बुधवार, 3 अप्रैल 2013

आधुनिक रीतिवाद के प्रतिवाद में



    रामविलास शर्मा के जन्मशती के मौके पर इस संवाद के बहाने हमें हिंदी आलोचना पर नए सिरे से विचार करने का मौका मिला है।  फलतः नई-पुरानी सभी धारणाओं को नए पैराडाइम के आधार पर देखा जाना जाना चाहिए। रामविलासजी को याद करने का अर्थ उनकी मान्यताएं दोहराना या उनकी जीरोक्स कॉपी पेश करना या धारणाओं का स्तवन मात्र करना नहीं है।इसे साहित्य में आधुनिक रीतिवाद कहते हैं ,और रामविलास शर्मा को रीतिवादी रूझानों से सख्त नफरत थी।आलोचना की पहली समस्या है कि उसे आधुनिक रीतिवाद या स्टीरियोटाइप से बचाया जाए। दुर्भाग्य की बात है कि जिनके कंधों पर विकल्प खोजने की जिम्मेदारी है ,वे ही साहित्य में आधुनिक रीतिवाद के पुरोधा बने हुए हैं। इनकी मुश्किल यह है कि वे नए मसलों और अवधारणाओं पर सोचने के लिए तैयार नजर नहीं आते।
       आधुनिक आलोचना में रीतिवाद के प्रभाववश ही अब प्रगतिशीलों के लिखे पर कोई विवाद नहीं होता। वे मिलते हैं तो पूछते हैं कैसे हो, क्या लिख रहे हो,कहां जा रहे हो, कौन क्या कर रहा है, किसे इनाम मिला, फलां-फलां लेखक क्या कर रहा है,या इसी तरह के व्यक्तिगत और गैर-साहित्यिक सवालों पर संवाद ज्यादा होता है। इसके कारण आलोचना खत्म हो गयी है। संवाद की स्वतंत्रता खत्म हो गयी है। वे सामाजिक सरोकारों और व्यक्तिगत सहृदयता से जुड़े सरोकारों पर बातें नहीं करते। पहले वे यह काम करते थे। लेकिन इधर यह काम बंद हो गया है। अब लेखक आपस में जो भी बात करते हैं वह मजबूरी में की गई हल्की-फुल्की चर्चा है। उसे संवाद कहना सही नहीं होगा।
    ये लोग इसे आलोचना का पतन नहीं उत्थान मानते हैं। अपने पतन को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। तथाकथित साहित्यिक सक्रियता के नाम पर अब उत्सवधर्मी गोष्ठियां या साहित्यिक आयोजन हो रहे हैं। यह मीडिया रीतिवाद है। इन आयोजनों में भी हम व्यक्तिगत अस्तित्व और सम्मान बचाने की खातिर शामिल होते हैं। आलोचना से लेकर सभामंचों पर दिए गए वक्तव्यों तक हमने अपने को छोटी-छोटी बातों की वैधता को सिद्ध करने के विभ्रम में बांध दिया है। भाषणों में हम आलोचनात्मक नजरिए से पेश नहीं आते। सिर्फ सहमति के नजरिए को व्यक्त करते हैं।
     सहमति और समीक्षा के नाम पर कूपमंडूकता का पालन-पोषण हो रहा है। कूपमंडूकता के आधार पर आलोचकगण संस्कृति से लेकर साहित्य तक सभी क्षेत्रों में सांस्कृतिक मृगतृष्णा में भटक रहे हैं। उनके लेखन में वैचारिक गरमाहट खत्म हो गयी है। आलोचना में विचारधारा के शिखर गिर रहे हैं। उनकी जगह साहित्यिक मिलनमंडलियों ने ले ली है। रामविलास शर्मा ठीक इसी बिंदु पर हमें प्रेरणा देते हैं। वे साहित्य को मित्रमंडलियों और साहित्य के सामयिक जन-संपर्क अभियान के खिलाफ औजार की तरह इस्तेमाल करते रहे हैं। इस क्रम में उन्होंने जो चीज हमें सौंपी है वह है लेखन। लेखन ही महान है। मित्रमंडलियां और साहित्यिक रीतिवाद नहीं।
  एक अन्य फिनोमिना नजर आ रहा है, लेखकों में भीड़तंत्र की मनोदशा आ गयी है। एक जमाना था लेखकों में दिमाग की कद्र थी।आज लेखकों में दिमाग की कद्र नहीं होती, इनाम और पद की कद्र होती है।दिमाग की कद्र सिर्फ भीड़ नहीं करती। भीड़ पागलों की हद तक दिमाग से घृणा करती है। भीड़ में जिस तरह लोग एक-दूसरे के पीछे खड़े होते हैं, चल रहे होते हैं। ऐसी अवस्था में आप अपने सामने वाले की पीठ से आगे कुछ भी नहीं देख पाते।आज स्थिति यह है कि हर कोई अपने पीछे वाले की आँखों में उदाहरण बनने लायक होकर गर्व महसूस कर रहा है।
   साहित्य में इनदिनों वार्तालाप नहीं होता बल्कि हम खामोश पार्टनर की तरह उनमें हिस्सा लेते हैं। हम गोष्ठियों में बोलने के लिए बोलते हैं। जबकि कायदे से एक अच्छा वक्ता अपने को बदलने के लिए बोलता है। वक्ता के लिए बोलना अपने को बदलना है। एक अच्छा संवाद वह है जो श्रोता के खालीपन को अपने शब्दों से भर दे। प्रभावी संवाद वह है जो वार्तालाप पैदा करे,चुप्पी को तोड़े।अनालाप को खत्म करे। संवाद वह है जो श्रोता को नई भाषा और नई समझ दे।
    हमारी गोष्ठियों और आपसी बातचीत में एक अन्य पहलु भी है कि वहां संवाद के नाम पर सदभावनापूर्ण बातचीत वस्तुतः प्रार्थना है।
       हिंदी की वक्तृताशैली का यह कौशल है कि अधिकांश वक्ता अनुत्पादक की तरह   बोलते हैं। यह ऐसा वक्ता है जिसे किसी की आवाज सुनाई नहीं देती और न यह सामाजिक चुप्पियों की सुनता है। वह विचारधारा और नए की उत्तेजना से अपने को वैसे ही बचाता है जैसे कोई अपने को कामोत्तेजना से बचाता है और सोचता है कि कहीं मेरा कौमार्य भंग न हो जाए। वह अन्य को न तो देखता है और न सुनता,न समझता और न समझाता, वह तो सिर्फ अपने आप को सुनता और सुनाता है। अन्य के प्रति वह हमेशा अबोध बना रहता है। वह एक स्पेस में अपने ही शब्दों की आवाज सुनता रहता है। अपने लिखे में ही गुम रहता है। इस तरह के भावबोध की अमूमन अभिव्यक्ति का तरीका है- मैंने यह लिखा था, मैंने फलां जगह यह कहा था, मैंने पहले यह सोचा था,देखो मेरी बात कितनी सही है। इस तरह लेखक सिर्फ अपने ही शब्दों को सुनता रहता है। यह अनालाप है संवाद नहीं है।

      हम यहां रामविलास शर्मा पर संवाद के लिए एकत्रित हुए हैं।  संवाद क्यों करना चाहते हैं ? साहित्य पर संवादक्यों करना चाहते हैं ? साहित्य पर जब संवाद करते हैं तो क्या हम खुलेमन से बातें करते हैं ? साहित्य की खोज करते हुए या साहित्य के सवालों पर बहस करते हुए हम अपनी मंशाओं को छोड़ देते हैं ? साहित्य पर संवाद करते समय हम कठमुल्ले,रीतिवादी या रूढ़िवादी ढ़ंग से बातें करते हैं या पलायनवादी ढ़ंग से बात करते हैं ? मूल सवाल यह है कि साहित्य पर कैसे संवाद करें ?
    यहां पर हम एक आलोचक-लेखक के ऊपर संवाद करने एकत्रित हुए हैं। खासकर आलोचना पर संवाद करने के लिए एकत्रित हुए हैं। आलोचना पर संवाद करके हम क्या हासिल करना चाहते हैं ? क्या इससे हम मन को संतोष देना चाहते हैं ? क्या इससे रामविलास शर्मा के समग्रलेखन का लेखा-जोखा हासिल करना चाहते हैं ?
     रामविलास शर्मा ने अपनी आलोचना के जरिए हिन्दी आलोचना और इतिहास के अकादमिक जगत को बुनियादी तौर पर बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। इसके लिए जरूरी है कि कुछ बुनियादी सवालों की ओर ध्यान दें।
     समाज में अनेक बातें हैं जिनका हम अकादमिक स्तर पर खासकर हिंदीविभागों में अध्ययन नहीं करना चाहते फिर साहित्य का अकादमिक स्तर पर अध्ययन क्यों करना चाहते हैं ? साहित्य को ही अकादमिक स्तर अध्ययन करने का रूतबा क्यों हासिल है ?
      मूल सवाल यह है कि हिंदीसाहित्य या साहित्य का अकादमिक स्तर पर अध्ययन क्यों करना चाहते हैं और इस अध्ययन के जरिए क्या निकालना चाहते हैं ? पहला सच तो यह है कि साहित्य का अध्ययन अब अकादमिक संस्थाओं तक सीमित होकर रह गया है। हिंदी का अकादमिक सांस्थानिक रूप निश्चय कर रहा है कि साहित्य क्या है और उसे कैसे पढ़ें और पढ़ाएं । इसका प्रकाशन पर भी असर पड़ा है।
    विज्ञान में खासकर प्रकृतिविज्ञान ने अकादमिक जगत में वैज्ञानिक खोजों के प्रकाशन की नींव डाली और उसके साथ ही यह माना गया कि अकादमिक जगत में वही महत्वपूर्ण है जो प्रकाशित होता है। यदि साहित्य में कुछ करना है तो प्रकाशित करो। प्रकृतिविज्ञान की खोजों के प्रकाशन ने साहित्य में भी वैज्ञानिक ढ़ंग से लिखने और खोज करने की भावना पैदा की।  वैज्ञानिक परिणामों को उसकी खास पारिभाषिक शब्दावली में लिखने की परंपरा आरंभ हुई तो साहित्य में भी पारिभाषिक शब्दावली और अकादमिक शैली या साहित्यिकशैली में लिखने की परंपरा आरंभ हुई।  लेकिन इससे सामान्य पाठक डरता है। इससे साहित्य के अकादमिक अध्ययन को वैधता मिली। साहित्य के अकादमिक अध्ययन-अध्यापन से साहित्य कितना लाभान्वित हुआ है और उसकी किनकी क्षति हुई है इसकी ओर हमने कभी ध्यान ही नहीं दिया।
      साहित्य पर संवाद का अर्थ है उसके सांस्थानिक-अकादमिक फ्रेमवर्क के आधार पर संवाद करना । यह संवाद स्वयं में समस्यामूलक है। साहित्य के सांस्थानिक संवाद में साहित्य के आधुनिकीकरण की भावना काम करती है। किस तरह साहित्य को आधुनिक वैज्ञानिक नजरिए से पढ़ें,पढ़ाएं और लिखें।इस क्रम में विज्ञान हमारे अकादमिक साहित्य विमर्श पर ध्यान खींचता है।
     रामविलास शर्मा के अकादमिक लेखन में राजनीतिक प्रासंगिकता का नजरिया हावी है। कालान्तर में प्रगतिशील आलोचना का अधिकांश लेखन इसके दायरे में ही विकसित हुआ है। इस क्रम में मार्क्सवाद से लेकर आधुनिकतावाद और उत्तर आधुनिकतावाद के सभी रूपों जैसे स्त्रीसाहित्य,दलितसाहित्य आदि पर जितनी भी बहसें हुई हैं उनके केन्द्र में राजनीतिक प्रासंगिकता का तत्व हावी है। इस क्रम में कार्ल मार्क्स से लेकर फ्रॉयड तक सबकी आधी अधूरी व्याख्याएं सामने आई हैं। देरिदा से लेकर ल्योतार तक,रोलां बार्थ से लेकर लांका तक सबके चिन्तन का अंश रूप ही सामने आया है। इन विषयों पर संवाद कम से कम हुआ है।
   संवाद करना हो तो हमें औरत से सीखना चाहिए। स्त्री की संवादशैली महानतापंथी संवादशैली का अंत है। स्त्री की खूबी है कि वह हमेशा अतीत से अनुप्राणित होती है,किसी भी हाल में उसका वर्तमान नहीं होता।इसीलिए वह समझ से अर्थ को बचाती है,वह शब्दों को दुरूपयोग से बचाती है,और अपना दुरूपयोग किए जाने से इंकार करती है। वह सुरक्षा करती है न केवल दैनन्दिन जीवननिधि की,बल्कि रात की और सबसे अच्छे की। वह वार्तालाप को तुच्छता से बचाती है। महानता का उसका कोई दावा नहीं होता बल्कि महानता का अंत हो जाता है जब उसके साथ मुठभेड़ होती है।
    रामविलास शर्मा की लेखन पद्धति में स्त्री संवाद के उपरोक्त गुण कूट-कूटकर भरे हैं। उन्होंने हिन्दी साहित्य के दुरूपयोग और गलत व्याख्याओं के खिलाफ बेहद तीखे ढ़ंग से लिखा है। उन्हें स्त्री की तरह बार बार अतीत अनुप्राणित करता है। उनको एकबार पढ़ने के बाद अपने पुराने विचारों पर कायम नहीं रह सकते। उनका सबसे बड़ा योगदान है हिन्दी साहित्य के इतिहास में पाठ,अवधारणाओं,साहित्यांदोलनों की कु-व्याख्याओं का अंत। एक स्त्री जिस तरह पालती-पोसती है ,ठीक वैसे ही रामविलास शर्मा अपनी धारणाओं और व्याख्याओं को पालते-पोसते हैं। उनकी देखभाल करते हैं। उन पर होने वाले हमलों का प्रतिकार करते हैं।
      बुद्धिजीवी- सामान्यतौर पर बुद्धिजीवी की अवधारणा में वे सभी लोग आते हैं जो दिमागीश्रम करते हैं लेकिन यह कोई वर्ग नहीं है। रामविलास शर्मा ने इस प्रसंग में कई स्थानों पर अपने नजरिए को व्यक्त किया है।यह धारणा काफी विवादास्पद है। लेकिन यह बुद्धिजीवी की अवधारणा पर नए सिरे से विचार करने की संभावनाओं के मार्ग खोलती है। 
    रामविलास शर्मा ने 1953-54 के आसपास लिखे लेख ' जन-आन्दोलन और बुद्धिजीवी वर्ग' में लिखा है  "बुद्धिजीवी मध्यमवर्ग के होते हैं या पूंजीवादी वर्ग के या सर्वहारा वर्ग के। जब हम किसी को 'पेटी बुर्जुआ इंटेलेक्चुअल' (मध्यवर्गी बुद्धिजीवी) कहते हैं ,तो हमारा मतलब उसकी मध्यवर्गी जहनियत से होता है।जब हम किसी को सर्वहारा या सोशलिस्ट कहते हैं तो हमारा मतलब होता है कि उसने सर्वहारा वर्ग और समाजवाद की जहनियत को अपना लिया है।  सामाजिक दृष्टि से कार्ल मार्क्स और एंगेल्स पूँजीवादी बुद्धिजीवियों में से थे। 'क्या करें' में लेनिन ने लिखा हैः "अपनी सामाजिक स्थिति के के हिसाब से आधुनिक समाजवाद के जन्मदाता खुद पूँजीवादी बुद्धिजीवी वर्ग के थे।" वे वैज्ञानिक समाजवाद के जन्मदाता थे,इसलिए उन्हें सोशलिस्ट बुद्धिजीवी या ,सर्वहारा बुद्धिजीवी कहना उचित होगा।"  
   रामविलास शर्मा ने इस लेख में इस बात पर जोर दिया है कि "मजदूर-वर्ग का साथ देकर ही बुद्धिजीवी अपने चिन्तन को उपयोगी बना सकता है। और सब रास्ते उसे पतन और गुलामी की तरफ ही ले जाएंगे।शर्माजी का इस तरह का नजरिया बुद्धिजीवियों की एकांगी भूमिका को देखता है।साथ अलोकतांत्रिक और सर्वसत्तावादी राजनीति का आधार बनाता है।
इसी निबंध में उन्होंने एक अन्य विवादास्पद बात कही है,लिखा है, " इसलिए यह भरम दूर करना चाहिए कि बुद्धिजीवी समाज के आर्थिक ढ़ाँचे से ऊपर उठकर अपनी सिद्धान्त-रचना या साहित्य-रचना या कला की रचना कर सकते हैं। वे अपने साहित्य और कला से सामाजिक परिस्थितियों पर तभी जबर्दस्त असर डाल सकते हैं जब वे इन परिस्थितियों को समझें और उनके बदलते हुए रूप को अपनी रचनाओं में जगह दें।
     इस पूरे निबंध में रामविलास शर्मा ने लेनिन के बुद्धिजीवियों के प्रति रवैय्ये से जुड़े अनेक उद्धरण दिए हैं। इस क्रम में वे मध्यवर्गीय जहनियत को लेकर लेनिन की मान्यताओं को बार बार उद्धृत करते हैं। इस क्रम में वे सोवियत संघ में क्रांति की प्रक्रिया के दौरान चली बहसों को भारत में और खासकर हिन्दी लेखकों के बीच ले आते हैं और उनके आधार पर यहां के बुद्धिजीवियों की आलोचना करते हैं। लेनिन ने समाजवादी समाज के प्रसंग में बुद्धिजीवियों की भूमिका पर लिखा है। भारत में समाजवाद नहीं है बल्कि लोकतंत्र है। लोकतंत्र में लेखकों और आम जनता को व्यापक अधिकार मिले हुए हैं। ये अधिकार समाजवाद में नहीं थे। अभिव्यक्ति की आजादी का हक,विचारों की स्वतंत्रता का हक,विचारगत वैविध्य का हक,कुछ भी लिखने बोलने की आजादी ,प्रकाशन की आजादी आदि। ये सारा आजादियां समाजवाद में नहीं थीं।
    इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि काउत्स्की का मानना था कि मजदूर संगठनों को राज संगठनों का रूप लेना चाहिए। वे सत्ता और वर्गीय संगठनों,जनसंगठनों आदि में अंतर रखने के पक्ष में थे। लेनिन चाहते थे कि सर्वहारा की सत्ता के साथ एकीकृत होकर जनसंगठन काम करें। इसके कारण कालान्तर में सत्ता और कम्युनिस्ट पार्टी का भेद खत्म हो गया। राष्ट्रपति वही होता था जो पार्टी महासचिव होता था। इस प्रक्रिया के कारण कम्युनिस्ट पार्टी ने राज्य की पहचान के साथ अपनी पहचान को एकमेक कर दिया। सत्ता को कम्युनिस्ट पार्टी का पर्याय बना दिया और कम्युनिस्ट पार्टी को समाज का पर्याय बना दिया। अंततः कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने विरोधियों को ठिकाने लगाने के लिए सत्ता का व्यापक दुरूपयोग किया।गैर कम्युनिस्टों की हत्याएं की गयीं, उन्हें यंत्रणाएं दी गयीं। घोषित कर दिया गया कि समाज में एक ही किस्म का नजरिया प्रचलन में रहेगा और एक ही किस्म की जहनियत स्वीकार्य है। अन्य के लिए कोई जगह नहीं है।  इस तरह के तजुर्बे अन्यत्र भी देखे गए हैं।
    रामविलास शर्मा के इस निबंध की सबसे बड़ी कमजोरी है कि इसमें भारत के लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य में सोचने का प्रयास ही नहीं किया है। सवाल यह है क्या सोवियतसंघ के संदर्भों के आधार पर भारत के बुद्धिजीवियों की भूमिका को परिभाषित करना सही होगा ? यहीं पर हमारे विमर्श की अनेक विडम्बनाएं छिपी हैं। यही वह बिंदु है जहां पर रामविलास शर्मा के यहां मार्क्सवादी फंडामेंटलिज्म दाखिल होता है। यह संकीर्णतावादी और विभाजनकारी है। यह मार्क्सवाद की यांत्रिक समझ पर आधारित है।


साहित्य में मीडिया गॉसिप का असर -
    साहित्य अध्ययन के अधिकांश प्रयास मांग-पू्र्ति,विधेयवादी और आत्मकथावादी नजरिए से प्रभावित हैं। मांग-पूर्ति के आधार पर साहित्य के विद्यार्थियों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर खूब लिखा गया और इस तरह के उपयोगितावादी साहित्य और समीक्षा की किताबों से बाजार भरा पड़ा है। हमने कभी न तो विस्तार से मार्क्सवादी समीक्षा पर बहस की और न कभी आधुनिकतावाद,रूसी रूपवाद,चिन्हशास्त्र या मनोशास्त्र पर बहस की। हम साहित्य को कार्य-कारण संबंधों और आलोचक के निजी जीवन के अनुभवों के दायरों के आधार पर विकसित करते रहे हैं। मसलन् आलोचकों ने उन विषयों पर ज्यादा लिखा है जो उसे पसंद हैं या जो उसकी वैचारिक विचरण स्थली रहे हैं या जिन क्षेत्रों और विषयों पर वह आंदोलन करता रहा है। इस समूची प्रक्रिया में मूल जोर है हिंदी के पिछड़े माहौल को आधुनिक बनाने पर।
      विधेयवादी नजरिए से साहित्य मीमांसा की पद्धति के आधार पर जीवन,इतिहास,मनोविज्ञान,लेखन आदि के बीच के अन्तस्संबंध को स्थापित किया गया। कृति और उसके संदर्भ या वातावरण को विस्तार दिया गया। तमाम किस्म के गैर जरूरी तथ्यों को उभारा गया। समाजशास्त्रीय संकुचन और बेबकूफियों का सहारा लिया गया। बिना जाने-समझे विदेशी धारणाओं को अतार्किक लोकल धारणाओं के जरिए चुनौती देने की भौंडी कोशिशें की गईं।
     साहित्य में वाद से वाद की ओर यात्रा नहीं हो सकती। जो लोग ऐसा कर रहे हैं वे साहित्य के स्वाभाविक रूझानों को समझ नहीं पा रहे हैं। हमें मूल्यांकन के लिए ऐतिहासिक नजरिए की आवश्यकता है । साथ ही साहित्य सैद्धान्तिकी के विभिन्न स्कूलों की भी आवश्यकता है। हमें शोध भी चाहिए और व्याख्या,सैद्धान्तिकसमीक्षा और समीक्षाओं की भी जरूरत है। लेकिन यह काम पाठ के आधार पर होना चाहिए।
    हिंदी समीक्षा का आम रिवाज है यहां चर्चा गंभीर समस्याओं से आरंभ होती है ,और समाहार व्यक्तिगत फजीहत अथवा निजी अनुभववाद या सतही अप्रासंगिक बातों में जाकर होता है। प्रगतिवाद से लेकर दलित साहित्य तक की बहस के केन्द्र में इस फिनोमिना को सहज ही देखा जा सकता है। आपस में किसी भी आलोचक पर बात करने का भी हम सबका यही तरीका है। हम आलोचक की कृति से आरंभ करते हैं और फिर कृति को छोड़कर उसके जीवन के आधारहीन पहलुओं में रस लेने लगते हैं। इससे साहित्य कम गॉसिप ज्यादा पैदा होता है। यह एक तरह से आलोचना और साहित्य दोनों को पूर्व-आधुनिकयुग में ले जाने वाली हरकत है। यह साहित्य में मीडिया गॉसिप का सीधा प्रभाव है।
    हिन्दी में अनेक समीक्षक बिना जाने-समझे नई अवधारणाओं का मनमाने और चलताऊ ढ़ंग से इस्तेमाल करते हैं। इससे साहित्यालोचना का स्तर गिरा है। फलतः आलोचना हमेशा शून्य से आरंभ होकर शून्य पर ही खत्म होती है। इन लोगों ने आलोचना को मेनीपुलेशन की चीज बना दिया है।
   टेरी इगिलटन के शब्दों में कहें तो साहित्य को शब्दों का लोकतंत्र होना चाहिए। इसमें आलोचना रमण करे। आलोचना को पारिभाषिक शब्दावली और जॉर्गन से मुक्ति दिलायी जाए.साहित्य समीक्षा को अपने अकादमिक सहधर्मियों का सम्मान करना चाहिए साथ ही संभावित जनता या पाठकवर्ग का भी सम्मान करना चाहिए। हमें साहित्य विभागों के दायरे को व्यापक बनाने की जरूरत है। इसकी प्राथमिक शर्त है कि अच्छा लिखा जाए।
      'घटना' या लेखन - साहित्य से लेकर राजनीति तक,इतिहास से लेकर पुराकथाओं तक हर चीज सामान्य हो गई है। किसी भी घटना,संवृत्ति आदि का आभामंडल खत्म हो गया है। पहले हर चीजें प्रतीकों में थीं, उसका आभामंडल भी था। इसके कारण उसमें कुछ काल तक बने रहने का भाव भी था। इसकी जगह पहचान या अस्मिता ने ले ली है।
    आज जब किसी लेखक की कृति आती है तो हम उस पर इवेंट की तरह घटना की तरह बातें करते हैं। पहले कृति के आने पर उसकी इतिहास में उसके स्थान को लेकर चिंताएं हुआ करती थीं ,आज उससे भिन्न सोचते हैं। इतिहास के संदर्भ में कृति पर सोचते थे तो उसके संदर्भ और कारणों पर भी गंभीरता से विचार करते थे। लेकिन विगत 50-60 सालों में इतिहास के परिप्रेक्ष्य में देखने की प्रक्रिया संकुचित होती चली गई है। फलतः किसी भी कृति या संवृत्ति के कारकों की खोज का काम भी तदर्थभाव से करने लगे हैं। कृति को हमने घटना की तरह देखना कब से आरंभ किया, हमें नहीं मालूम लेकिन आज कृति को घटना की तरह देखने की दृष्टि पूरी तरह प्रभुत्व बनाए हुए है। हाल ही में प्रलेसं के 75वें जन्मदिन के समारोह या कारपोरेट घरानों द्वारा आयोजित जयपुर साहित्यमेला मूलतः घटना के रूप में आए हैं। घटना के रूप में जब हम किसी चीज को देखते हैं तो भावी दृश्यों के बारे में जो अनुमान लगाए गए हैं उसके परे नहीं जाते। उसका प्रभाव रीयल टाइम में ही देख सकते हैं।कृति का आना या कार्यक्रम विशेष का होना स्वयं में ऐतिहासिक घटना है। यही वह बिंदु है जिसको साहित्य में असली अर्थ में इतिहास का अंत या तर्क का अंत या इतिहास का तर्क कहते हैं। उल्लेखनीय है रामविलास शर्मा ने अपने को साहित्य के सार्वजनिक जीवन से अलग कर लिया था वे कहीं पर भी नहीं जाते थे। इसके पीछे कहीं न कहीं साहित्य के घटना बनने की प्रक्रिया को वे भांप गए थे और उसकी निरर्थकता भी समझ गए थे। साहित्य को जब घटना बना देते हैं तो उसके कई परिणाम हो सकते हैं। यह संभव है इतिहास गायब हो जाए। इतिहास के गायब होने का अर्थ है नकारात्मक श्रम काअंत,राजनीतिक तर्क का अंत,किसी घटना की इज्जत का अंत।
     इसके समानान्तर यह संवृत्ति भी दिखाई देती है कि इतिहास में इजाफा हो रहा है। खूब किताबें लिखी जा रही हैं, हर क्षेत्र में भीड़ है जमा हो गई है। हर बार नई किताब की मांग हो रही है,नए लेखक की मांग हो रही है। नई घटना की मांग बढ़ गयी है। जो भी किताब आ रही है वो बहुत जल्दी बाजार से गायब होती जा रही है। जिस मसलेपर बहस हो रही है वह भी जल्दी गायब होते जा रहे हैं। आलोचना में बाजार में 'सेल सेल ' की और प्रमोशन की भाषा अपना ली है। समाजवाद के पराभव के ऐतिहासिक कारण थे लेकिन उन कारणों पर चर्चा करने की बजाय इस पराभव को भी इवेंट की तरह इतिहास का अंत के नाम से हजम कर लिया।
      साहित्य से लेकर जीवन तक हम एडवांस में पलायन कर रहे हैं। इसके चलते सबसे अच्छा है पुरानी बहसों को उठाना, अब हम हर पुरानी चीज को उठा रहे हैं,अतीत की बहसों को उठा रहे हैं और अतीत की बहसों को जितने बड़े पैमाने पर रामविलास शर्मा ने उठाया है वह अपने आप में चौंकाने वाला है। वे बड़े ही मजे में अतीत की पुरानी बहसों को उठाते रहे हैं और हम पढ़ते रहे हैं। यह बीमारी खाली रामविलास शर्मा तक ही नहीं फैली है बल्कि नामवर सिंह,पुरूषोत्तम अग्रवाल आदि भी इसकी चपेट में आ गए हैं। वे भी पुराने पाठों और बहसों को लेकर आए हैं। नामवर सिंह की 4साल पहले पुराने लेख-भाषणों की 4 किताबें आ गईं,पुरूषोत्तम अग्रवाल की कबीर पर किताब आ गयी।  यह साहित्य के अंत करने का होम्योपैथी मार्ग है। रामविलास शर्मा ने अतीत के विमर्शों पर जो किताबें लिखीं उन पर न्यूनतम चर्चा तक नहीं हुई।
       किताबों के आने पर हम थोड़ा उत्सवधर्मी हो जाते हैं।लेकिन असली उत्सव तो तब है जब आपकी किताब का पाठक उपयोग करें। खरीदें और पढ़ें। इन दिनों दो तरह से हम चीजों को भूल रहे हैं। एक है धीरे से भूलना। दूसरा है हिंसा के जरिए भूलना।  हिंसा के माध्यम से भूलने का अर्थ है कि दृश्य स्पेस को विज्ञापन के हवाले कर देना। मीडिया के हवाले कर देना। ऐतिहासिक स्पेस तैयार करने की बजाय मीडिया में स्पेस तैयार करना। मसलन् हमने हिन्दी के अधिकांश आलोचकों ने लिखकर, रिसर्च करके अपने हिंदी विभागों में साहित्य का ऐतिहासिक स्पेस तैयार नहीं किया। सारे देश के हिंदी विभागों के शिक्षकों ने मिलकर जो काम नहीं किया वह काम अकेले रामविलास शर्मा ने किया। साहित्य की किताब की ऐतिहासिक जगह है साहित्य के विभाग। उन पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। इसके विपरीत उत्सव,समारोह,मीडिया कवरेज आदि पर ध्यान दिया गया। इस रणनीति से तात्कालिक लाभ होता है। दीर्घकालिक क्षति होती है। इस तरह की प्रस्तुतियों में बार बार आने से लेखक के अंदर यह भ्रम पैदा होता है कि वह साहित्य के लिए बहुत कुछ कर रहा है। प्रसिद्ध मार्क्सवादी ज़ीन बौद्रिलार्द ने इसे हिंसाचार की  संज्ञा दी है। मीडिया इमेजों के जरिए,मीडिया  बयानों के जरिए हम अपने को सजाने,संवारने लगे हैं,जिसकी मीडिया में जितनी ज्यादा प्रस्तुति वह उतना ही बड़ा आलोचक-साहित्यकार, असल में यह स्मृति के साथ हिंसाचार है।
मीडिया प्रस्तुतियों से जब इमेज बनती है तो वह दर्शक या पाठक की आदिमचेतना के संदर्भों को जगाती है। इससे मिथ बनाने में मदद मिलती है। इससे रीयल इवेंट यानी सामाजिक परिवर्तन से लेखक की दूरी बनती है। यही वजह है कि क्रांति अब साहित्य का प्रधान एजेंडा नहीं है। इन दिनों हमारी पूरी व्यवस्था नकारात्मक कल्पनाओं में विश्राम कर रही है हमने इतिहासलेखन बंद कर दिया है।हम साहित्य लिख रहे हैं और उसका मीडिया इवेंट बना रहे हैं। इतिहास को विश्राम दे दिया गया है। अब हम क्रांति के सवालों पर बात नहीं कर रहे बल्कि उनकी जगह मानवाधिकारहनन के सवालों ने ले ली है।
       साहित्य में सामयिक यथार्थ पर कम लिखा जा रहा है। पुराने अतीत पर ज्यादा लिखा जा रहा है। इतिहास की खोज करते करते हम अतीत में जा रहे हैं।पुराने मूल्य,पुरानी संस्कृति, सभ्यता आदि की गुफों में जा रहे हैं। अतीत की गुफाओं में घूमते घूमते हम खुद गुफावासी हो गए हैं।इतिहास भी गुफावासी हो गया है। दूसरी ओर हर चीज को सतह पर देखने की उत्तेजना ने द्वंद्ववादी नजरिए से देखने से वंचित कर दिया है। साहित्य में बड़े पैमाने पर ऐसे विचार पेश किए जा रहे हैं जो अप्रासंगिक हैं। बोगस विचारधाराओं का जमकर प्रचार हो रहा है। मृत अवधारणाओं को पेश किया जा रहा है। यह एक तरह से ऐतिहासिक और बौद्धिक कचरा है।यह औद्योगिक कचरे से भी ज्यादा खतरनाक है। इस कचरे की सफाई करने की जरूरत है इससे धर्मनिरपेक्ष बेबकूफियों से भी निजात मिलेगी।


      साहित्य की आज परिभाषा बदल गयी है। बदली हुई परिभाषा के कारण रामविलास शर्मा के साहित्यलेखन (कविता,निबंध,आलोचना,भाषा आदि) और गैर -साहित्यलेखन (इतिहास,राजनीति,दर्शन आदि) में अंतर खत्म हो गया है। एक जमाना था साहित्य में विधाओं के नाम पर वर्गीकरण बना। यह लंबे समय से चला आ रहा है। लेकिन अब साहित्य को विधाओं में बांटकर नहं पढ़ा जा सकता। पढ़ेंगे तो ज्यादा दूर तक मदद नहीं मिलेगी। कम्प्यूटर युग आने के साथ साहित्य का पैराडाइम बदला है। आधुनिक साहित्य की समस्त धारणाएं प्रेसक्रांति के आधार पर बनी हैं। यह आधार बुनियादी तौर पर बदल चुका है। आज कम्प्यूटर जीवन की चालकशक्ति है और संचार की धुरी है। हमें गंभीरता के साथ उन तमाम धारणाओं पर पुनर्विचार करना चाहिए जो कम्प्यूटर युग के पहले की हैं और साहित्य,समाजविज्ञान आदि में प्रचलित हैं।
   साहित्य की नयी परिभाषा साहित्य को विधाओं में वर्गीकृत करके नहीं देखती बल्कि लेखन के रूप में देखती है। पहले साहित्य में गैर-साहित्यिक रचनाओं को महत्वपूर्ण नहीं माना जाता था। लेकिन इस नजरिए से अपने को अलग करते हुए रामविलास शर्मा ने साहित्य और गैर-साहित्य लेखन के भेद को अस्वीकार किया और महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण नामक किताब में विस्तार के साथ द्विवेदीयुग का विवेचन किया। इस किताब में वह सामग्री भी पर्याप्त मात्रा में शामिल की गई है जो गैर-साहित्यिक है। साहित्य में साहित्यिक और गैर -साहित्यिक के भेद की समाप्ति एक नया प्रस्थान बिंदु है। मसलन् , भारतेन्दुयुग,नवजागरण या प्रेमचन्दयुग पर लिखी किताबों में वे विज्ञान, ज्योतिष, राजनीति ,अर्थनीति आदि के साहित्यलेखन के साथ अंतर को बनाए रखते हैं। लेकिन महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण(1977) किताब में यह भेद खत्म हो जाता है। यानी साहित्य की अवधारणा में बुनियादी बदलाव के बिंन्दु के रूप में सन् 1977 को रख सकते हैं। यह साल कई मायनों में महत्वपूर्ण है । इस साल आपात्काल खत्म होता है। लोकतंत्र के प्रति आम जनता की जागरूकता और प्रतिबद्धता में इजाफा होता है। नई तकनीकी क्रांति के कम्प्यूटर युग का बुनियादी आधार उल्लेखनीय है अंतरिक्ष में आर्यभट उपग्रह छोडे जाने के साथ रखा जाता है। कम्प्यूटर क्रांति कहीं पर भी उपग्रह क्रांति के बिना नहीं हुई है। आपात्काल में आर्यभट उपग्रह का सफल प्रक्षेपण भारत के लिए बुनियादी परिवर्तन की अनंत संभावनाएं लेकर आया।
      रामविलास शर्मा ने 'महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण '  में साहित्य की क्रांतिकारी भूमिका के ऊपर रोशनी डालते हुए महावीरप्रसाद द्विवेदी के जरिए लिखा, '' आँख उठाकर जरा और देशों तथा और जातियों की ओर तो देखिए।आप देखेंगे कि साहित्य ने वहाँ की सामाजिक और राजकीय स्थितियों में कैसे कैसे परिवर्तन कर डाले हैं ;साहित्य ही ने वहाँ समाज की दशा कुछ की कुछ कर दी है;शासन प्रबन्ध में बड़े उथल-पुथल कर डाले हैं;यहाँ तक कि अनुदार धार्मिक भावों को भी जड़ से उखाड़ फेंका है।साहित्य में जो शक्ति छिपी रहती हैवह तोप ,तलवार और बम्ब के गोलों में भी नहीं पाई जाती।योरप में हानिकारिणी धार्मिक रूढ़ियों का उत्पाटन और उन्नयन किसने किया है? पादाक्रान्त इटली का मस्तक किसने ऊँचा उठाया है ? साहित्य ने,साहित्य ने ,साहित्य ने। जिस साहित्य में इतनी शक्ति है,जो साहित्य मुर्दों को भी जिन्दा करनेवाली संजीवनी औषधि का आकर है,जो साहित्य पतितों को उठाने वाला और उत्थितों के मस्तक को ऊँचा करनेवाला है उसके उत्पादन और संवर्धन की चेष्टा जो जाति नहीं करती वह अज्ञानान्धकार के गर्त में पड़ी रहकर किसी दिन अपना अस्तित्व ही खो बैठती है। अतएव समर्थ होकर भी जो मनुष्य इतने महत्वशाली साहित्य की सेवा और अभिवृद्धि नहीं करता अथवा उससे अनुराग नहीं रखता वह समाजद्रोही है,देशद्रोही,वह जातिद्रोही है, किंबहुना वह आत्मद्रोही और आत्महंता भी हैं।"[1] इस उद्धरण को लिखने के बाद रामविलास शर्मा ने आधुनिक रीतिवाद पर बड़ी ही मारक टिप्पणी की है, लिखा है, " हिन्दी में आत्महन्ता लोगों की कमी नहीं है।हम देश और जाति के अंग हैं।देश-विरोधी,जाति-विरोधी दृष्टि का अर्थ है आत्मद्रोही,आत्महंता दृष्टि। वे तमाम लोग जो समाज से कटकर व्यक्तित्व-विकास की साधना में लगे हैं, वे क्रमशः व्यक्तित्व-शून्यता की ओर बढ़ते गए हैं। उनका साहित्य रूढ़ियों की आवृत्ति मात्र होकर रह गया है; वे रूढ़ियां कहीं नयी हैं,कहीं पुरानी,कहीं देशी हैं,कहीं विदेशी।"[2]
      रामविलास शर्मा के नजरिए की खूबी यह है कि वे साहित्य को जातीय साहित्य की अवधारणा तक सीमित करके नहीं देखते। वे साहित्य की बृहत्तर भूमिका में जाति साहित्य को भी शामिल करते हैं। हिन्दी में यह रूढ़िवाद चल रहा है कि जब भी साहित्य की बात होती है तो अनेक आलोचक जातीय साहित्य को साहित्य की परम चौकी मानकर बातें करते हैं। वे जातिसाहित्य की अवधारणा के बाहर बृहत्तर साहित्य की भूमिका की अनदेखी करते हैं।
    रामविलास शर्मा के अनुसार साहित्य की बुनियादी प्रकृति है कि उसे किसी भी किस्म की रूढ़ियाँ पसंन्द नहीं हैं। साहित्य स्वभावतः रूढ़ियों का विरोधी होता है।उन्होंने लिखा है , " जाति या समाज गतिरूद्ध,रूढ़िबद्ध,जड़ इकाई नहीं है। वह परिवर्तनशील, विकासमान ,अवरोध पैदा करने वाली,और अवरोधों को हटानेवाली इकाई है।यूरप की हानिकारक धार्मिक रूढ़ियाँ समाज की ही देन थीं। पोप की प्रभुता उसे समाज से ही प्राप्त हुई थी, फ्रान्स का अभिजात शासकवर्ग फ्रान्सीसी जाति का ही अंग था। किन्तु पोप की प्रभुता ,धार्मिक रूढ़ियाँ ,फ्रान्सीसी अभिजात वर्ग की प्रभुसत्ता समाज के विकास -पथ में जबर्दस्त रूकाबटें बन गई थीं।समाज के अन्य अंगों ने इन अवरोधों को दूर किया।इस संघर्ष में साहित्य तटस्थ नहीं रहता।या तो वह रूढ़िवादियों का साथ देता है या रूढ़ि-विरोधियों का। जो साहित्य गतिरूद्ध,प्रतिक्रियावादी,प्रगति-विरोधी वर्गों का साथ देता है,वह स्वयं अशक्त और निर्जीव हो जाता है। इसके विपरीत जो साहित्य सामाजिक परिवर्तन करने वाले क्रांतिकारी वर्गों का साथ देता है,उनका मार्गर्शन करता है, उन्हें संगठित होने में, दृढ़तापूर्वक अपना संघर्ष चलाने में सहायता देता है,वह समर्थ और जीवन्त होता,वह साहित्य के जातीय स्वरूप की रक्षा करते हुए उसे विकसित करता है।"[3] यहां पर रामविलास शर्मा ने साहित्य की बृहत्तर धारणा के अंग के रूप में जातीय साहित्य को रखकर देखा है।
    उपग्रह क्रांति अनेक पुरानी धारणाओं-मान्यताओं और व्यवस्थाओं, खासकर उन व्यवस्थाओं के लिए चुनौती है जो बुर्जुआ व्यवस्था की संगति में अपना विकास नहं करतीं। उन समाजों के लिए चुनौती है जो लोकतांत्रिक नहीं है। इसमें इजारेदार भाव भी है।
     विचारणीय सवाल यह है कि सोवियत संघ मे सबसे पहले उपग्रह क्रांति हुई, लेकिन ऐसे क्यों हुआ कि संचारक्रांति अमेरिका में हुई ? सोवियत संघ ने उपग्रह क्रांति को राष्ट्र की सेवा,सुरक्षा संसाधनों के विकास तक सीमित रखा।उसे आम जनता में नहीं पहुँचाया। संभवतः रूसी शासक और वैज्ञानिक जानते थे कि उपग्रह क्रांति का यदि संचार क्रांति में रूपान्तरण कर दिया जाए तो समाजवादी व्यवस्था ढह जाएगी। यह संयोग है कि समाजवाद के पतन में उपग्रह क्रांति की केन्द्रीय भूमिका रही है।
      उपग्रह क्रांति के दौर में सारी विधाएं ,मीडियम,समाजविज्ञान आदि ज्ञान-विज्ञान की तमाम शाखाओं में कनवर्जन की प्रक्रिया तेज हो जाती है। हमारी दैनंदिन जिंदगी जितनी कम्प्यूटर और उपग्रह नियंत्रित हो जाती है ,हम उतने ही पुरानी चीजों से मुक्त होते चले जाते हैं। इसका साहित्य पर असर पड़ा है। अब साहित्य और गैर साहित्य का भेद खत्म हो गया है। मीडिया और मासमडिया का अंतर खत्म हो गया है। विधाओं का अंतर खत्म हो गया है। अब सब कुछ लेखन है और सब कुछ कम्युनिकेशन है।   
    हिन्दी में साहित्य पदबंध 19वीं सदी में प्रयोग में आता है। उसके पहले काव्य था, नाटक था। लेकिन साहित्य पदबंध नहीं था। काव्य और नाटक दोनों ही आज साहित्य के अंग हैं। 19वीं सदी में प्रेस के आने के बाद साहित्य की धारणा आई। साहित्य में नई विधाएं आईं।
      रामविलास शर्मा के आलोचना में दाखिल होने के साथ बुनियादी तौर पर लोकसाहित्य जो पहले साहित्य का हिस्सा था लेकिन नए युग के साथ वह साहित्य से बाहर निकाल दिया गया था। लेकिन 1857 के संग्राम के मूल्यांकन के संदर्भ में उन्होंने लोकसाहित्य को पुनः साहित्य में प्रतिष्ठित किया। इसके पहले राहुल सांकृत्यायन यह काम कर चुके थे।
    साहित्य पदबंध के विकास के लिए साक्षरता,प्रेस और स्वायत्तता जरूरी है। साक्षरता का जितना विकास होगा साहित्य के विकास की उतनी ही संभावनाएं हैं। मध्यकाल में लेखक राज दरबार पर आश्रित था। लेकिन नए जमाने में लेखक वह माना गया जो लिखता था। चाहे वो कुछ भी लिखे। हर किस्म के लेखन को साहित्य में शामिल कर लिया गया। प्रेस और नए पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के आने साथ लेखक को राजाश्रय से मुक्ति मिली।लेखक में निजता का बोध पैदा हुआ। स्वाभिमान पैदा हुआ। प्रकाशन का व्यावसायिक वातावरण पैदा हुआ।
        रामविलास शर्मा का बड़ा योगदान है कि वे व्यापारिक पूंजीवाद और पूंजीवाद के साथ जोड़कर मध्यकाल और आधुनिककाल के साहित्य को देखते हैं। उनके पहले पूंजीवादी व्यवस्था या व्यापारिक पूंजीवाद पदबंध का साहित्य समीक्षा में इस्तेमाल नहीं होता था। साहित्य समीक्षा में मार्क्सवादी केटेगरी में विस्तार से सोचने,लिखने और वर्गीकृत करने की परंपरा आरंभ हुई। उसके पहले साहित्यसमीक्षा अवर्गीय गैर मार्क्सवादी कोटियों में सोचती थी। इसी तरह मासमीडिया में प्रकाशित सामग्री को साहित्य मानते हैं। साथ ही साहित्य में प्रचलित विधाओं के परे जाकर साहित्य की व्यापक केटेगरी में रखकर सोचते हैं।  
      सवाल यह है कि मार्क्सवाद की आधुनिक केटेगरी में सोचने से आलोचना ठोस और प्रामाणिक बनी या वायवीय बनी ? मार्क्सवादी कोटियों में लिखने का पहला परिणाम यह निकला कि साहित्य और श्रम के बीच में अलगाव खत्म हुआ।  सौंदर्य और श्रम के बीच का अलगाव खत्म हुआ।श्रम और श्रमिकवर्गों के साथ संबंध और गैर-श्रमिकवर्गों के साथ संबंध के आधार पर लेखक और साहित्य की भूमिका को नए सिरे से परिभाषित किया गया। श्रम के मानवीय और सर्जनात्मक पहलुओं की खोज का काम नए सिरे से आरंभ हुआ। श्रम और श्रमिक केटेगरी में आने वाले लोग कल तक हाशिए पर भी नहीं गिने जाते थे। रामविलास शर्मा की समीक्षादृष्टि ने उन्हें सांस्कृतिक महत्ता और सत्ता के सर्वोत्तम शिखर पर आरूढ़ कर दिया। इससे साहित्य के रहस्यमय क्षेत्रों को ठोस रूप में वर्गीय सामाजिक कोटियों में देखने का सिलसिला आरंभ हुआ।
     इसके अलावा साहित्यिक विधाओं और लेखकों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ठोस वैज्ञानिक केटेगरी में रखकर विश्लेषित करने की परंपरा आरंभ हुई। उल्लेखनीय है आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के हिंदी साहित्य का इतिहास और हजारीप्रसाद द्विवेदी की हिंदी साहित्य की भूमिका में आधुनिक समाजशास्त्रीय शब्दावली में सोचने की परंपरा आरंभ हो चुकी थी,लेकिन इन दोनों के यहां अवर्गीय कोटियों के पदबंधों का प्रयोग ज्यादा मिलता है। नए पदबंध मिलते हैं लेकिन उनकी वर्गीय अर्थ संरचनाएं नहीं मिलतीं। रामविलास शर्मा का यह सबसे बड़ा योगदान है कि उन्होंने समीक्षाशास्त्र में नई वर्गीय शब्दावली का प्रयोग आरंभ किया और पदबंधों में निहित वर्गीय अर्थों को जनप्रिय बनाया।
       रामविलास शर्मा का दूसरा बड़ा योगदान है साहित्य और स्वाधीनता संग्राम,खासकर सन् 1857 के संग्राम के साथ साहित्य के अंतस्संबंध को स्थापित किया। कालान्तर में स्वाधीनता संग्राम और साम्राज्यवाद विरोधी जनसंघर्षों के साथ साहित्य के अन्तस्संबंध को स्थापित किया।
 प्रगतिशील साहित्य की अवधारणा और उसकी भूमिका पर रामविलास शर्मा ने लिखा '' प्रगतिशील साहित्य जनता की तरफदारी करने वाला साहित्य है...  जनता की जातीय संस्कृति और रक्षा के विकास के लिए संघर्ष उसकी स्वाधीनता और जनवादी अधिकारों के लिए संघर्ष का अभिन्न अंग है।''[4]
   रामविलास शर्मा का मानना है '' साहित्य आर्थिक परिस्थितियों से नियमित होता है लेकिन उनका सीधा प्रतिबिम्ब नहीं है। उसकी अपनी सापेक्ष स्वाधीनता है। साहित्य में सभी तत्व समान रूप से परिवर्तनशील नहीं हैं ; इन्द्रियबोध की अपेक्षा भाव और भावों की अपेक्षा  विचार अधिक परिवर्तनशील हैं।युग बदलने पर जहाँ विचारों में अधिक परिवर्तन होता है,वहाँ इन्द्रियबोध और भाव-जगत् में अपेक्षाकृत स्थायित्व रहता है।यही कारण है कि युग बदल जाने पर भी उसका साहित्य हमें अच्छा लगता है।यही कारण इस बात का भी है कि पुराने साहित्य की सभी बातें समान रूप से अच्छी नहीं लगतीं।सबसे ज्यादा मतभेद खड़ा होता है,विचारों को लेकर ,उसके बाद भावों को, और सबसे पीछे और सबसे कम इन्द्रियबोध को लेकर।हमारी साहित्यिक रुचि स्थिर न होकर विकासमान है;पुराना साहित्य अच्छा लगता है लेकिन उसी तरह नहीं जैसे पुराने लोगों को अच्छा लगा था।इसलिए मनुष्य अपनी नयी रुचि के अनुसार नये साहित्य का भी सृजन करता है।"[5]  
  
यहां पर रामविलास शर्मा ने मार्क्सवादी आलोचनादृष्टि के आधार आधार-अधिरचना के अंतस्संबंधों को खोजते हुए अधिरचना की महत्वपूर्ण और निर्णायक विचारधारात्मक भूमिका और आधार से अधिरचना की स्वायत्त भूमिका को रेखांकित कियाहै। लेकिन थ्योरी में वे कई स्थानों पर मार्क्स-एंगेल्स के आधार-अधिरचना वाले नजरिए का अतिक्रमण नहीं कर पाते। आधार-अधिरचना में उन्होंने एक समीक्षक के नाते अधिरचना पर खास जोर दिया। इस तरह के प्रयोग करते हुए वे दो किस्म के संकट में फंसते हैं। पहला संकट है समाजव्यवस्था और साहित्य के अंतस्संबंध का। इसमें वे यांत्रिक भौतिकवादी पद्धति के शिकार होते हैं। दूसरा संकट है अधिरचना में सिर्फ साहित्य को विचारधारा मानना। आस्था और सौंदर्य नामक किताब में यह संकट दिखाई देता है। रामविलास शर्मा ललितकलाओं की विचारधारात्मक भूमिका नहीं देख पाते। यह स्थिति उनके भारतीय साहित्य की भूमिका में शामिल संगीत संबंधी निबंध में देखी जा सकती है।
    रामविलास शर्मा ने समीक्षा को सेतु (मेडीएशन) के रूप में इस्तेमाल किया है। साहित्य और पाठक के बीच में समीक्षा सेतु है। इस सेतु से गुजरे बिना साहित्य के मर्म को पकड़ना मुश्किल है। मेडीएशन के रूप में आलोचना का इस्तेमाल करते हुए आलोचना को उन्होंने प्रोडक्टिव बनाया है। नए अर्थ की सृष्टि का केन्द्र बनाया है। इस क्रम में उन्होंने साहित्य और समाज में चले आ रहे विनिमय के रूपों को उजागर किया है।
     साहित्य में कोई भी प्रवृत्ति अपने चरम पर कैसे पहुँची, उसे नए ढ़ंग से खोला है। मसलन्,सगुण हो निर्गुण काव्यधारा,भारतेन्दुयुग हो या छायावाद, इन सबके बारे में उन्होंने लेनिन के सूत्र को ख्याल करते हुए विचार किया है। मेडीएशन में लेनिन ने विपरीतों की एकता सूत्र को आधार बनाया था। रामविलास शर्मा प्रत्येक प्रवृति या लेखक पर विचार करते समय विपरीत प्रवृत्तियों को ,उनके अंतर्विरोधों को एक ही लेखक या युग में खोजते हैं और फिर उनके अंतर्विरोधी तत्वों की एकता को उभारते हैं। साथ ही अंतर्विरोध के गर्भ से किस तरह रूपान्तरण हो रहा है, इस ओर ध्यान खींचते हैं। उसके तर्क को रेखांकित करते हैं।
   रामविलास शर्मा का तीसरा बड़ा योगदान है कि लेखक,प्रवृत्ति और युग के बारे में विचारधारा की केटेगरी के आधार पर सोचने की परंपरा का जन्म होता है। पहले विचारधारा की केटेगरी में बांधकर हिंदी आलोचक कम सोचते थे।
        चौथा बड़ा योगदान है कि वे आलोचनात्मक नजरिए से सब समय काम लेते हैं। उनके लेखन में साहित्य से लेकर राजनीति तक सभी विषयों पर जो भी लिखा मिलता है उसमें आलोचनात्मक एप्रोच बराबर बनी रहती है। इस एप्रोच के एक सिरे पर मार्क्सवाद समाजवाद है ,और दूसरे सिरे पर हिंदी जाति है। इन दो की संगति-असंगति के आधार पर  अच्छी चीजों को स्वीकार कर लेते हैं और बुरी चीजों को तुरंत खारिज कर देते हैं। वे समसामयिक दौर में मार्क्सवाद को लेकर जो संदेह और संशय पैदा हुआ और साम्राज्यवाद के प्रति जो अपील पैदा हुई इससे एकदम प्रभावित नहीं होते। वे समाजवादी व्यवस्था के पराभव से निराश भी नहीं होते। लेकिन एक परिवर्तन आता है वे समाजवाद के यूटोपिया का प्रचार नहीं करते। प्रगतिशील बुद्धिजीवियों में जो एक जमाने में आकर्षण था उससे अपने को अलग करते हैं। वे साहित्य और राजनीति के सवालों पर खुले नजरिए से विचार करते हैं। प्रत्येक अवधारणा या समस्या की वैचारिक जड़ों में जाने की कोशिश करते हैं।
    साहित्य पर मार्क्सवादी कठमुल्लों की तरह आधार-अधिरचना के मॉडल के आधार पर विचार नहीं करते। बल्कि इस मॉडल का अतिक्रमण भी करते हैं। वे एक नए मॉडल को विकसित करते हैं वे साहित्य में प्रामाणिक तत्व कौन से हैं और छद्मचेतना के तत्व कौन से हैं इनके आधार पर विवेचन करते हैं। साहित्य से लेकर राजनीति तक सभी विषयों पर बार-बार विचारधारा के सवालों पर लौटते हैं। विचारधारा को जिस तरह इनदिनों आलोचना ने तिलांजलि दी हुई है उसने साहित्य की सबसे ज्यादा क्षति की है। रामविलास शर्मा ने बार-बार समाजवाद,साम्राज्यवाद,प्रगतिशील साहित्य,छायावाद,नयी कविता,साम्प्रदायिकता,बुर्जुआवर्ग,संस्कृति, मध्यवर्ग,मजदूरवर्ग,किसान,हिन्दीजाति, जातीय साहित्य, भारतीय साहित्य आदि सभी विषयों विचारधारात्मक नजरिए के मूल्यांकन को प्राथमिकता दी है।
     साहित्य से लेकर राजनीति तक,मासममीडिया से लेकर दर्शन तक,सभी विषयों में विचारधारा की खोज पर मुख्यरूप से जोर दिया है। विचारधारा के आधार पर चीजों को परखने के कारण वे संबंधित विषय का विचारधारा में संकुचन नहीं करते। वे रेखांकित करते हैं कि विचारधारा आज बेहद जरूरी है। उल्लेखनीय है आजाद भारत में साहित्य से लेकर मीडिया तक विचारधारा का क्रमशः अवमूल्यन हुआ है ।खासकर मार्क्सवादी विचारधारा को अपराधी घोषित कर दिया गया है। यही वह संदर्भ है जहां रामविलास शर्मा की शक्ति हमें नजर आती है।
    रामविलास शर्मा बार बार परंपरा या पुराने साहित्य की ओर लौटते हैं। इसके बहाने वे बताना चाहते हैं कि पुराना पूरी तरह खारिज करने लायक नहीं है। बल्कि बुर्जुआकलाओं या साहित्यरूपों की तुलना में गैर बुर्जुआ साहित्यरूपों की महत्ता को पेश करते हैं। आजादी के बाद रामविलास शर्मा अपने को सक्रिय क्रांतिकारी राजनीति और लेखकसंघ की गतिविधियों से अलग कर लेते हैं।
      द्वितीय विश्वयुद्ध में फासिज्म की पराजय,भारत विभाजन,और भारत में लोकतंत्र की स्थापना ने उनके मन में भारत में क्रांति की आशा को ही खत्म कर दिया।इस क्रम में क्रांति अब एक वैकल्पिक सिस्टम के रूप में नहीं रह गयी। वे निजी तौर पर तेलंगाना आंदोलन की असफलता के बाद बदली हुई परिस्थितियों में अपने को कम्युनिस्ट पार्टी से अलग करते हैं। लोकतंत्र के आने का अर्थ यह भी था कि अब क्रांति नहीं हो सकती। इस मान्यता ने उनको गहरे प्रभावित किया।
    लोकतंत्र के आने से क्रांति की विदाई होती है। इस बात को आज भी अनेक लोग नहीं मानते। लोकतंत्र की सामान्य विशेषता है कि वह बुनियादी सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन और बुर्जुआसमाज के परिवर्तन की संभावनाएं हमेशा के लिए खत्म कर देता है। समाजवाद के जिन आदर्शों के आधार पर विचारक समाज बदलने का सपना देख रहे थे उस सपने का अंत हो जाता है। लोकतंत्र में सामाजिक व्यवस्था परिवर्तन के सपने साकार नहीं होते।
     रामविलास शर्मा की किताबों में बड़े पैमाने पर विभिन्न किताबों के उद्धरण मिलते हैं। ये उद्धरण अनेक किस्म की उलझन पैदा करते हैं और अनेक लोग हैं जो उनकी इस पद्धति की आलोचना भी करते हैं। सवाल यह है कि वे ऐसा क्यों करते हैं ? असल में प्रामाणिक लेखन के लिए उद्धरण जरूरी हैं,दूसरी बात यह कि एक मार्क्सवादी अन्य के ज्ञान की उपेक्षा नहीं करता, उसका छद्म इस्तेमाल नहीं करता। उद्धरणों का व्यापक प्रयोग मार्क्सवादी पद्धति की विशेषता है।यह प्रामाणिक लेखन का हिस्सा है। प्रसिद्ध मार्क्सवादी वाल्टर बेंजामिन ने इस प्रसंग में जो बात कही है वह अक्षरशःरामविलास शर्मा पर लागू होती है।
       साहित्य आलोचना का कार्यक्रमनिबंध में वाल्टर बेंजामिन ने लिखा है, अच्छी आलोचना अधिकतम दो तत्वों से बनती हैःउद्धरण और आलोचनात्मक लेपन। खूब अच्छी आलोचना लेपन और उद्धरण दोनों के मेल से बनायी जा सकती है।लेकिन जिससे हर हाल में प्लेग की तरह बचना है वो है विषयवस्तु के सारांश का पुनर्कथन। इसके विपरीत ऐसी आलोचना विकसित करनी चाहिए जिसमें केवल उद्धरण हो।
 नकली आलोचना- रामविलास शर्मा की आलोचना की महत्ता तब अच्छे ढ़ंग से समझ में आएगी जब हम नकली आलोचना के वातावरण को तोड़ें। आज हिंदी में नकली आलोचना खूब लिखी जा रही है।
   इसका पहला लक्षण है ,आलोचक बिना जाने-समझे नवीनतम अवधारणाओं पर फैशन की तरह लिख रहे हैं।
  दूसरा,राजनीतिक रणनीतियों और साहित्यिक रणनीतियों में पूरी तरह अलगाव। आलोचनात्मक विचार हमारे राजनीतिक सत्य और तथ्य से पूरी तरह कट गया है।
    तीसरा, वैयक्तिक पसंद-नापंसद के आधार पर पक्षधर लेखन । आलोचना में वैयक्तिक पसंद-नापसंद के आधार पर खूब लिखा जा रहा है।माओवाद से लेकर नव्य-आर्थिक उदारीकरण पर जमकर अतिवादी ढ़ंग से नकली आलोचना लिखी जा रही है। इससे भारत की सटीक राजनीतिक तस्वीर नहीं  आंकी जा सकती।
    चौथा,आलोचना में पत्रकारिता की समीक्षाशैली का आगमन।इसके आधार पर व्यापक पैमाने पर पुस्तक समीक्षाएं लिखी जा रही हैं। पत्रकारिताशैली में लिखी आलोचनाएं या टीवी से प्रसारित पुस्तक समीक्षा वस्तुतःनकली आलोचना  का ही एक रूप हैं। इस शैली ने आलोचना की छद्म मुद्राओं को जन्म दिया है। साहित्यिक पत्रिकाओं में पुस्तक समीक्षा या समीक्षा के नाम पर ऐसी समीक्षा लिखी जा रही है। इसकी शैली है यह मेरी निजी धारणा है , आलोचना में निजी धारणा जैसी कोई चीज नहीं होती। आलोचना नेकनीयती का लेखन भी नहीं है।
   पांचवां, साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित समीक्षा में सचेत रूप से आलोचना और राजनीति के अन्तस्संबंध का विच्छेद। इस आलोचना में किसी भी किस्म की राजनीतिक प्रतिबद्धता नहीं है। यह आलोचना मनमौजी प्रतिक्रिया और तयशुदा रूप में लिखी जा रही है। इसमें प्रतिरोधी शक्ति नहीं है। फलतः आलोचना में प्रतिरोधहीनता चरम पर पहुँच गयी है।
   छठा,  समीक्षक द्वारा प्रकाशक के दायित्व का निर्वहन।मसलन् प्रमुख समीक्षकों द्वारा पसंदीदा प्रकाशक की किताबों की भूरि-भूरि प्रशंसा। प्रकाशक की सेवा में लिखी या बोली गयी इस तरह की समीक्षा को इन दिनों वस्तुगत समीक्षा कहा जा रहा है,असल में यह रीतिवाद है।  इस तरह की समीक्षा वस्तुतः मार्केटिंग रणनीति का हिस्सा।इसमें समीक्षक वस्तुतः बिचौलिए की भूमिका अदा करता है। प्रकाशक से प्रतिबद्धता वैसे ही है जैसे आलोचक की किसी लेखक संघ या राजनीतिकदल से प्रतिबद्धता होती है और वह उसके विचारों के प्रचार के लिए लिखता है।
    सातवां, राजनीतिक कार्यक्रम के आधार पर आलोचना लेखन। इस तरह की समीक्षा अवसरवादी समीक्षा है। जबकि यह क्रांतिकारी समीक्षा होने का दावा करती है। इस तरह की समीक्षा ने आलोचना के बुनियादी लक्ष्य को ही तिलांजलि दे दी है। इस समीक्षा ने राजनीतिक अंतर्वस्तु विवेचन को ही समीक्षा बना दिया है। वे कृति बाह्य संबंधों को तो देखते हैं लेकिन आंतरिक संबंधों को उदघाटित नहीं कर पाते।
   वाल्टर बेंजामिन के शब्दों में  किसी कृति की भीतरी दुनिया देखने का अर्थ है उन तरीकों का हवाला देना ,जहाँ कलाकृति का सत्य और भौतिक दुनिया का सत्य एक-दूसरे में प्रवेश करते हैं। यानी आलोचना का काम है कृति में निहित सत्य के साथ एकाकार होना। बेंजामिन कहते हैं कृति का वह आंतरिक इलाका,जहाँ सत्य का अंश और भौतिक अंश आपस में मिलते हैं। यही वह स्थान है जहां सौंदर्य के सारे संदेह गायब हो जाते हैं। 
    वाल्टर बेंजामिन के शब्दों में आलोचना  के लिए सबसे महत्वपूर्ण है कोमल स्पर्श ,वह दुलार जिसके  साथ वह रचना अपनी जड़ों समेत निकाली जाती है,क्योंकि यही वो चीज है जो ज्ञान की मिट्टी को उन्नत बनाती है।बाकी सब कुछ अपने आप होता जाएगा।क्योंकि रचना के गुण ही सर्वोत्तम अर्थों में आलोचना के नाम के हकदार हैं। 
   
     आठवां , आलोचना के नाम पर प्रशंसा की बौछार करना। प्रशंसा सबसे अधिक रचनाकार को ही संदिग्ध बना देती है। आलोचक ,अमूमन प्रशंसक या भांड की तरह वाहियात पुस्तकों की खूब प्रशंसा करते हैं। वे गंभीर पुस्तकों के साथ कोई भिन्न व्यवहार नहीं करते।
    नौवां, आस्थाओं के आधार समीक्षा लेखन। यह ऐसी समीक्षा है जो जीवनसत्य से एकदम कटी हुई है। ये ऐसी आस्थाएं हैं जो चुक गयी हैं, इनसे सामयिक यथार्थ पकड़ में नहीं आता। साहित्यिक गतिविधियों का एक बड़ा अंश इनसे संचालित है और यह पूरी तरह जीवनरहित और रिचुअल्स है।
    साहित्यिक गतिविधियां साहित्यिक माहौल नहीं बनाती और नहीं बिगाड़ती हैं , इनसे साहित्य का प्रभाव भी नहीं पड़ता। साहित्य का महत्वपूर्ण प्रभाव, सिर्फ़ लेखन और कर्म,कर्म और लेखन की नियमित अदला-बदली से ही संभव है।
   आलोचना के महत्व पर बेंजामिन के शब्दों में कहें तो समाज के विशालकाय अस्तित्व में ,मत-निर्धारण का वही महत्व है जो एक भारी मशीन के लिए तेल का होता है। कोई भी टरबाइन के सिर पर चढ़कर उसे तेल से नहीं नहलाता,बल्कि उन छोटे-छोटे तकुओं और छिपे हुए जोड़ों पर- जो सिर्फ़ उसे ही पता होते हैं-तेल की बूँदें टपकाता है।      

(रानी बिडला कॉलेज और गोयनका कॉलेज कोलकाता के संयुक्त तत्वावधान में रामविलास शर्मा पर आयोजित जन्मशती संगोष्ठी के मौके पर दिया गया बीजभाषण,यह भाषण कल के लिए पत्रिका के मार्च 2013 में प्रकाशित हुआ है ) 



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