रविवार, 15 जून 2014

नरेन्द्र मोदी की दक्षिणपंथी आंधी

       सोलहवीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत मिल गया है। केन्द्र में पहली बार ऐसा हुआ है कि कांग्रेस से इतर किसी एक दल को बहुत मिला है । इसबार के चुनाव में अधिकांश राजनीतिक पार्टियां राष्ट्रीय स्तर पर परंपरागत ढ़ंग से चुनाव लड़ रही थीं। सिर्फ भाजपा, आम आदमी पार्टी और कांग्रेस ने प्रचार के नए हथकण्डे अपनाए । भाजपा की जीत का मूलाधार है दक्षिणपंथी पापुलिज्म । ऐसा नहीं है कि दक्षिणपंथी पापुलिज्म पहलीबार हमारे बीच में आया है। विभिन्न रुपों में यह क्षेत्र विशेष में सक्रिय रहा है। हमारे समाज में पहले भी पापुलिज्म या लहर देखी गयी है। इनमें कई लहरें उदारतावाद केन्द्रित थी। लेकिन इसबार के पापुलिज्म की धुरी है अनुदारवाद।मसलन् सन् 1971 और 1977 के पापुलिज्म की धुरी उदारवादी कार्यक्रम था। यहां तक कि राष्ट्रीय मोर्चे की सरकारों के गठन में उदारतावादी पापुलिज्म की बड़ी भूमिका थी ।

जिसे मीडिया ने मोदी लहर कहा वह वस्तुतःसंघ का पापुलिज्म है। इस पापुलिज्म को वस्तुगत ढ़ंग से खोलकर पढ़ा जाना चाहिए। पापुलिज्म या लहर को हमेशा विचारधारात्मक तौर पर विश्लेषित किया जाना चाहिए। इसे सिरों की गिनती तक रखकर न देखें।

पापुलिज्म या लहर हमेशा संदर्भकेन्द्रित होती है। मोदी लहर के दोछोर हैं एक छोर पर मनमोहन सरकार की असफलताएं हैं तो दूसरे छोर पर संघ की विचारधारा है। इन दोनों छोरों के सम्मिश्रण से मोदी लहर बनाने में आक्रामक मीडिया रणनीति की महत्वपूर्ण भूमिका है। इस लहर की अंतर्वस्तु है अनुदारलोकतंत्र और नव्य-उदार आर्थिक नीतियां । मोदी की सफलताओं का जो भी आख्यान पेश किया गया वह वस्तुतःनव्य उदार आर्थिक नीतियों की सफलता का आख्यान है।

मोदी लहर के बहाने नव्य आर्थिक नीतियों की सफलताओं को जनता के गले उतार दिया गया। जो काम मनमोहन सिंह सरकार न कर पायी वह काम मोदी ने कर दिखाया। गुजरात मॉडल के नाम पर पक्ष-विपक्ष की बहस अंततःमनमोहन सरकार की नीतियों पर ही केन्द्रित रही है। मोदी यदि एक ओर गुजरात की सफलता का गान कर रहे थे तो दूसरी ओर जिन सफल राज्यों को पेश किया गया वे भी मनमोहन नीतियों का ही प्रकारान्तर से बखान कर रहे थे।

इस नजरिए से देखें तो 16वीं लोकसभा के चुनाव मूलतःमनमोहन सिंह द्वाराअपनायी गयी आर्थिक नीतियों के कार्यान्वयन की समीक्षा पर लड़े गए। इसमें गुजरात मॉडल की जमकर चर्चा हुई और मीडिया चर्चा होने और भाजपा के जीतने को यह मान लिया गया कि गुजरात मॉडल सफल है। यानी चुनावी जीत को सफलता का पैमाना मान लिया गया। जबकि चुनावी जीत को किसी भी किस्म के विकास की सफलता का पैमाना नहीं बनाया जा सकता है।

मजेदार बात यह है कि केन्द्र सरकार द्वारा संचालित योजनाओं को कार्यान्वित करके गुजरात मॉडल बना है। लेकिन इसका यश मनमोहन सिंह सरकार को नहीं मिला।यश मिला है नरेन्द्र मोदी को। मनमोहन सिंह सरकार पर आरोप है कि वह भ्रष्ट और निकम्मी सरकार है। यानी यह चुनाव नीतियों के परिवर्तन के लिए नहीं लड़ा गया अपितु नव्य उदार आर्थिक नीतियों को लागू करने में कौन बेहतर भूमिका निभा सकता है उस पहलू पर लड़ा गया। उल्लेखनीय है आम आदमी पार्टी का भी नव्य आर्थिक नीतियों से कोई मतभेद नहीं था। वामदलों का मतभेद था, वे वैकल्पिक नीतियों की बातें करते रहे हैं इसका खामियाजा उनको भुगतना पड़ा और उनको करारी हार का सामना करना पड़ा। कहने का आशय यह कि 16वीं लोकसभा का चुनाव जिन तीन प्रमुख मोर्चों के बीच लड़ा गया उनमें नव्य उदार आर्थिक नीतियां साझा तत्व है।

इस बार के चुनाव की विशेषता थी कि यह चुनाव बहुकोणीय होते हुए भी विचारधारात्मक तौर पर दो दलों के बीच में ही था। कांग्रेस बनाम भाजपा के बीच में ही चुनाव था। देश के संचालन में इन दोनों दलों में से किसी एक दल की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। इस वास्तविकता को मोदी ने प्रसारित किया । मोदी के हमले के केन्द्र में मूलतः कांग्रेस का नेतृत्व था।

मोदी ने कांग्रेस पर हमला करने के साथ क्षेत्रीयदलों के भ्रष्टशासन पर भी हमला बोला।क्षेत्रीय समस्याओं को उठाया।

मोदी ने अपने प्रचार में केन्द्र सरकार के भ्रष्टाचार और निकम्मेपन को मूलतः निशाना बनाया। भ्रष्टाचार और निकम्मेपन को निशाना बनाते हुए समूचे कम्युनिकेशन को विस्तार दिया। अपने को कांग्रेस के विकल्प के रुप में ही नहीं बल्कि समूची राजनीतिक व्यवस्था के विकल्प के रुप में पेश किया। राजनीतिक जीवन में मूल्यों में आई गिरावट को निशाना बनाया। उन आख्यानों और संदर्भों का इस्तेमाल किया जो राजनीतिक मूल्यों में आई गिरावट को व्यक्त करते थे।साथ ही उसने सख्त नेता की इमेज को पेश किया। इसके लिए जनता को गोलबंद करने का काम प्रच्छन्न बहुसंख्यकवाद के जरिए किया गया।

उल्लेखनीय है भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार खुलेआम हिन्दूराष्ट्र की हिमायत का काम वह बड़े ही स्थूल ढ़ंग से करते रहे है। लेकिन इस बार उनकी प्रचार टीम ने बहुसंख्यकवाद को मीडिया के प्रचार अभियान से निकालकर परंपरागत निजी प्रचार में इस्तेमाल किया। मीडिया में कांग्रेस के नेतृत्ववाली यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार और निकम्मेपन और क्षेत्रीयदलों के भ्रष्टाचार और निकम्मेपन को निशाना बनाया। विकास के सपने को उछाला।

मीडिया में विकास के आख्यान और विकास की समस्याओं पर जोर दिया जबकि निजी परंपरागत प्रचार अभियान में बहुसंख्यकवाद का सघन प्रचार अभियान चलाया गया। मसलन् , संघ के लोगों ने घर –घर जाकर हिन्दुत्व के नाम पर वोट मांगे ,पर्चे बाँटे और हिन्दुत्व के नाम पर एकजुट होने की अपील की। इसका उनको लाभ मिला। बहुसंख्यकवाद की गोलबंद करने की प्रक्रिया मीडिया से तकरीबन गायब रही।इक्का-दुक्का टीवी रिपोर्ट के अलावा कहीं पर यह मीडिया में नजर नहीं आई। यहां तक कि राजनीतिकदलों को भी बहुसंख्यकवाद की आड़ में चल रहा साम्प्रदायिक प्रचार अभियान नजर नहीं आया। सब यही कहते रहे कि संघ सक्रिय है,लेकिन क्या प्रचार कर रहा है इस ओर मीडिया और राजनीतिकदलों का एकसिरे से ध्यान ही नहीं गया।

बहुसंख्यकवाद का ही परिणाम है कि अनेक राज्यों से मुसलमान सांसद चुनकर ही नहीं आए। खासकर उत्तरभारत से मुसलिम सांसदों का न चुना जाना अपने आप में समस्या है। तकरीबन 27राज्य हैं जहाँ से कोई मुसलिम सांसद नहीं चुना गया। बहुसंख्यकवाद का पापुलिज्म में बदलना स्वयं में बड़ी परिघटना है। इससे नए किस्म के सामाजिक-सांस्कृतिक ध्रुवीकरण की संभावनाएं जन्म लेंगी। नए किस्म की समस्याएं भी आएंगी जिनकी हमने कल्पना नहीं की है। 16वीं लोकसभा में मात्र 24 मुसलिम सांसद चुने गए हैं,जबकि विगत लोकसभा में 30 सांसद थे।

इस चुनाव के पहले आसएसएस हमेशा राजनीतिक प्रचार में हिन्दुत्व का जमकर मीडिया में इस्तेमाल करता था। लेकिन इसबार सचेत रुप से किसी भी संघीनेता ने हिन्दुत्व की बात नहीं की। विश्व हिन्दू परिषद और भाजपा के इक्का-दुक्का नेताओं को छोड़कर किसी ने मीडिया में सीधे हिन्दुत्व की बात नहीं की। जबकि जमीनी स्तर पर संघ ने बहुसंख्यकवाद का वोट देने की अपील के बहाने जमकर प्रचार किया। एकजुट होकर वोट देने की अपील की । म.प्र. में तो एकमुश्त वोट देने की अपील करते हुए पर्चे भी बाँटे गए।

विकास के पापुलिज्म के अंदर पतली बारीक तह में लिपटा बहुसंख्यकवाद इसलिए हजम हो गया क्योंकि वह पापुलिज्म के अंग के रुप में आया था। पापुलिज्म के फ्रेम में यदि बहुसंख्यकवाद पेश करेंगे तो यह वैसे ही लगेगा जैसे समाजवाद या लोकतंत्र स्वीकार्य विचारधारा लगती है। पापुलिज्म के कारण बहुसंख्यकवाद जनप्रिय होकर आमलोगों के कॉमनसेंस का हिस्सा बन गया। संघ ने इसबार हिन्दुत्व को एक विचारधारा के रुप में नहीं पापुलिज्म के कॉमनसेंस के रुप में प्रचारित-प्रसारित किया।

भारत में पापुलिज्म को कभी लोकतंत्र के लिए खतरा नहीं माना गया बल्कि लोकतंत्र की अभिव्यंजना का महत्वपूर्ण रुप माना गया। हमारे यहां पापुलिज्म के कई अतिवादी-हिंसक रुप प्रचलन में रहे हैं जिनको हम माओवाद प्रभावित इलाकों या आतंकवाद-पृथकतावाद प्रभावित इलाकों में देख सकते हैं लेकिन ये सभी हिंसक रुप आज तक अपनी सामाजिक स्वीकृति अर्जित नहीं कर पाए हैं।

भारत में आपातकाल वह मूलाधार है जहाँ से राजनीति करवट लेती है। खासकर कांग्रेस और संघ की राजनीति करवट लेती है। आपातकाल के बाद तेजी से कांग्रेस और संघ में तनाव किसी न किसी रुप में बना रहा है। इस क्रम में कांग्रेस का निरंतर क्षय हुआ है और संघ की शक्ति में निरंतर इजाफा हुआ है।

राममंदिर आंदोलन हो या आरक्षण विरोधी आंदोलन हो , सबमें संघ की शक्ति बढ़ी है। यहाँ तक कि हाल के वर्षों में हुए अन्ना आंदोलन में भी संघ की शक्ति में इजाफा हुआ । कहने का तात्पर्य है कि आपातकाल के बाद भारत में उठे सभी किस्म के पापुलर आंदोलनों के साथ संघ ने अपना संबंध किसी न किसी रुप में बनाए रखा इससे संघ के व्यापक जनाधार का निर्माण हुआ।

शिक्षा से लेकर स्वयंसेवी आंदोलनों तक संघ के बहुआयामी नेटवर्क काम कर रहे हैं और वे यथाशक्ति अपने को स्थानीय लोगों से जोड़े रखते हैं।यह जुड़ाव दंगे से लेकर शादी-ब्याह तक साफ देख सकते हैं।

संघ में परंपरागत लिबरल हैं तो अनुदार-कट्टरपंथी भी हैं और संघ इन दोनों में संतुलन बनाकर चलता है। जहाँ जिनको प्रभावशाली देखता है वहाँ उनका इस्तेमाल करता है। संघ के अंदर हिंदुत्व के अंदर उदार-अनुदार की कशमकश को आए दिन साफ देख सकते हैं। यह कशमकश इन दिनों विकास के नव्य-उदार मॉडल और स्वदेशी आंदोलन के अंतर्विरोध के रुप में देख सकते हैं।

जो लोग स्वदेशी आंदोलन को पसंद करते हैं वे विकास के नव्य उदार मॉडल का विरोध करते हैं। वे खुलेआम मोदी के खिलाफ भी बोलते रहे हैं। इस अंतर्विरोध को ध्यान में रखें तो सही ढ़ंग से देख पाएंगे कि संघ में किस तरह लिबरल और अनुदार के बीच छद्म टकराहट है। असल में ये दो मार्ग हैं हिन्दुत्वरुपी बहुसंख्यकवाद को आम जनता में ले जाने के लिए।

संघ उदार-अनुदार दोनों ही मार्गों का एक साथ इस्तेमाल करता रहा है और आगे भी करेगा। इससे वह अपने सांगठनिक तनावों को कम करने में सफल हो जाता है। मसलन् यदि आप लिबरल हिन्दुत्व कोमानते हैं तो संघ में रह सकते हैं अनुदार या कट्टरपंथी हैं तब भी रह सकते हैं।इनमें से किसी एक वजह से संघ के दायरे बाहर जाने की जरुरत नहीं है।अथवा संघ के दायरे के बाहर सोचने की जरुरत नहीं है। इस अर्थ में संघ ने अपने यहाँ उदार-अनुदार का व्यापक रुप में समावेश कर लिया है और सांगठनिक विभाजन की संभावनाओं को ही खत्म कर दिया है। यही वजह है संघ को छोड़ने वालों की संख्या बहुत कम रही है। जितनी बड़ी तादाद में लोगों ने कांग्रेस या कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़ा है उतनी बड़ी तादाद में भाजपा को छोड़ने वाले नहीं मिलेंगे। इसका एक कारण और भी है संघ की विचारधारा के असर में आने के बाद व्यक्ति का विवेकवादी राजनीतिक सोच व्यवहारवादी हो जाता है। वह रेशनल नजरिए की बजाय व्यवहारवादी नजरिए के आधार पर सोचने लगता है। इसी व्यवहारवाद को नरेन्द्र मोदी ने अपने प्रचार अभियान में इस्तेमाल किया और सबके साथ चुनावी समझौता करने का फैसला किया, इस क्रम में 25दलों के साथ राजनीतिक समझौता किया।

समूचे मीडिया प्रचार में व्यवहारवाद को ही मूलाधार बनाया गया। “अच्छे दिन आने वाले हैं” यह नारा सर्वजन स्वीकृति पा गया ,क्योंकि कोई व्यक्ति ऐसा नहीं है कि जो भविष्य में अच्छे दिन देखना न चाहता हो।

पापुलिज्म के नजरिए से मोदी ने समूचे देश की जनता को अपने सम्बोधन के निशाने पर रखा। “भ्रष्ट सरकार”, “निकम्मी सरकार” से लेकर “माँ-बेटे की सरकार ” तक का जो आख्यान है वह कांग्रेस के अंदर जो आभिजात्य है उसे उदघाटित करता है। कांग्रेस के अभिजनों की तीखी आलोचना करते हुए मोदी ने अपने को किसी दल का नहीं बल्कि पूरे सिस्टम का विकल्प बनाकर पेश किया । साथ ही राजनीति को सभी किस्म की गंदगी से मुक्त करने की बात कही। “देश को कांग्रेस से मुक्त करो” का नारा दिया। राजनीति को सारवान बनाने का संकल्प व्यक्त किया।

पापुलिज्म के आधार पर जब कोई प्रचार रणनीति अपनायी जाती है तो उसमें किसी न किसी व्यक्ति को निशाने पर रखा जाता है उसके बारे में नकारात्मक प्रचार पर जोर दिया जाता है। इसबार निशाने पर नव्य़ आर्थिक नीतियां नहीं थीं, बल्कि मनमोहन सरकार और गांधी परिवार था। मनमोहन सिंह को सोनिया गांधी के इशारे पर नाचने वाले प्रधानमंत्री के रुप में पेश किया गया।

मोदी ने जनता के सभी तबकों को सम्बोधित करने की कोशिश की। “भ्रष्टाचार” और “निकम्मेपन” के आधार पर कांग्रेस का विरोध किया।अपने को विकल्प के रुप में पेश किया। मोदी के प्रचार की दूसरी बड़ी विशेषता है कि उसने उदारतावादी नजरिए का “सबका विकास” के नारे तहत विरोध किया। अल्पसंख्यकों के हितों के संरक्षण के सवालों को हाशिए के बाहर खदेड़ दिया।

हमारे उदार लोकतंत्र में अल्पसंख्यकों के हितों के संरक्षण के सवाल हमेशा से प्रमुख रहे हैं।लेकिन “सबका विकास” का नारा ऊपर से देखने में अच्छा लगता है लेकिन इसका मूल वैचारिक लक्ष्य है उदार लोकतंत्र का विरोध करना। वे इसके जरिए यह भी कहना चाहते हैं कि बहुसंख्यक समाज को सीमित दायरे में रहकर भूमिका अदा करनी चाहिए और इसके लिए संविधान की आड़ ली गयी।

जब भी अल्पसंख्यकों और खासकर मुसलमानों के सवाल उठाए गए तुरंत विरोध किया गया और कहा गया हम तो धर्म,जाति आदि से ऊपर उठकर सबका विकास चाहते हैं। संविधान के अनुसार काम करेंगे, संतुष्टीकरण नहीं करेंगे। मुसलमानों के हितों के संरक्षण को राजनीतिक तुष्टीकरण कहकर नकारात्मक बनाकर पेश किया।

मोदी और संघ परिवार का इस प्रसंग में कहना यही है कि इस देश में जो कुछ भी करना है उसके लिए बहुसंख्यक जनता ( हिन्दू जनता) की स्वीकृति जरुरी है। मुसलमानों के लिए जो कुछ किया गया है वह तुष्टीकरण है यानी उसे बहुसंख्यक हिन्दू जनता की स्वीकृति हासिल नहीं है। फलश्रुति यह कि जो कुछ करना चाहते हो हिन्दुओं की स्वीकृति लेकर करो।यही वह बिन्दु है जहां से बहुसंख्यकवाद की विचारधारा आम जनता के जेहन में उतारी गयी। मुसलमानों के तुष्टीकरण की बातें उठाकर मोदीपंथी लोग लोकतंत्र में मुसलमानों के प्रति बनी आम सहमति पर भी सवाल उठा रहे हैं। यानी बहुसंख्यकवाद लोकतंत्र में बनी उदार आम सहमति को निशाना बनाता है।उसके प्रति घृणा पैदा करता है।

मोदी के प्रचार अभियान में वे मुद्दे खूब उठाए गए जिनको अमूमन लोकसभा चुनाव में नहीं उठाया जाता। मसलन् उसने राज्यों के विकास ,खासकर विरोधी सरकारों के विकास संबंधी कार्यों को निशाना बनाया। इसके समानान्तर अपने विकास मॉडल को मध्यवर्गीय आकांक्षाओं से जोड़कर पेश किया ।



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