मंगलवार, 25 जून 2013

फेसबुक विचार वैतरणीः नव्य उदारीकरण के दुष्परिणाम



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डिजिटल क्रांति ने सीडी-डिस्क-कैसेट आदि के क्षेत्र में जो तबाही मचायी है उसके परिणाम आने लगे हैं। वीडियोकॉन समूह के प्लैनेट एम की बिक्री में गिरावट आई है और राजस्व में उसकी हिस्सेदारी कुछ साल पहले के 40 फीसदी से घटकर बमुश्किल एक चौथाई रह गई है। अगले साल तक यह घटकर 10 फीसदी रह जाएगी। रहेजा समूह के क्रॉसवर्ड के साथ भी यही किस्सा है। उसके राजस्व में संगीत की हिस्सेदारी बमुश्किल दो फीसदी रह गई है।(बिजनेस स्टैंडर्ड)
यानी नव्य उदार संगीत अब बेसुरा हो गया है।
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डिजिटल क्रांति ने सीडी और कैसेट उद्योग को बर्बाद कर दिया है। एचएमवी-ईएमआई रिकॉर्ड लेबल के स्वामी संजीव गोयनका के आरपीजी समूह ने अपने संगीत क्षेत्र के खुदरा कारोबार को बंद कर दिया है।
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उलटे विकास मॉडल का आलम यह है कि शहरों में पैदल चलने वालों के लिए फुटपाथ नहीं बचे हैं। सवाल यह है कि हमारे विकास मॉडल में फुटपाथ क्यों नहीं आते ?
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पिछले दो साल के दौरान भारत में बेरोजगारी 10.2 फीसदी की दर से बढ़ी है। 1 जनवरी 2012 को देश में बेरोजगारों की संख्या 1.08 करोड़ थी जबकि जनवरी 2010 में यह आंकड़ा 98 लाख था।
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कविता या साहित्यविधाओं का जासूसी एजेंसी से संबंध नहीं होता.नजरिए का संबंध होता है।लक्ष्यों का संबंध होता है। कमलेश के लेखन को खांचे बनाकर नहीं देखना चाहिए। समग्रता में देखना चाहिए। मैं तो इतना ही समझ पाया हूँ कमलेश को खांचों में बांटकर देखा जा रहा है। समग्रता में उनके नजरिए,एक्शन ,सृजन,आचरण,जीवनशैली और विचारधारा सबको मिलाकर देखना चाहिए। महज कवि रूप में देखना उपयोगितावाद है और यह अमेरिकीजीवन दर्शन का मूलाधार है।
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खबर है कि विश्व में अमेरिकी जासूसी को नंगा करने वाला एडवर्ड स्नोवदेन हांगकांग छोड़कर मास्को चला गया है। क्या यह नए शीतयुद्ध का आरंभ है ?
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कमलेश की परायीदृष्टि का आदर्श नमूना है यह वाक्य- "भारत में सभ्यता मृत पड़ी हुई है। भारतवर्ष के पढे-लिखे अपने अज्ञान में ही इतने अभिमानी हो रहे हैं कि उन्हें अपने चारों ओर पड़ी हुई यह लाश दृष्टिगोचर नहीं हो होती। " कमलेश पर हिन्दी में जो लोग माला चढ़ा रहे हैं और उनका भारतज्ञान पर फिदा हैं उनको इन वाक्यों को पढ़ना चाहिए और इसके गंभीर निहितार्थों को समझना चाहिए। कमलेश का भारतप्रेम देखें उनको भारत में सभ्यता मृत नजर आ रही है। बलिहारी अमेरिकीदृष्टि की।यह दृष्टिकोण सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का आदर्श नमूना है जिसमें अपनी भाषा,अपनी सभ्यता,संस्कृति आदि मृत लगती है या हेय लगती है। कहने की जरूरत नहीं है कि सीआईए का सांस्कृतिक साम्राज्यवाद से चोली-दामन का रिश्ता है।
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भारत का सबसे शिक्षित राज्य है केरल और इस राज्य में अपराध समूचे भारत में सर्वोच्च पर है। समूचे भारत में अपराधदर 196.7लोग प्रति एकलाख नागरिकों पर है,,जबकि केरल में 455.8 लोग है जो राष्ट्रीय अपराध दर से भी ऊपर है।
भारत की अपराध राजधानी है कोच्ची,वहां पर अपराधदर प्रति लाखपर 817.9है उसके बाद कोलम का स्थान है,यहां की अपराधदर है 637.3.लोग है .
क्या कारण है केरल जैसा शिक्षित,जागरूक,समाजवादीचेतना संपन्न राज्य अपराधदर में भी सबसे ऊपर चला गया ?
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स्काइप ने अमेरिकी प्रशासन की मदद करने वाला साइबर कार्यक्रम विकसित किया है जिसके तहत स्काइप पर होने वाले कम्युनिकेशन पर अमेरिकी प्रशासन जासूसी कर पाएगा।
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भारत सरकार ने अमेरिका की तर्ज पर ही बिना बताए,अदालत की परमीशन के बिना नागरिकों के फोन सुनने,ईमेल पढ़ने,एसएमएस पढ़ने आदि का पूरा सिस्टम खड़ा कर लिया है और भारत में इंटरनेट से लेकर मोबाइल तक का सारा कम्युनिकेशन सरकार की निगरानी के दायरे में रहेगा। कहां सोए हैं मानवाधिकारों के रखवाले संगठन और राजनीतिकदल ?
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हिन्दी के बुढ़ऊ धार्मिक (पूर्व फर्नाण्डीजपंथी सोशलिस्ट) लेखक कमलेश में अचानक पैदा हुई सीआईएचेतना अवचेतन के गर्भ से पैदा नहीं हुई है,यह सचेत सीआईए प्रचार अभियान का हिस्सा है। यह अकस्मात् नहीं है कि इसे रजा फाउण्डेशन की पत्रिका ने छापा है, रजा फाउण्डेशन के कर्ता हैं अशोक बाजपेयी,जो अमेरिकीपरस्त कलाकर्म के लिए हिन्दी में पहले ही यश कमा चुके हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में हिन्दी अकेली भाषा है जहां आज भी अमेरिकाविरोधी स्वर प्रमुख है और इस चेतना को प्रभावित करने के लिए कमलेश-उदयन बाजपेयी-अशोक बाजपेयी का यह सामूहिक प्रयास है। इसतरह के हमलों का मुँहतोड़ जबाब देने की जरूरत है।
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कुलदीपजी, रामस्वरूप,वह व्यक्ति है जो भारत-चीन आदि के लिए एक साथ जासूसी करता था और रॉ के लिए जासूसी करता था, मुझे याद है वह जब दिल्ली में गिरफ्तार किया गया तो उसके घर से 1 ट्रकभर कर भारत सरकार की गोपनीय फाइलें निकली थीं और वह सरकारी कर्मचारी को एक बोतल,एक औरत और 2हजार रूपये की घूस देकर भारत सरकार के किसी भी मंत्रालय के गोपनीय दस्तावेज सीआईए और चीन आदि देशों को मुहैय्या कराता था और यही रामस्वरूप दिल्ली में केजीवी के खिलाफ पोस्टरबाजी संगठित करता था और सीआईए के प्रचार अभिियान संगठित करता था। मैंने अपने जेएनयू एसएफआई अध्यक्ष के नाते कई पर्चे उस जमाने में इस व्यक्ति के नाम जारी किए थे।
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कमलेश का लेखन चंडूखाने की चिन्ताओं की देन है वहां तथ्य और सत्य ढ़ूंढ़ना सही नहीं होगा।आपने सही जगह रेखांकित किया है। इससे भी बड़ी बात यह है कि इस पत्रिका के संपादकको संपादकीय विवेक नहीं है ,उसने तथ्यों की जांच किए बिना इस तरह की सूचनाएं प्रकाशित करके लघु पत्रिकाओं की परंपरा को कलंकित किया है। लगता है अशोक बाजपेयी के मालगोदाम में सिर्फ भूसा ही भरा है।
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अमेरिका में रहने के दुख-4-

अमेरिका में हैं और सत्तासुख चाहते हैं तो ईसाइ फंडामेंटलिज्म और अन्य किस्म के फंडामेंटलिज्म के साथ याराना रखना होगा। खासकर अमेरिका स्थित ईसाइ फंडामेंटलिस्टों के सामने नतमस्तक करके रहना होगा।
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अमेरिका में रहने के दुख-3-

अमेरिकी सिस्टम के नेता हैं तो गरीबों का भाषण में जिक्र न आए,चुनाव में बोल सकते हैं लेकिन बाद में गरीब का नाम लेना भी गुनाह है।मजदूरवर्ग पदबंध तो एकदम प्रतिबंधित है।
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अमेरिका में रहने के दुख-2-

यदि अमेरिका के राष्ट्रपति हैं तो देश को एक बड़ा युद्ध सौगात में देकर जाएं जिससे हथियार बनाने वाली कंपनियां खुश रहें और आपके दल का ख्याल रखें। युद्ध नहीं तो राष्ट्रपति पद नहीं।
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अमेरिका में रहने के दुख-1-

यदि आप मुसलमान हैं और आपका नाम मुस्लिम परंपरा से आता है तो तय है अमेरिकी पुलिस-जासूसी एजेंसियां आप पर 24 घंटे निगरानी रखेंगी।
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अमेरिकी मिथ-6-

अमेरिका के बारे में यह मिथ है कि वह स्वतंत्र नागरिकों का देश है। सच यह है कि अमेरिका के नागरिकजीवन पर सरकारी एजेंसियों की कड़ी नजरदारी है और निजी कम्युनिकेशन में हस्तक्षेप भी है।
अमेरिकी मिथ-5-

यह मिथ है कि अमेरिका तो सुखियों-धनियों और स्वस्थ लोगों का देश है। सच यह है कि अमेरिका में बड़ी तादाद में गरीब हैं,मुसीबत के मारे हुए लोग हैं और बड़ी संख्या में बीमारलोग भी हैं।
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अमेरिकी मिथ-4-

अमेरिका के बारे में मिथ है कि वहां पर औरतें बड़ी भली होती हैं। सच यह है कि वहां पर औरतों में पुरूषों के ऊपर हमला करने,ब्लिच आंखों में फेंककर हमला करने की प्रवृत्ति बढ़ गयी है।
अमेरिकी मिथ-3-

अमेरिका के बारे मे मिथ है कि वहां चोर.उचक्के,मस्तान ,मवाली टाइप लोग नहीं होते। सच यह है कि वहां हर शहर में अपराधियों के संगठित गिरोह सक्रिय हैं।
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अमेरिकी मिथ-2-

अमेरिका के बारे में मिथ है कि अमेरिका में स्त्रीपीड़क नहीं हैं.सच इसके विपरीत है स्त्रियों के प्रति उत्पीड़न के मामले में अमेरिका अनेक देशों में अग्रणी है।
अमेरिकी मिथ-1-

अमेरिका के बारे में मिथ है कि वहां सबकुछ शांत और सभ्यता के वातावरण में चल रहा है। यह भी मिथ है कि अमेरिकी लोग बड़े भले,शरीफ और सहिष्णु,मिलनसार होते हैं। यह सच है कि अमेरिका में शरीफ,शांत,सहिष्णुओं की संख्या तेजी से घटी है और अब वे अल्पसंख्यक हैं।
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फेसबुक के बिना कितना कष्ट होता है,कोई रहीम से पूछे-

बिन देखें कल नाहिन, यह अखियान ।
पल-पल कटत कलप सों, अहो सुजान ॥
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फेसबुक मित्रता का फंडा-

रहिमन ओछे नरन सों, बैर भलो न प्रीति ।
काटे चाटे स्वान के, दुहूं भांति विपरीति ॥
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फेसबुक पर पूर्वाग्रह या मन की गांठें रखकर बातें न करें,गांठें स्पष्ट कम्युनिकेशन बाधित करती हैं-

रहिमन खोजे ऊख में, जहां रसनि की खानि ।
जहां गांठ तहं रस नहीं, यही प्रीति में हानि ॥
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नए आधुनिक समाज में चिंता एक बड़ी समस्या है,इस पर रहीम को पढ़ें-

रहिमन कठिन चितान ते, चिंता को चित चेत ।
चिता दहति निर्जीव को, चिंता जीव समेत ॥
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फेसबुक और चैटिंग में जो लोग दुख बांटते हैं उनके लिए रहीम का पद-

रहिमन निज मन की विथा, मन ही राखो गोय ।
सुनि अठिलै है लोग सब, बांटि न लैहे कोय ॥
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रहिमन प्रिति सराहिए, मिले होत रंग दून ।
ज्यों जरदी हरदी तजै, तजै सफेदी चून ॥ रहीम।।
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टेंशन फ्री रहने नुस्खा-

चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।

जिनको कछु न चाहिए, वे साहन के साह।।
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समय लाभ सम लाभ नहिं, समय चूक सम चूक।

चतुरन चित रहिमन लगी, समय चूक की हूक।।रहीम।।
दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय।

जो रहीम दीनहिं लखै, दीनबंधु सम होय।।रहीम।।
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भरोसो जाहि दूसरो सो करो ।। तुलसीदास।।
सुनि ऊधौ मोहिं नैकू न बिसरत वै ब्रजवासी लोग ।।सूरदास।।

-फेसबुक-ईमेल-एसएमएस से खुश होने वालों के लिए सूरदास का यह पद जरूर पढ़ना चाहिए-

ऊधौ कहा करैं लै पाती ।
जौ लौं मदनगुपाल न देखैं, बिरह जरावत छाती ॥
निमिष निमिष मोहि बिरसत नाहीं, सरद जुहाई राती ।
पीर हमारी जानत नाहीं, तुम हौ स्याम सँघाती ॥
यह पाती लै जाहु मधुपुरी, जहँ वै बसैं सुजाती ।
मन जु हमारे उहाँ लै गए, काम कठिन सर घाती ॥
सूरदास प्रभु कहा चहत हैं, कोटिक बात सुहाती ।
एक बेर मुख बहुरि दिखावहु, रहैं चरन रज-राती ॥
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कमलेश की मुश्किल है वे अंग्रेजी में बौद्धिक होना चाहते हैं,लेकिन वे ठीक से इस भाषा में न तो सोच पाते हैं और न लिख ही पाते हैं। उनको यदि मातृभाषा से प्रेम है तो हिन्दी में लिखें और फिर अपने लिखे को पढ़ें कि वे कैसे दिखते हैं,कम से कम एक लेखक का अशिष्ट भाषा का इस्तेमाल करना असभ्य माना जाता है। कमलेश ने झूठ का लबादा अपने ऊपर डाला हुआ है फलतः वे झूठ के अलावा और कुछ नहीं देख पा रहे हैं।सीआईए की वैचारिकसेवा इस तरह के लोग ज्यादा मुस्तैदी से करते हैं जो झूठ का लबादा ओढे रहते हैं।
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हिंसा की संस्कृति का जनक अमेरिका- 4-

इराक में तथाकथित मानवीय हस्तक्षेप करने के पहले मीडिया में यह प्रौपेगैण्डा किया गया कि इराक के पास जनसंहारक अस्त्र हैं,रासायनिक अस्त्र हैं और जल्द हमला न किया गया तो इराक अमेरिकी शहरों पर हमले कर देगा। बाद में अमेरिकी सेना के इराक में जाने पर कहीं पर भी जनसंहारक अस्त्र नहीं मिले।इससे मीडिया के झूठ पर से पर्दा उठा।
इसबार सीरिया के संदर्भ में यही कहा जा रहा है असद की सत्ता रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल कर रही है ।इस बहाने अमेरिका हस्तक्षेप करने का बहाना बना रहा है।
असद सरकार के खिलाफ विपक्ष को सैन्यमदद अमेरिका और नाटो देश मदद तुरंत बंद करें।उनका इस तरह का काम सीरिया की संप्रभुता पर हमला है.इससे सीरिया में जन-धन आदि की व्यापक क्षति हुई है।
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हिंसा की संस्कृति का जनक अमेरिका- 3-

जानकार लोग कह रहे हैं कि सीरिया में अलकायदा को अमेरिका की ओर से रासायनिक हथियार और अन्य सैन्य सामग्री इफरात में मुहैय्या करायी जा रही है। इससे मध्यपूर्व और दूसरे देशों में अलकायदा की शक्ति और संहारक क्षमता का विकास होगा।भारत उनके निशाने पर आ चुका है लेकिन मनमोहन सरकार को इस मामले में सख्त नजरिया अपनाना चाहिए।वरना भारत के अफगानिस्तान हितों को बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है।
अलकायदा और तालिबान के साथ पाकस्थित आतंकियों का याराना जगजाहिर है,इसके बाबजूद मनमोहन सरकार ने सीरिया के गृहयुद्ध में अमेरिकी भूमिका की अभी तक जिस तरह अवहेलना की है और हमारे देश का विपक्ष (खासकर वामदल)भी शांत है वह हम सबके लिए चिन्ता की बात है।
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हिंसा की संस्कृति का जनक अमेरिका- 2-

सन् 2003 में बुश प्रशासन ने इराक के खिलाफ युद्ध की घोषणा की तो 10साल बाद ओबामा ने सीरिया में विपक्ष को सैन्य मदद की घोषणा करके बुश प्रशासन की युद्धवादी नीति को दोहराया है। सीरिया के गृहयुद्ध में अब तक 80हजार से ज्यादा निरपराध नागरिक मारे गए हैं। एक तरह से समूचे देश को शरणार्थी बना दिया गया है,सीरिया के पड़ोसी देशों में लाखों सीरियाई शरणार्थी की तरह अमानवीय स्थितियों में जी रहे हैं। इस सबके बावजूद अमेरिका की मनमोहन सरकार खुलकर आलोचना नहीं कर रही,इससे हमारे देश की मध्यपूर्व के देशों में साख गिर रही है।
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हिंसा की संस्कृति का जनक अमेरिका- 1-

अमेरिकी प्रशासन ने हाल ही में सीरिया में विपक्ष को हथियारों और अन्य रूप में मदद करने का फैसला किया है और इससे एकबार फिर से पुष्टि हुई है कि अमेरिका हिंसा का उत्पादक देश है।
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अमेरिका की सारी दुनिया में चल रही जासूसी की हरकतों का पिटारा जिस तरह खुला है उसे लेकर कम से कम भारत के इंटरनेट लेखकों,फेसबुक यूजरों और नागरिकों को मिलकर मोर्चा बनाकर सरकार पर दबाब डालना चाहिए। मनमोहन सरकार ने अमेरिकी नजरदारी को जिस तरह ठंड़े बस्ते के हवाले किया है वह हम सबकी कायरता की निशानी है।
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