शुक्रवार, 11 मई 2012

पश्चिम बंगाल में ममता सरकार का एक साल-विशेष लेख- मिस्चीफ मिनिस्टर

(पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री पर केंद्रित ‘इकोनोमिस्ट’ पत्रिका के ताजा 21 अप्रैल 2012 के अंक में प्रकाशित टिप्पणी। कहने की जरूरत नहीं कि ‘इकोनोमिस्ट’ लंदन से प्रकाशित आज की दुनिया में वैश्वीकरण की विचारधारा की एक सबसे प्रमुख और प्रतिष्ठित साप्ताहिक पत्रिका है।अनुवाद- जगदीश्वर चतुर्वेदी)

कोलकाता के कूड़े से भरे बाजारों में घूमते किसी भी खरीदार को आम तौर पर यह पछतावा होता है कि एक महान ढहता हुआ लेकिन मजेदार शहर, जिसे कभी कलकत्ता के नाम से जाना जाता था और जो आज भी पश्चिम बंगाल राज्य की राजधानी है। जैसे प्लास्टिक की सस्ती चीजों और बंगाल के सांस्कृतिक नायक रवीन्द्रनाथ की प्लास्टर आफ पैरिस की आवक्ष-मूर्ति को खरीद कर किसी को अपनी जल्दबाजी के लिये अफसोस हो सकता है, वैसे ही पिछले साल के राज्य के चुनाव में वोट देने वाले अनेकों को हो रहा है। 34 सालों के अधम कम्युनिस्ट शासन से खिन्न लोगों ने ममता बनर्जी और उनकी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस को सत्ता सौंप दी। आज अपने इस चयन पर उनका अफसोस बिल्कुल साफ दिखाई देता है।

उनकी (ममता बनर्जी की . अनुवादक) भूलें साधारण किस्म की भूलें नहीं है। वे ईमानदार दिखती हैं; आज भी कोलकाता के एक गरीब इलाके में, एक बदबूदार नदी और उजड़ी हुई बेकरी के बीच फंसा हुआ दो मंजिलों का चूना पुता बक्सेनुमा घर है। उनका शौक फेरारियां नहीं, बल्कि प्रकृति का चित्रांकन और कविता है। एक प्रमुख बंगाली व्यवसायी उनकी बहुतेरी बातों की अनदेखी करते हुए, क्योंकि वे एक भयावह विरासत से जूझ रही हैं, उनकी ऊर्जा और स्पष्टवादिता की प्रशंसा करता है। यह भारत में सबसे अधिक कर्ज से लदा राज्य है, और, कम्युनिस्टों के अपेक्षाकृत सुधारवादी अंतिम सालों के मामूली प्रयत्न के बावजूद यहां कोलकाता से बाहर बहुत थोड़ा विकास हुआ जिसके चलते संपत्तियों के दामों में तेजी आयी तथा यह राज्य भारत के आउटसोर्सिंग साम्राज्य की एक चौकी बना।

बंगाली प्रतिभाशाली, हर बात पर भुनभुनानेवाले, होते हैं। उनकी शिकायत उनकी कार्य शैली से है। एक पत्रकार की राय में, स्तालिनपंथी मानस है। एक पार्टी का वरिष्ठ नेता कहता है, मंत्रीमंडल के सहयोगी जानलेवा आतंक में जीते हैं। एक नौजवान आलोचक ताना कसता है, उनका शासन ‘एक आदमी की सेना’ है। एक स्वेच्छाचारी रुझान जो विलक्षण प्रकार की भारी भूलें कराता है। उनका कहना था कि सामूहिक बलात्कार की एक पीडि़ता उनके शासन को बदनाम करने के लिये साजिश कर रही थी, और उन्होंने बलात्कारियों को पकड़ने वाली होशियार महिला पुलिस अधिकारी को दंडित कर दिया। फिर इसी महीने वे दो शिक्षाविदों की गिरफ्तारी से खुद को अलग नहीं कर पायीं, जिनमें से एक की पिटाई की गयी थी। उसने सिर्फ फेसबुक पर तथा ई-मेल से उनके बारे में एक कार्टून सांझा किया था। इससे जाहिर है कि वे मामूली आलोचना भी बर्दाश्त नहीं कर सकती। इसीप्रकार सार्वजनिक पुस्तकालयों में उन्होंने उन अखबारों पर पाबंदी लगा दी जिन्हें वह नापसंद करती है। एक मीडियाशाह, अभीक सरकार (आनंद बाजार   ग्रुप का मालिक-अनु.)जिसका मीडिया ग्रुप उसकी आलोचना कर रहा है, आशंका में है कि वह उसकी गिरफ्तारी का आदेश दे देगी: उसने ऐसे अब तक आठ संभावित मामलों के लिये ‘अग्रिम जमानत’ ले ली है।

उनके पक्षधरों का मानना है कि वह अपना काम सीख रही है, जिसके लिये उन्हें दिल्ली में कुछ वर्षों तक मंत्री रह कर रेलवे को (गंदे ढंग से) चलाने का अनुभव यथेष्ट नहीं था। उनका आंग्ल-भारतीय प्रवक्ता डेरेक ओ’ब्रायन थोड़ा हकलाते हुए दावा करता है कि आपने अभी ममता का सर्वश्रेष्ठ देखा नहीं है। अब तक उनकी कार्यशैली के बारे में शिकायतें मुख्यत: शहरी अभिजनों तक सीमित जान पड़ती हैं। बड़ी चिंता इस बात की है कि वह सत्ता के साथ क्या करती है। उन्हें एक सफलता मिली है: माओवादियों पर उनके ग्रामीण आधार में घुस कर आघात किया है। अन्यथा, चीजें विकट दिखती हैं। सबसे अधिक चिंताजनक है वाम के मामले में कम्युनिस्टों को भी पछाड़ती उसकी आर्थिक नीतियां। 

   तृणमूल का अर्थ है ग्रासरूट्स। वे भारत की सबसे बड़ी कंपनी, टाटा की उस जमीन पर गाड़ी बनाने की योजना के खिलाफ अभियान चला कर जीती थी जो उनके अनुसार किसानों से गलत ढंग से ली गयी थी। टाटा सारे रोजगारों को लेकर एक मित्रवत राज्य, गुजरात भाग गया, लेकिन मतदाता खुश हुए।

एक लोकलुभावन लेकिन सिद्धांतकार नहीं - श्रीमती बनर्जी की सफलता पूरे भारत में एक दीर्घ-कालीन रुझान का संकेत है: राष्ट्रीय पार्टियों की कीमत पर क्षेत्रीय पार्टियों का उदय। गरीब, कम-शिक्षित, ग्रामीण (अपने आरामदेह दफ्तर में गहरी सांस के साथ एक शिक्षित बंगाली कहता है - लुंपेन) जो संपन्न अल्पसंख्यकों की तुलना में कहीं ज्यादा संख्या में वोट देता है, कम से कम उत्तर भारत में अक्सर अधिक से अधिक स्थानीय दलों को ज्यादा पसंद करता दिखाई देता है। श्रीमती बनर्जी का नजरिया सरकारी नौकरियों, कल्याण को बांटने तथा छोटे किसानों को सुरक्षा देने और उन सुधारों को धता बताने का है जिनसे राज्य में निवेश आकर्षित हो सकता है। उनकी सरकार ने इधर एक कानून अवश्य पारित किया है जिससे सरकारी जमीन के छोटे टुकड़ों को व्यवसायी उपयोग के लिये लीज पर दिया जा सकता है। तथापि उनकी यह सार्वजनिक प्रतिज्ञा है कि उद्योग को जमीन खरीदने में कोई मदद नहीं करेगी। और जमीन की मिल्कियत का मसला इतना टुकड़ों में बंटा हुआ तथा उलझा हुआ है कि जमीन चाहने वाली कंपनियां उससे दूर ही रहेगी।

प्रतीकों और सजावट पर ज्यादा ऊर्जा लगायी जा रही है। राज्य का नया नाम हुआ है - पश्चिम बंग। ऐसा लगता है कि श्रीमती बनर्जी यह मानती है कि सड़क की हर रेलिंग, पटरी, सार्वजनिक शौचालयों, मोड़ों और पुलों को नीली और सफेद धारियों से रंग कर वे कोलकाता में शैलानियों को आकर्षित कर लेगी। उसने शहर के हर मुहाने पर लाउडस्पीकरों से रवीन्द्रसंगीत बजाने का भी निर्देश दिया है और स्कूलों के पाठ्यक्रम से माक्‍​र्स को निकाल दिया है। वह व्यापरिक मंचों पर नहीं जायेगी और औद्योगिक संबंधों को बढ़ाने वाले दूतों से बैठक नहीं करेगी। पिछले महीने राज्य के बजट में भारत में कहीं से भी आने वाले सामानों पर सनकी प्रवेश कर को फिर से चालू कर दिया। यह व्यापार को नुकसान पहुंचायेगा और लगभग कोई राजस्व पैदा नहीं कर पायेगा। फिर इसी हफ्ते देश की बड़ी साफ्टवेयर कंपनी इंफोसिस ने अपने एक केंद्र के निर्माण को रोक दिया जिससे दस हजार रोजगार पैदा होते। श्रीमती बनर्जी ने उसे करों में राहत देने वाले विशेष आर्थिक क्षेत्र का दर्जा देने से इंकार कर दिया।

आने वाले समय में यह सब बहुत महंगा साबित होगा। सिर्फ किसान इतना कम राजस्व पैदा करते हैं कि उससे सड़कों, बिजली, स्कूलों और अस्पतालों का खर्च भी नहीं चल पायेगा। उनकी सरकार के राजस्व का सारा तो तनख्वाहों और दो खरब रुपये के ऋण पर ब्याज के भुगतान में ही चला जाता है। इससे श्रीमती बनर्जी के पास एक ही ध्वंसात्मक रास्ता बचा रहता है: भीख मांगो और दिल्ली में केंद्रीय सरकार को धमकाओं ताकि ऋण में राहत हासिल हो सके। कांग्रेस के एक जरूरी सहयोगी के नाते आज वे मजबूत स्थिति में है। लेकिन प्रणब मुखर्जी, उनके एक प्रमुख बंगाली प्रतिद्वंद्वी हैं और वे कोई विशेष मदद देने से इंकार कर रहे हैं। इसका परिणाम पश्चिम बंगाल और भारत की पंगुता है। वे सरकार के सुधार के कामों को रोकने में मदद कर रही हैं - सुपरमार्केट में विदेशी निवेश, ईंधन पर सबसिडी को कम करने, रेल बजट, बांग्लादेश से पानी के बंटवारे की संधि, और भ्रष्टाचार-विरोधी विधेयक में टांग अड़ा रही है। लेकिन उन्हें कोई राहत नहीं मिल रही है। यह गतिरोध चलेगा। कांग्रेस जुलाई में राष्ट्रपति पद के लिये अपने उम्मीदवार का चुनाव चाहती है और इसके लिये उनकी मदद की जरूरत पड़ेगी। वे तथा कुछ और राज्यों के नेता राष्ट्रीय आतंकवाद-विरोधी निकाय संबंधी एक योजना को रोक कर केंद्र से और अधिकारों को छीनना चाहते हैं। शासक गठजोड़ की एक प्रमुख  , एक ऐसे समय में जब केंद्र का नेतृत्व कमजोर है, क्षेत्रीय ताकत का प्रतिनिधित्व करती है। उनकी पार्टी जोर-शोर से ‘क्रियाशील संघवाद’ की बात करती है जिसके मायने हैं राज्यों का जनता के धन पर ज्यादा नियंत्रण होना चाहिये। इसप्रकार कांग्रेस के साथ तनाव बढ़ेंगे। लेकिन कोई भी यह उम्मीद नहीं करता कि वह गठबंधन छोड़ देगी। उन्हें एक मिसचीफ मेकर के रूप में देखा जा सकता है; लेकिन कम से कम अब तक पूरब की दुष्ट डायन के रूप में नहीं।

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