंट की ख़ुशबू की तरह तब तक बातें होती हैं जब तक इवेंट चलता है इवेंट ख़त्म विचार का असर ख़त्म । लेकिन संस्कार रह जाता है। पाठक में आशाएँ रह जाती हैं। इसलिए इस तरह के कार्यक्रम ,मेले का रुप लेते जा रहे हैं। जिस तरह मेले मे लोग बिना बुलाए बड़ी संख्या आते हैं, वही रेस्पांस इस तरह के आयोजनों को मिल रहा है। 
              

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...