सोमवार, 3 जून 2013

फेसबुक ,डिजिटल मानवाधिकार और नार्सिज्म



मैकलुहान के शब्दों में कहें तो मनुष्य तो मशीनजगत का सेक्स ऑर्गन है। डिजिटल मानवाधिकार इससे आगे जाता है और गहराई में ले जाकर मानवीय शिरकत को बढ़ावा देता है। हिन्दी के जो साहित्यकार फेसबुक पर हंगामा मचाए हुए हैं वे गंभीरता से सोचें कि सैंकड़ों की तादाद में जो लाइक आ रहे हैं वे कम्युनिकेशन को गहरा बना रहे या उथला ?
कम्युनिकेशन गहरा बने इसके लिए जरूरी है डिजिटल रूढ़िवाद से बचें। डिजिटल रूढ़िवाद मशीन प्रेम पैदा करता है,तकनीक की खपत बढ़ाता है । लेकिन कम्युनिकेशन में गहराई नहीं पैदा करता। डिजिटलरूढ़िवाद की मुश्किल है कि उसके कान नहीं हैं। वह इकतरफा बोलता रहता है,वह सिर्फ अपनी कही बातें ही सुनता है अन्य की नहीं सुनता। मसलन्, मैंने यह कहा,मैंने यह किया,मैं ऐसा हूँ,मैं यहां हूँ,मैं यह कर रहा हूँ,वह कर रहा हूँ आदि।
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हिन्दी के फेसबुकरूढ़िवादी जब फोटो के जरिए अभिव्यक्ति का जश्न मनाते हैं तो वे भूल जाते हैं कि वे वैचारिक तौर पर क्या कर रहे हैं। फेसबुक या किसी भी डिजिटल मीडियम का गहरा संबंध मानवीय क्रियाकलापों और संचार से है। फेसबुक पर लाइक या फोटो लगाने के बहाने हम अपने भाव-भंगिमाओं और गतिविधियों का बतर्ज मैकलहान मशीनीकरण करते हैं,इस क्रम में पेश की गयी हर चीज अपना विलोम बनाती है। हमें मैकलुहान की यह बात याद रखनी चाहिए-
All media work us over completely. They are so persuasive in their personal, political, economic, aesthetic, psychological, moral, ethical, and social consequences that they leave no part of us untouched, unaffected, unaltered. The medium is the massage. Any understanding of social and cultural change is impossible without a knowledge of the way media work as environments .
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हिन्दी के बौद्धिकों में एक बड़ा वर्ग है जो अभी मानवाधिकारचेतना को महत्वहीन मानता है। उनमें संयोग से उन लेखकों की संख्या भी अच्छी खासी है जो साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हैं। नया दौर डिजिटल ह्यूमनिज्म का है। वे लोग जो मानवाधिकारों न समझे वे डिजिटल मानवाधिकार को समझेंगे इसमें संदेह है। मेरा इशारा उन लेखकों की ओर है जो हिन्दी में है और फेसबुक पर आएदिन फोटोबाजी करते रहते हैं। लेकिन मानवाधिकारों के प्रति कभी नहीं बोलते। डिजिटल मानवाधिकार विलासिता के लिए नहीं है। फेसबुक पर सिर्फ फोटो लगाना,आत्मगान करना विलासिता है,हिन्दी में इसे फेसबुक रूढ़िवाद कहते हैं।
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मार्शल मैकलुहान ने लिखा है हम ऐसे युग में हैं जहां व्यापार ही हमारी संस्कृति है । यह वह युग है जहां संस्कृति ही हमारा व्यापार है।
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फेकबुक कम्युनिकेशन के दौर में सामाजिक-सांस्कृतिक त्रासदियां सबसे ज्यादा घट रही हैं लेकिन हिन्दी फेसबुक में यह सब नदारत है। अति-कनेक्टविटी वालों का यथार्थजीवन से अलगाव है। दूरसंचार कम्युनिकेशन पर बढ़ती निर्भरता ने सामाजिक जीवन के अर्थपूर्ण संपर्क को तोड़ दिया है। इसके कारण टाइम और स्पेस का शासन भी खत्म हो गया है। अब हम बिना जाने तत्क्षण राय देने लगे हैं,लाइक करने लगे हैं।अनजान लोगों की लाइकलाइन पगलाती रहती है।
अनजान का लाइक अब पैमाना है लोकप्रियता का। अब लाइक करने वाला भी लेखक बन गया है ,उसे लेखक के बराबर दर्जा मिल गया है। फलतःलेखक और लाइककर्ता दोनों मित्र हो गए हैं। अब हम लेखक के आन्तरिक और निजी विवरणों में ज्यादा रूचि लेने लगे हैं।
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फेसबुक टाइमलाइन की खूबी है कि यूनीफॉर्म,कंटीनुअस और कनेक्टेड है। कथाकार उदयप्रकाश जैसे नार्सिस्ट लोग (फेसबुक पर लिखी उनकी पोस्टों के संदर्भ में) इस तत्व की जानते हुए अनदेखी करते रहे हैं।
एक सम्मानित लेखक के द्वारा किया गया नार्सिज्म बहुत खतरनाक होता है इसे हम हिटलर के प्रसंग में अनेक लेखकों में देख चुके हैं।
नार्सिज्म यानी आत्ममुग्धता और अहर्निश असत्य का प्रचार। हिन्दी लेखकों को इससे बचना चाहिए। फेसबुक पर इस बात को लिखना इसलिए जरूरी लगा कि क्योंकि फेसबुक पर यह नार्सिज्म खूब चल रहा है। किसी के भी बारे में अनाप-शनाप लिखने की बाढ़ आई हुई है। इसमें एक पहलू वह भी जिसमें व्यक्ति अपने बारे खूब काल्पनिक बातें लिखता है। इस तरह की काल्पनिक और बेसिपैर की बातें लिखना नार्सिज्म का वैचारिक धर्म है।
मसलन् किसी के फोटो का दुरूपयोग,विकृतिकरण,कैरीकेचर,पर्सनल हमला करना,किसी को गलत उद्धृत करना, विषयान्तर करके निजी जीवन पर हमला करना, किसी के नाम से असत्य बोलना आदि फेसबुक पर नार्सिज्म की सामान्य प्रवृत्तियां हैं और इसमें हमारे नामी और सुधीजन बाजी मारे हुए हैं। नार्सिज्म वैचारिक एड्स है।
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फेसबुक टाइमलाइन में आप मानवीय जीवन के अनंतरूपों को देख सकते हैं। यहां पर विभिन्न किस्म की घटनाओं जैसे निजी अनुभव,निजी राय,जन्मदिन,मृत्यु दिवस,शादी,ब्याह, तलाक, दलीय नीतियां आदि को देख सकते हैं।
फेसबुक में अर्थवान और अर्थहीन दोनों ही किस्म की चीजें देखते हैं। फेसबुक एक तरह से तयशुदा संभावित समय और स्थान है जहां पर कम्युनिकेट कर सकते हैं।यहां वातावरण अदृश्य है।इसकी संरचनाएं और बुनियादी नियम पर्वेसिव हैं।सतह पर यह सहज कम्युनिकेशन का मीडियम है। लेकिन यह सीधे व्यक्ति के अन्तर्मन और धमनियों या नसों को प्रभावित करता है। हमारे हिन्दी नार्सिस्ट इस बुनियादी तथ्य को नहीं समझते और अंट-शंट लिखते रहते हैं। अंटशंट लेखन,आत्मश्लाघा, आत्मप्रशंसा कम्युनिकेशन में पर्वर्जन है।नार्सिज्म है।
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फेसबुक संवाद का माध्यम है,संवाद के आरंभ होने का अर्थ है प्रौपेगैण्डा का अंत। फेसबुक पर किसी भी विचारधारात्मक सवाल पर विचार विमर्श कम्युनिकेशन में रूपान्तरित हो जाता है। वह प्रौपेगैण्डा नहीं रहता।
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हिन्दी का एक बड़ा लेखक फेसबुक पर नार्सिज्म के प्रचारक के रूप में काम कर रहा है,उसके वॉल पर जाएं तो आपको भारत के कम और निजी फोटो ज्यादा नजर आएंगे।बिजनेस स्टैंडर्ड के अनुसार  विगत 12सालों में भारत में महिलाओं की संख्या में गिरावट आई है औरत आत्मनिर्भर होने की बजाय घरों में कैद हुई हैं लेकिन हिन्दी लेखकों को यह स्त्रीयथार्थ नजर ही नहीं आता।  12वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान कृषि क्षेत्र के रोजगार में 1.4 करोड़ की कमी आई। पांच साल की इस अवधि में कुल रोजगार महज 30 लाख ही बढ़े।वर्ष 2004-05 से 2009-10 के दौरान विनिर्माण क्षेत्र में 50 लाख रोजगार गंवाए गए।
हिन्दी के लेखकों को पंचवर्षीय योजनाएं कभी ध्यान नहीं खींचतीं,वे पुरस्कार,किताब मार्केटिंग ,सरकारीपद,नेता की चमचागिरी,हिन्दी प्रोफेसर बन पाने और न बन पाने या प्रोफेसर से समीक्षा लिखवाने में ही सारी शक्ति खर्च करते हैं।
फेसबुक पर भी नामधारी लेखक देश की गंभीर समस्याओं पर बहस नहीं चलाते बल्कि नार्सिज्म का प्रचार कर रहे हैं। वे फेसबुक पर नार्सिज्म के नायक हैं और कहानी में यथार्थवादी -जादुई यथार्थवादी हैं । अब कल्पना कीजिए कि नार्सिज्म की सेवा करके फेसबुक पर ये नामधारी लेखक किस विचारधारा की सेवा कर रहे हैं? फेसबुक पर हिन्दीलेखकों और पाठकों में आत्मप्रशंसा और आत्ममुग्धता कम हो और देश की समस्याओं पर ज्यादा बातें हों तब ही फेसबुक को एक सार्थक मीडियम बना सकते हैं।
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भारत का मीडिया इस अर्थ में अ-मानवीय है कि वह रीजन,रेशनेलिटी और जीवन के सारवान सवालों को बुनियादी तौर पर नहीं उठाता। वह मनुष्य और पशु में भेद नहीं जानता। वह विश्वसनीय ज्ञान और सूचना का स्रोत अभी तक नहीं बन पाया है। वहां बार-बार नियंत्रण के विभिन्न रूपों का अभ्यास किया जाता है। वहां मोटे तौर पर विज्ञापनदाता,राजनीतिज्ञ और चोंचलबाजों की गणित और नियंत्रण का ख्याल रखा जाता है। अप्रत्यक्षतौर पर वे राज्य-कारपोरेट घरानों के भोंपू की तरह काम करते हैं। मानवीय और गैर-मानवीय जीवनशैली के पहलुओं में अंतर करने की तमीज अभी तक पैदा नहीं कर पाए हैं।
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भारत का मीडिया इस अर्थ में अ-मानवीय है कि वह रीजन,रेशनेलिटी और जीवन के सारवान सवालों को बुनियादी तौर पर नहीं उठाता। वह मनुष्य और पशु में भेद नहीं जानता। वह विश्वसनीय ज्ञान और सूचना का स्रोत अभी तक नहीं बन पाया है। वहां बार-बार नियंत्रण के विभिन्न रूपों का अभ्यास किया जाता है। वहां मोटे तौर पर विज्ञापनदाता,राजनीतिज्ञ और चोंचलबाजों की गणित और नियंत्रण का ख्याल रखा जाता है। अप्रत्यक्षतौर वे राज्य-कारपोरेट घरानों के भोंपू की तरह काम करते हैं। मानवीय और गैर-मानवीय जीवनशैली के पहलुओं में अंतर करने तमीज अभी तक पैदा नहीं कर पाए हैं।
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भारत और यूरोप के मीडिया में एक अंतर है। यूरोप में मानवोत्तर दौर की ओर मीडिया प्रयाण कर रहा है ,वहां सारवान मानवीय मसले उठाए जा रहे हैं।मानवीय त्रासदी और मानवाधिकारों के सवालों पर ध्यान दिया जा रहा है। भारत में इसके उलट अमानवीय ,बोगस,मृत विषयों को व्यापक कवरेज दिया जा रहा है।
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माओवादी हिंसा प्रभावित इलाके हमारे देश में कल्याणकारी पूंजीवादी राज्य की असफलता के ध्रुवतारे हैं। इनइलाकों में माओवादियों-सरकार और कारपोरेट घरानों के द्वारा सार्वजनिक संपदा की इस -उस तरह खुली लूट हो रही है। जमकर हिंसाचार हो रहा है। एक तरह से ये इलाके कत्लघर बने हुए हैं।
सार्वजनिक संपदा की लूट को तमाशबीन की तरह देखना मध्यवर्ग की प्रवृत्ति रही है।वे इवेंट में मजा लेते हैं।फलतः मीडिया इस इलाके की घटनाओं को इवेंट बनाकर पेश करता रहा है।
आयरनी यह है कि माओवादीनेता आदिवासी संपदा संरक्षण के नाम पर अन्य किसी भी दल को वहां घुसने नहीं देते। अन्यदलों के नेताओं को इन इलाकों में जाने की फुर्सत नहीं है। यहां तककि मुख्यमंत्री को भी समय नहीं मिलता कि वो इन इलाकों में जाए और जनता की सुने। दलविहीन,संसाधन-सुविधाविहीन और तंत्रविहीन समाज के रूप में ये इलाके लूट और कत्ल के केन्द्र बन गए हैं। सैंकडों टीवी चैनलों और इंटरनेट क्रांति के बाबजूद इन इलाकों का निरंतर जमीनी कवरेज अभी अदृश्य बना हुआ है।
मुझे याद है विनायकसेन की रिहाई के समय एकमात्र कईदिन तक मीडिया ने प्रधान कवरेज दिया था। उसके बाद माओवादी हिंसा प्रभावित इलाकों का कवरेज हाशिए का कवरेज रहा है।
मीडिया की या जिम्मेदारी है कि वह सारवान और सारहीन खबर में अंतर को बार बार सामने लाए। माओवादी हिंसा से अनेक मौत,अनेक मसले,नीतियां,प्रशासन और राजनीतिकदलों का संबंध है और सबसे बड़ा संबंध आदिवासियों की जिन्दगी का है। उनके जीवन पर केन्द्रित होकर अहर्निश कवरेज जब तक नहीं आएगा केन्द्र-राज्य सरकारों के ऊपर दबाब पैदा नहीं होगा। सवाल यह है कि क्या मीडियावाले आदिवासी इलाकों में जाने को तैयार हैं ? क्या उनके पास जमीनी हकीकत को बताने वाले संवाददाता हैं ?जागो बंधु जागो।
राजनीतिकदलों, मीडिया और बुद्धिजीवियों में एक प्रवृत्ति नजर आई है कि वे छत्तीसगढ़ में माओवादियों और पुलिसबलों के हिंसाचार पर जमकर कईदिनों तक न तो बहस करते हैं और न उसे प्रधान एजेण्डा बनाकर रखते हैं। एक तरह से देखें तो दामिनीरेपकांड के बराबर भी कभी प्रधान एजेण्डा इस इलाके के हिंसाचार को नहीं बनाया गया। मैनस्ट्रीम राष्ट्रीय मीडिया जब तक इस हिंसाचार को प्रमुख एजेण्डा नहीं बनाता तब तक समस्या की ओर ध्यान नहीं जाने वाला। अभी भी क्रिकेटसट्टाकांड महान खबर है। बदलो मित्रो ,बदलो। छत्तीसगढ़ के सरकारी-माओवादी हिंसाचार को प्रधान एजेण्डा बनाओ।
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छत्तीसगढ़ में माओवादियों द्वारा कांग्रेसीनेताओं पर किया गया हमला लोकतंत्र पर हमला है। यह बात सोनिया गांधी ने सही कही है। लेकिन भाजपा ने इसे युद्ध की घोषणा कहा है। लगता है भाजपावाले युद्ध की परिभाषा भी नहीं जानते। युद्ध कहकर उन्माद पैदा किया जा सकता है लेकिन जनता का दिल नहीं जीता जा सकता। भाजपा आज तक बस्तर आदि इलाकों में आम जनता का दिल क्यों नहीं जीत पायी ,जबकि उनके पास पूर्ण बहुमत है।
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केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश का मानना है कि माओवादी आतंकवादी हैं। यदि ऐसा है तो कम से कम आतंकियों का समर्थन करने वाली बेवसाइट सरकार बंद करे। उन लोगों पर पाबंदी लगाए जो माओवादियों का समर्थन करते हैं।
मेरी नजर में माओवादी आतंक फैला रहे हैं ,हत्याएं कर रहे हैं,अन्य समाजविरोधी गतिविधियां कर रहे हैं,लेकिन आतंकी कहना सही नही नहीं है।
माओवादियों को यदि केन्द्र का एकमंत्री आतंकवादी मानता है तो केन्द्र सरकार को उनको आतंकवादी संगठन की केटेगरी में वर्गीकृत करके प्रतिबन्धित संगठन घोषित कर देना चाहिए।
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टीवी चैनलों ने माओवादी हिंसा में मारे गए लोगों के अंतिम संस्कार का लाइव प्रसारण क्यों नहीं किया ? क्या आपलोगों ने किसी चैनल पर अंतिम संस्कार का लाइव प्रसारण देखा ?
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माओवादियों और आतंकियों को कम करके आंकने और उनके द्वारा पैदा किए गए खतरे की अनदेखी करने का दुष्परिणाम है कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का समूचा प्रमुख नेतृत्व माओवादियों के हाथों मारा गया। आतंकवादियों के प्रति तदर्थभावबोध मौत के मुँह में ले जा सकता है।
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भारतीय मीडिया में कु-सूचना तेजी से चलती है ,उनके लिए सत्य और तथ्य प्रासंगिक नहीं रह गए हैं।
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