रविवार, 27 मई 2012

राष्ट्रीयविज़न के बिना ममता बनर्जी की बौनी राजनीति

पश्चिम बंगाल में संकीर्ण राजनीतिक पांसे तेजी से फेंके जा रहे हैं। इससे सामाजिक जीवन में अनुदार भावबोध पुख्ता होगा। इसे चालू भाषा में बौनी राजनीति कहते हैं। बौनी राजनीति वे करते हैं जिनके पास राष्ट्रीय विज़न नहीं होता। ममता बनर्जी के सत्ता में आने के साथ यह उम्मीद जगी थी कि राज्य सरकार नीतिगत बौनेपन से बाहर निकलेगी।लेकिन विगत एक साल में पश्चिम बंगाल में नीतिगत संकीर्णतावाद से निकलने की बजाय और भी ज्यादा अनुदार भावों-विचारों के हमले तेज हुए हैं।

ममता सरकार की विशेषता है राष्ट्रीयविज़न का अभाव और अंध-वाम विरोध।यह वस्तुतःजनघाती नजरिया है। राजनीति विशेषज्ञ आशाए लगाए बैठे थे कि अमेरिकी विदेश सचिव हिलेरी क्लिंटन से मिलने के बाद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की आंतरिक कट्टरता खत्म होगी। लेकिन हुआ एकदम उलटा। अमेरिकी विदेश सचिव हिलेरी क्लिंटन ने ममता बनर्जी को जब राज्य में अमेरिकी पूंजी निवेश का आश्वासन दिया था तो उनके दिमाग में यह था कि राज्य में सेजनीति है और अमेरिकी धनाढ़्यों को पश्चिम बंगाल में धन लगाने के लिए प्रेरित करने में कोई खास दिक्कत नहीं होगी। लेकिन अभी ममता-हिलेरी मुलाकात की खबरों की स्याही सूखी भी नहीं थी कि ममता सरकार ने सेजनीति खत्म करने का फैसला कर लिया।

सेजनीति के खत्म होने का अर्थ है कि आने वाले समय में पश्चिम बंगाल में कोई औद्योगिक निवेश नहीं आने वाला। देशी-विदेशी इजारेदार और बहुराष्ट्रीय कंपनियां सेज के अभाव में पश्चिम बंगाल में पूंजी निवेश के लिए आने वाली नहीं हैं। वैसे भी ममता सरकार की निष्क्रियता और गिरती साख के कारण विगत अक साल में एकदम पूंजी निवेश नहीं हुआ । न कोई नया कारखाना खुला और नहीं किसी पूंजीपति ने इस राज्य में दिलचस्पी ली। सिर्फ मीडिया इवेंट के प्रचार-प्रसार में विगत एक साल खत्म हुआ है।

लोग आस लगाए बैठे थे कि ममता बनर्जी दूसरे साल के आरंभ होने पर कुछ नये कदम उठाएंगी लेकिन उनको निराशा हाथ लगी है।अपनी सरकार के एक साल पूरा होने पर सार्वजनिक तौर पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि राज्य सरकार ने 3लाख लोगों के लिए नए पद सृजित किए हैं। कई लाख लोगों को वे निजी क्षेत्र में रोजगार मिलने के चांस हैं।लेकिन व्यवहार में उन्होंने किया उलटा। राज्य की 2003 में बनी सेजनीति खत्म करने का फैसला ले लिया। इससे राज्य में औद्योगिक विकास की संभावनाएं पूरी तरह खत्म हो गई हैं। इस फैसले का दोमुंहापन जगजाहिर है। मसलन् वामशासन में सेजनीति के तहत लिए गए फैसलों को बरकरार रखा गया है। साथ ही कई कंपनियों को आगामी वर्षों के लिए एक्सटेंशन भी दिया है। खडगपुर स्थित श्रेई इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनी को ममता सरकार ने सेज नीति के तहत एक्सटेंशन दिया है। पूर्व सरकार के सेज संबंधी फैसले नहीं बदले जाएंगे। यानी पूर्व फैसलों पर सेजनीति लागू रहेगी। लेकिन नए फैसले नहीं लिए जाएंगे।

दूसरी समस्या यह है कि मौजूदा सेज प्रकल्पों को किस नीति के तहत जारी रखा जाएगा ? सेजनीति जब खत्म हो गयी है तो पुराने सेज फैसलों पर किस नीति के तहत फैसले लिए जाएंगे? मुश्किल यह है कि ममता सरकार माओवादियों के विज़न के आधार पर राज्य की अर्थव्यवस्था को दुरूस्त करना चाहती है। भारत में सभी राज्यों में सेज नीति लागू है। अब सिर्फ पश्चिम बंगाल में सेज नीति नहीं होगी। कारपोरेट घराने सेज के तहत जहां बेहतर सुविधाएं मिल रही हैं वहां पर पूंजी निवेश करने जा रहे हैं। उल्लेखनीय है पश्चिम बंगाल में सेजनीति 2003 में बनाई गई थी। लेकिन 23मई 2012 को राज्य की मंत्रीमंडलीय उपसमिति ने सिफारिश की है कि राज्य की 2003 की सेजनीति को खत्म कर दिया जाए। उम्मीद है कि इस महीने के अंत में मंत्रीमंडलीय उपसमिति का फैसला मंत्रीमंडल के सामने रखा जाएगा। कायदे से ममता सरकार में शामिल अन्य मंत्रियों, खासकर कांग्रेस के मंत्रियों को इस मसले पर खुलकर बोलना चाहिए और उपसमिति के फैसले को एकसिरे से खारिज करने के लिए दबाब डालना चाहिए।

एक अन्य मुश्किल यह भी है कि केन्द्र में तृणमूल कांग्रेस सत्ता में साझीदार है, और केन्द्र सरकार राष्ट्रीय सेजनीति से प्रतिबद्ध है। फलतः केन्द्र में ममता बनर्जी का दल भी सेज से बंधा है। उल्लेखनीय है पहलीबार जब सेज के बारे में बातें हुई थीं तो ममता बनर्जी ने इस नीति का समर्थन किया था। सन् 1997-2000 के बीच में आयात-निर्यात नीति हुआ करती थी, उसको ही कुछ संशोधनों के बाद सन् 2000 में विशेष आर्थिक क्षेत्र नीति (सेजनीति) के नाम से लागू किया गया। इसके तहत कंपनियों को विभिन्न किस्म के करों में रियायतें दी गयी हैं। ममता बनर्जी ने न तो कभी आयात-निर्यात नीति का विरोध किया और न कभी राष्ट्रीयसेज नीति का ही विरोध किया। सिंगूर-नंदीग्राम आंदोलन के दौरान नक्सलियों के प्रभाव के चलते ममता बनर्जी ने पहलीबार सेज का विरोध किया था और विधानसभा चुनाव घोषणापत्र में सेजनीति समाप्त करने का वायदा किया था।

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का तर्क है कि उनके दल ने चूंकि चुनाव में सेजनीति रद्द करने का वायदा किया था अतः उन्होंने सेजनीति रद्द करके अपने चुनावी वायदे का पालन किया है। यह तर्क बेहद खतरनाक है और इसके आधार पर किसी भी राज्य में स्थिर आर्थिक विकास को सुनिश्चित नहीं बनाया जा सकता है। राज्यों में हर पांच साल में नई सरकारें आती हैं।यदि विगत सरकार का कोई नीतिगत फैसला राज्यनीति तक ही सीमित है तो उसे बदला जा सकता है ,लेकिन यदि कोई नीतिगत फैसला राष्ट्रीय नीति के परिप्रेक्ष्य और समर्थन में लिया गया है तो उसे नहीं बदला जा सकता।

सभी राज्य सरकारों की यह संवैधानिक जिम्मेदारी है कि वे अपने यहां केन्द्र सरकार की नीतियों को लागू करें। राष्ट्रीय सेजनीति भारत की संसद से पारित नीति है , उसे लागू करना प्रत्येक राज्य की जिम्मेदारी है। एक अन्य पक्ष यह भी है कि जब एकबार केन्द्र को कोई राज्य सरकार आश्वासन देती है तो आने वाली सरकार की जिम्मेदारी है कि वह उसका पालन करे।

राष्ट्रीय नीतियों के मामले में यदि ममता बनर्जी क्षेत्रीयतावाद के हथियार का प्रयोग करती हैं तो इससे राज्य के विकास में अनेक बाधाएं आएंगी। ऐसा कभी नहीं हुआ कि कोई दल केन्द्र में सत्ता में रहे, और राज्य में केन्द्र की नीतियों का अनुमोदन न करे। दूसरी ओर यह कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व की भी समस्या है कि उनके यूपीए गठबंधन में एक ऐसा दल सरकार में है जो नव्य आर्थिक उदारतावाद की एक महत्वपूर्ण नीति,राष्ट्रीय सेज नीति ,को नहीं मानता तो क्या राजनीतिक तौर पर ऐसे दल को केन्द्र सरकार में रखना सही होगा ?

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