रविवार, 15 जून 2014

औरत के लिए सुरक्षित जगह की तलाश


औरत के लिए कौन सी जगह सबसे ज्यादा सुरक्षित है ? क्या वह घर में सुरक्षित है ? खेत में सुरक्षित है ? थाने में सुरक्षित है ? सुप्रीमकोर्ट के वकील के साथ सुरक्षित है ? विश्वविद्यालय-कॉलेज में सुरक्षित है ? अस्पताल में सुरक्षित है ? जी,वह इनमें से सब जगह बार –बार हमलों का शिकार हुई है।
    औरत की सुरक्षा का सवाल जब भी उठा है तो हमने कड़े कानून की बातें की, जल्द न्याय की बातें की  ,उसके लिए संसाधनों की बातें की ? लेकिन फिर भी यह पाया कि औरत सबसे ज्यादा असुरक्षित है। अदालतें थक  चुकीहैं ,नेताओं की जुबान थक गयी है, जुलूस निकालने वाले थक गए हैं ,लेकिन औरत के लिए एक सुरक्षित स्थान अभी तक तय नहीं कर पाए हैं। औरत असुरक्षित क्यों है इसके कारणों की बुनियाद को टटोला जाना चाहिए।
     औरत के लिए सुरक्षित जगह फिलहाल तो कहीं पर भी नजर नहीं आती। इसका कारण है कि हम औरत पर बातें नहीं कर रहे ,हम उसकी सुरक्षा पर बातें कर रहे हैं। औरतों के बारे में बातें करते ही फब्तियां कसनी आरंभ हो जाती हैं। औरतों के सवालों और खासकर सुरक्षा के सवाल का संबंध सुरक्षा के अभाव से नहीं औरत के प्रति हमारे नजरिए से जुड़ाहै। हम औरत को किस रुप में देखते हैं और औरत स्वयं को किस रुप में देखती है,ये दोनों सवाल एक-दूसरे के पूरक हैं। औरत के बारे में हमें स्त्री-पुरुष दोनों के नजरिए की छानबीन करनी चाहिए। औरत पर बातें करते समय किसी एक के नजरिए पर ही नजर नहीं रखें बल्कि दोनों ओर नजर रखें।
     औरत के प्रति मन में जो भाव हैं उसी से तय होगा कि औरत के जीवन में किस तरह की सुरक्षा है। खिड़कियां बंद करके औरत को कभी सुरक्षा नहीं मिल सकती। हमें घर और दिमाग की खिड़कियां खोलनी होंगी। औरत के स्टीरियोटाइप सोच से बाहर निकलकर यथार्थ रुप में स्त्री के बारे में सोचना होगा। औरत के बारे में जहां एक ओर कृत्रिम औरत की इमेज से बाहर निकलने की जरुरत है वहीं दूसरी ओर पूर्वाग्रहों के आधार पर औरत को देखने की परंपरा और आदतों को भी त्यागने की जरुरत है। औरत को देखते-देखते हमारे मन में औरत का परंपरागत रुप आदत की तरह घर कर बैठा है । इससे निकलने की जरुरत है।
    औरत पर हमलों की शुरुआत पहले भाषा में होती है। वाचिकतौर पर हम पहले हमले करते हैं और वाचिक हमले बंद हों।ये हमले कायिक हमलों से ज्यादा खतरनाक और पीडादायक होते हैं। चालू जुबान में कहें तो सुनो औरत पर वाचिक हमले बंद करो। ये हमले करते-करते समूचे समाज की मनोदशा ऐसी बना दी है कि औरत पर हमले हमें रुटिन और स्वाभाविक लगने लगे हैं। औरत बदलने के पहले हमें औरत के प्रति अपनी भाषा बदलनी होगी। बोलने का लहजा बदलना होगा। इसके लिए सरकार बदलने की नहीं जुबान बदलने की जरुरत है।

     जो लोग औरत की सुरक्षा के नाम पर बड़ी बड़ी बातें कहते हैं वे सिर्फ एक बार भाषा बदल दें। स्थितियां तेजी से बदलने लगेंगी। औरत को पाना है उसे सामाजिक सुरक्षा देनी है तो पहले उसे भाषा में पाने की कोशिश करो। दूसरी चीज है जो हमें करनी होगी वह है औरत की निजता या प्राइवेसी की रक्षा। हमारे समाज में हर आदमी औरत की निजता पर हमले कर रहा है। औरत की निजता पर हमले घर में हो रहे हैं और फिर बाहर दूसरे ढ़ंग से औरत को बेइज्जत किया जा रहा है। हम औरतों के दायरों में जाना बंद करें। हमने औरत को इस कदर घेर रखा हैकि उसका कोई निजी दायरा या प्राइवेसी नहीं बची है।       

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