सोमवार, 16 जून 2014

मार्क्सवाद की दुखती रग

  कल पुराने मित्र कैसर शमीम साहब से लंबी बातचीत हो रही थी। वे मोदी के चुनाव में जीतकर आने के बाद से बेहद कष्ट में थे और कह रहे थे कि मैं तो सोच ही नहीं पा रहा हूँ कि क्या करुँ ? वे राजनीतिक अवसाद में थे। हमदोनों जेएनयू के दिनों से भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) से जुड़े थे। वे जेएनयू में पार्टी में आए थे,मैं मथुरा से ही माकपा से जुडा हुआ था। कैसर साहब ने एक सवाल किया कि आखिरकार माकपा के सदस्य या हमदर्द भाजपा में क्यों जा रहे हैं ? माकपा का आपको पश्चिम बंगाल में क्या भविष्य नजर आता है ?  मैंने उनसे जो बातें कही वे आप सबके लिए भी काम आ सकती हैं इसलिए फेसबुक पर साझा कर रहा हूँ ।
     मैंने कैसर शमीम से कहा कि माकपा को पश्चिम बंगाल में दोबारा पैरों पर खड़ा होना बहुत ही मुश्किल  है। माकपा इस राज्य में समापन की ओर है। इसके कई कारण हैं जिनमें प्रधान कारण है माकपा का लोकतंत्र में हार-जीत के मर्म को न समझ पाना या समझकर अनदेखा करना।
     लोकतंत्र में चुनावी हार-जीत को हमें गंभीरता से लेना चाहिए। जो नेता हार गए हैं या जिन नेताओं के नेतृत्व में पार्टी हारी है वे आम जनता में घृणा के पात्र बन जाते हैं। पश्चिम बंगाल में बुद्धदेव भट्टाचार्य सिंगूर-नंदीग्राम की घटना के बाद घृणा के पात्र बनगए। उनको चुनाव अभियान का अगुआ बनाकर माकपा ने गलती की थी। यह सिलसिला जारी है।
    समूची जनता माकपा से जितनी नफरत करती थी वह नफरत उसने बुद्ध दा में समाहित कर दी ,यह सच है कि निजी तौर पर बुद्धदा बेहतर व्यक्ति हैं,सुसंस्कृत ईमानदार नेता हैं। लेकिन मुश्किल यह है कि वे माकपा और वाममोर्चे के मुख्यमंत्री थे फलतः वे अपने प्रशासन के साथ अपनी पार्टी के अदने से कार्यकर्ता की भूलों के लिए भी जबावदेह थे। यही वजह है कि ईमानदार होने बावजूद वे आम जनता में घृणा के प्रतीक बन गए। यही हाल माकपा के राज्यसचिव विमान बसु का है। वे भी माकपा के घृणा प्रतीक बन गए, इसी तरह निचले स्तर पर अनेक नेता हैं जो आम जनता में घृणा के प्रतीक बन गए हैं। इनको पार्टी हटाने में असफल रही है।यही वजह है कि माकपा लगातार जनाधार खो रही है।
    कोई नेता घृणा प्रतीक क्यों बन जाता है ,यह बात तब तक समझ में नहीं आएगी जब तक हम आम जनता की हार-जीत की भावना को न समझें। लोकतंत्र में माकपा अकेला ऐसा दल है जो घृणा प्रतीकों को पार्टी के शिखर पर बिठाए रखता है। यह अकेला ऐसा दल है जिसकी पोलिट ब्यूरो और केन्द्रीयसमिति में अधिकतर सदस्य वे हैं जो जनता में जाकर कभी चुनाव नहीं लड़े हैं।
   लोकतंत्र में चुनाव न लड़कर लोकतंत्र का संचालन करने की कला सर्वसत्तावादी कला है। इससे नेता का जनता के साथ लगाव के स्तर का पता नहीं चलता। आज वास्तविकता यह है कि माकपा के अधिकांश कमेटियों के मेम्बर या सचिव कहीं से नगरपालिका चुनाव तक जीतकर नहीं आ सकते। ईएमएस नम्बूदिरीपाद या ज्योति बसु इसलिए बड़े दर्जे के नेता थे क्योंकि उनकी जनता मेंजडें थीं।वे जनता में कई बार चुने गए।
     पश्चिम बंगाल और केरल से पार्टी की सर्वोच्च कमेटियों में  अधिकांश नेता चुनाव लड़कर अपनी वैधता को जनता में जाकर पुष्ट करते रहे हैं।
    लोकतंत्र में रहकर यह देखना ही होगा कि माकपा के किस नेता से जनता घृणा कर रही है ? पश्चिम बंगाल के प्रसंग में यह सबसे बड़ी असफलता है कि आम जनता जिन नेताओं से नफरत करती है वे अभी भी पार्टी पदों पर बने हुए हैं। जबकि ऐसे नेताओं को बिना किसी हील-हुज्जत के पार्टी की जिम्मेदारियों से मुक्त करना चाहिए।
     कैसर साहब ने यह भी पूछा था कि क्या वजह है कि माकपा के लोग भाजपा की ओर जा रहे हैं ? मैंने कहा कि इसके कई कारण हैं,इनमें पहला कारण है बंगाली जाति खासकर मध्यवर्गीय बंगाली की मनोदशा। इस वर्ग के लोग परंपरागत तौर पर सत्ताभक्त रहे हैं। उनका किसी विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं है। अंग्रेजों के जमाने से सत्ताभक्त बंगालियों की समृद्ध परंपरा रही है और यह परंपरा आजादी के बाद और भी मजबूत हुई है। वामशासन में मध्यवर्गीय बंगाली वाम के साथ था ,लोग कहते थे कि यह वाम विचारधारा का असर है, मैं उस समय भी आपत्ति करता था और आज भी करता हूँ।
    बंगाली मध्यवर्ग मे बहुत छोटा अंश है जो वैचारिक समझ के साथ वाम के साथ है, वरना ज्यादातर मध्यवर्गीय बंगाली सत्ताभक्त हैं । वे वैचारिकदरिद्र हैं। इस वैचारिकदरिद्र बंगाली मध्यवर्ग में ममता सरकार आने के बाद भगदड़ मची और रातों-रात मध्यवर्ग के लोग कल तक ममता को 'लंपटनेत्री' कहते थे ,अब 'देवी' कहने लगे हैं। मोदी की विजय दुंदुभि ने भी उनको प्रभावित किया है और वे लोग भाजपा की ओर जा रहे हैं। भाजपा की मुश्किलें इससे बढ़ेंगी या घटेंगी,यह मुख्य समस्या नहीं है। मुख्य समस्या है कि मध्यवर्ग  के इस चरित्र को किस तरह देखें ?
      मध्यवर्गीय बंगालियों का एक बड़ा हिस्सा अब सीधे माकपा से दामन छुडाने में लगा है। मैं 2005 से माकपा में नहीं हूँ लेकिन मैं अब तक इस संगठन की यथाशक्ति मदद करता रहा हूँ। इसबार के लोकसभा चुनाव में भी चंदा दिया और और अन्य किस्म की मदद की। लेकिन जो लोग माकपा के स्तंभ कहलाते थे वे दूसरे पाले में नजर आए।
    माकपा के नेताओं में यह विवेक ही नहीं है कि वे लोकतांत्रिक भावनाओं, मूल्यों और अनुभूतियों के राजनीतिकमर्म को समझें। मैं विगत 15सालों से लगातार लिख रहा हूँ कि माकपा के नेतृत्व में वे लोग आ गए हैं जिनसे जनता नफरत करती है। मेरी बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया क्योंकि वे चुनाव जीत रहे थे। वे जब चुनाव जीत रहे थे तब भी आम जनता में नेताओं का एक तबका घृणा का पात्र था और आज भी है। इनमें विमान बसु और बुद्धदेव का नाम सबसे ऊपर है।
    आम जनता में माकपा के नेताओं के असंवैधानिक क्रियाकलापों के कारण घृणा पैदा हुई है और इस अनुभूति को माकपा किसी तरह कम नहीं कर सकती।
     माकपा के पराभव का एक अन्य कारण है कि माकपा के वोटबैंक में तमाम किस्म के स्थानीय प्रतिक्रियावाद का शरण लेना। वोटबैंक राजनीति के कारण लोकल प्रतिक्रियावाद के खिलाफ कभी संघर्ष नहीं चलाया गया। लोकल प्रतिक्रियावाद के तार बाबा लोकनाथ से लेकर तमाम पुराने समाजसुधार संगठनों के सदस्यों के बीच में फैले हुए हैं। इसमें मुस्लिम प्रतिक्रियावाद भी शामिल है। तमाम किस्म की विचारधाराओं के साथ रमण करने वाली माकपा आजकल इन तमाम किस्म के प्रतिक्रियावादी नायकों के संगठनों के समर्थन के अभाव में अधमरी नजर आ रही है।इसके बावजूद एक तथ्य साफ है कि पश्चिम बंगाल में आम जनता में प्रतिक्रियावाद मजबूत हुआ है। भोंदूपन, अंधविश्वास और प्रतिगामिता में इजाफा हुआ है। इसका राज्य के वामदलों के विचारधारात्मक क्रियाकलापों की असफलता से गहरा संबंध है।
     प्रतिक्रियावाद आसानी से किसी भी विचारधारा में शरण लेकर रह सकता है और मौका पाते ही वो भाग भी सकता है या पलटकर हमला भी कर सकता है। मैं एक वाकया सुनाता हूँ। एक कॉमरेड थे बडे ही क्रांतिकारी थे एसएफआई के महासचिव या ऐसे ही पद पर थे ,राज्यसभा के लिए नामजद किए गए, हठात कुछ महिने बाद पाया गया कि वे भाजपा में  चले गए। मैंने पूछा कि भाईयो यह कैसी मार्क्सवादी शिक्षा है जो सीधे भाजपा तक पहुँचा देती है ? किसी के पास जबाव नहीं था। कहने का आशय यह कि माकपा की लीडरशिप से लेकर नीचे तक अनुदारवाद और कट्टरतावाद बड़ी संख्या में सदस्यों में रहा है। यही अनुदारवाद अब खुलकर भाजपा की ओर जा रहा है।
    एक अन्य चीज वह यह कि अनुदारवाद एक किस्म सामाजिक अविवेकवाद है जिसमें अपराधीकरण की प्रवृत्ति होती है।यह अचानक नहीं है कि माकपा का बड़े पैमाने पर अपराधीकरण हो गया और कोई देखने को तैयार नहीं है।
     मैं जब 1989 में पश्चिम बंगाल आया था तो बड़ी आशाओं के साथ आया था, पार्टी ब्रांच में बात हो रही थी कि कौन कहां काम करेगा, सब मेम्बर अपने तरीके से बता रहे थे कि मैं वहां काम करूँगा,यहाँ काम करुँगा, अधिकतर लोग अपने –अपने मुहल्ले में काम करने के लिए कह रहे थे, मैंने भी कहा कि मैं अपने मुहल्ले में पार्टी से जुड़कर काम करूँगा। उनदिनों कॉं.अनिल विश्वास पार्टी ब्रांच संभालते थे, वे यहां के मुख्यनेताओं में से एक थे, बाद में राज्य सचिव बने, पोलिट ब्यूरो में रखे गए। वे तुरंत बोले कि तुमको मुहल्ले में काम नहीं करने देंगे, मैंने पूछा क्यों ,वे बोले नीचे पार्टी में गुण्डे भरे हैं तुम देखकर दुखी होओगे और पार्टी से मोहभंग हो जाएगा।
   उल्लेखनीय है मेरी  शिक्षा की ब्रांच थी और उसमें सभी मेम्बर नामी लोग थे और लोकल थे,मैं अकेला बाहर से गया था,मेरे लिए अनिल विश्वास का बयान करेंट के झटके की तरह लगा, मैं काफी दिनों विचलित रहा और उन लोगों ने मुझे लोकल स्तर पर पार्टी से दूर रखा।
    कहने का आशय यह कि पार्टी के नेता जानते थे कि निचले स्तर पर किस तरह के अपराधी घुस आए हैं। इस घटना के कुछ दिन बाद कोलकाता एयरपोर्ट पर मेरी प्रकाश कारात से मुलाकात हुई हम दोनों एक ही फ्लाइट से दिल्ली आए, प्रकाश ने पूछा यहां की पार्टी कैसी लग रही है, मैंने अनिल विश्वास वाली बात कही तो वो चौंका लेकिन उसके पास मेरे सवालों का जबाव नहीं था ।मेरा सवाल था कि माकपा ने जान-बूझकर जनपार्टी बनाने के चक्कर में अपराधियों को पार्टी में क्यों रख लिया है ?  
    मेरे कहने का आशय यह है कि माकपा में अनुदारवाद, कट्टरतावाद और अपराधीकरण ये तीनों प्रवृत्तियां लंबे समय से रही हैं और पार्टी नेतृत्व इनसे वाकिफ रहा है। इन तीनों प्रवृत्तियों को पूंजीवाद के खिलाफ घृणा फैलाने की आड़ में संरक्षण मिलता रहा है।
     यह खुला सच है कि पश्चिम बंगाल में माकपा सबसे बड़ा दल रहा है और उसने पूरे राज्य में आम जनता के जीवन के हर क्षेत्र में वर्चस्व बनाकर रखा। राज्यतंत्र को पार्टीतंत्र में रुपान्तरित कर दिया, अब वही माकपा अपने बनाए ताने-बाने और ढाँचे से पीड़ित है क्योंकि सरकार में ममता आ गयी। ममता को विरासत में ऐसा तंत्र मिला जिसमें पार्टीतंत्र की जी-हुजूरी करने की मानसिकता पहले से ही भरी हुई थी।
        पश्चिम बंगाल में भाजपा के वोट बढ़ने का एक और बड़ा कारण है कि पश्चिम बंगाल के मूल निवासी बंगालियों का एक बड़ा हिस्सा जो कल तक माकपा के साथ था वह तेजी से भाजपा की ओर जा रहा है। साथ ही हिन्दीभाषी लोग एकमुश्तभाव से भाजपा की ओर जा चुके हैं। इन दोनों समूहों को भाजपा की ओर मोडने में बहुसंख्यकवाद और हिन्दीवाद ने मदद की है।इसबार के चुनाव में भाजपा ने बहुसंख्यकवाद और हिन्दीवाद का घर –घर मोदी प्रचार अभियान में इस्तेमाल किया है।                    

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