गुरुवार, 31 मार्च 2011

यादों के आइने में भगतसिंह और उनके साथी -4-यशपाल


भगवतीचरण वोहरा नेशनल कालेज में हम लोगों से दो वर्ष ऊपर थे। यों तो भगत सिंह का डीलडौल भी दो-तीन वर्ष में काफी पनप आया था परंतु भगवतीचरण की बराबरी वह भी न कर सकता था। कद छह फुट से कुछ ही कम, दोहरा, कसरती, चुस्त बदन। गोलसा गंभीर चेहरा, गंदमी रंग, जरा भारी होंठ, आंखें चश्मे के शीशों के पीछे छिपी हुर्इं। उनका जन्म लाहौर में ही हुआ था परंतु वंशक्रम से वे गुजराती ब्राह्मण थे।
      भगवतीचरण अपने आप को पंजाबी ही कहते थे और इतना शुध्द पंजाबी उच्चारण करते थे कि उनके बहुत अंतरंग लोगों के सिवा दूसरे शायद ही जानते हों कि उनके पूर्वज गुजरात से आगरा और आगरे से लाहौर में आकर बसे थे।
      इन दिनों गुप्त संगठन के कार्य का क्षेत्रा तैयार करने के लिए पंजाब में एच.आर.ए. का परचा आया तो जयचंद्रजी के सूत्राों से था परंतु रखा गया था गवालमंडी में भगवतीचरण के मकान पर ही। इसे बांटने के आयोजन में भी भगवतीचरण ने पूरा सहयोग दिया था।
      'नौजवान भारत सभा' की स्थापना के लिए विचार और सूत्रपात से ही हम सब ने सहयोग दिया। उसके मुख्य सूत्राधार भगत सिंह और भगवतीचरण ही थे। भगत सिंह जनरल सेक्रेटरी और भगवतीचरण प्रोपेगेण्डा सेक्रेटरी थे। इनके साथ सार्वजनिक क्षेत्र से प्रमुख सहयोग देने वाले लोग थे, साथी धन्वन्तरी और एहसान इलाही। कुछ ही दिन में कांग्रेस में समाजवादी प्रवृत्ति रखने वाले सभी नौजवान 'नौजवान-भारत-सभा' के सहयोगी बन गए। यह संगठन भारतवर्ष के भिन्न-भिन्न प्रांतों में किस प्रकार फैल गया था, वह सभी लोग जानते हैं।
      'नौजवान भारत सभा' का कार्यक्रम गांधीवादी कांग्रेस की समझौतावादी नीति कीआलोचना कर के जनता को उस राजनैतिक कार्र्यक्रम की प्रेरणा देना और जनता में क्रांतिकारी आंदोलन के लिए सहानुभूति उत्पन्न करना था। सभा को उस समय के पंजाब कांग्रेस के वामपक्षी नेताओं उदाहरणत: डाक्टर सत्यपाल, डाक्टर किचलू, केदारनाथजी सहगल, पिंडीदासजी आदि का भी सहयोग मिल रहा था। लाला लाजपत रायजी इस समय पूर्णरूप से हिंदू महासभाई हो चुके थे और डाक्टर गोपीचंद भार्गव उनके अनन्य समर्थक बनकर राजनैतिक महत्व प्राप्त कर रहे थे। भगवतीचरण, भगत सिंह, सुखदेव, धन्वन्तरी, एहसान इलाही, पिंडीदास सोढ़ी और मैं सभा का कार्र्यक्रम निश्चित करने से लेकर जलसा करने के लिए दरियां ढोने और बिछाने का सभी काम करते थे। हम लोगों के फरार हो जाने के बाद हमारे कालेज के विद्यार्थी रामकृष्ण, धन्वन्तरी और एहसान इलाही सभा को चलाते रहे।
      प्रकट आंदोलन से क्रांति का जितना प्रचार संभव था, नौजवान भारत सभा कर रही थी। यह सभा की ही हिम्मत थी कि 1914 के लाहौर षडयंत्र के मुकदमे में हंसते-हंसते फांसी चढ़ जाने वाले 18 वर्ष के नवयुवक कर्तारसिंह की बरसी 'ब्रैडला हाल' में सार्वजनिक रूप से मनाकर उसके चित्र का उद्धाटन किया गया था। यह उत्सव एक प्रकार से नौजवानों को सशस्त्र क्रांति की चेष्टा में सम्मिलित होने का निमंत्रण ही था। उत्सव का अनुष्ठान भी बड़े हृदयस्पर्शी ढंग से किया गया। भगत सिंह ने शहीद कर्तारसिंह का एक छोटा सा चित्र खोज निकाला था। उस चित्र के आधार पर कर्तारसिंह का एक बहुत बड़ा चित्र भगवती भाई ने अपने खर्च पर बनवाया था। चित्र पर खूब श्वेत खद्दर का एक पर्दा लटका दिया गया था। दुर्गा भाभी और सुशीला दीदी ने अपनी उंगलियों से रक्त निकाल कर इस पर्दे को छीटों से रंग दिया था। इस अवसर पर मुख्य भाषण भी भगवतीचरण ने ही दिया था।
      नौजवान भारत सभा का क्रांतिकारी रूप उसके सामाजिक प्रयत्नों से भी प्रकट था। उग्र राजनैतिक व्याख्यानों के अतिरिक्त हम लोग सामाजिक भोजों का भी आयोजन करते थे। इन भोजों की विशेषता बहुमूल्य और स्वाद व्यंजन नहीं थी। इन भोजों में टाट बिछा लिए जाते। पत्तलों और सकोरों में खिचड़ी या चने का पुलाव और मठा ही परोसा जाता था। सभी संप्रदायों, वर्णों और जातियों के लोगों को इनमें सम्मिलित किया जाता था और सब लोग एक साथ बैठ कर एक दूसरे के हाथ से परोसा हुआ भोजन करते थे; एकअवसर पर तो कुछ दुस्साहसी नवयुवकों ने हलाल (मुसलमानों की सांप्रदायिक रूढ़ि के अनुसार काटे हुए पशु) और झटके (सिखों की सांप्रदायिक रूढ़ि द्वारा काटे हुए पशु) का मांस एक ही देग में पका कर गोश्त रोटी का भोज कर डाला जिसमें मुसलमान, हिंदू और सिख नौजवान काफी संख्या में सम्मिलित थे। यही गनीमत रही कि रूढ़िवाद से परेशान यह नवयुवक गाय और सुअर तक नहीं पहुंचे।
      'नौजवान भारत सभा' सांप्रदायिक एकता को राजनैतिक कार्यक्रम का बहुत ही महत्वपूर्ण अंग समझती थी परंतु इसकी दृष्टि में सांप्रदायिक एकता का मार्ग कांग्रेस के कार्यक्रम की तरह सभी सांप्रदायिक धारणाओं को फुसलाना नहीं था। अर्थात् हम लोग 'अल्ला हो अकबर', 'सत श्री अकाल' और 'वंदे मातरम्' के नारे एक साथ नहीं लगाते थे। इसके केवल दो नारे थे-'इंकलाब जिंदाबाद' और 'हिंदुस्तान जिंदाबाद'। इसके अतिरिक्त सभा रूढ़िवाद और सांप्रदायिकता के अंधविश्वास को दूर करना भी आवश्यक समझती थी। सभा की ओर से सार्वजनिक व्याख्यानों का भी प्रबंध किया जाता था; जिन में अन्धविश्वास और शब्द प्रमाण के आधार पर सांप्रदायिक आदर्शवाद का निराकरण करके वैज्ञानिक भौतिकवाद का परिचय लोगों को दिया जा सके। 'सर्वेंट्स आफ पीपुल्स सोसायटी' के प्रिन्सिपल छबीलदासजी का इस विषय में काफी सहयोग रहता था। अनेक मुसलमान साथी फजल, मन्सूर और एहसान इलाही भी खूब सरगरमी से भाग लेते थे।
      एक दिन ऐसे ही व्याख्यान में छबीलदासजी के बाद मन्सूर या एहसान इलाही इस्लाम की अंधविश्वास की अतार्किक बातों का जिक्र कर रहे थे। हम यह उचित समझते कि प्रत्येक सम्प्रदाय की आलोचना यथासंभव उसी संप्रदाय के व्यक्ति से कराई जाय। उस समय श्रोताओं में से एक मुसलमान छुरा खींच बैठा कि वह वक्ता को कतल करेगा। इस धर्मांध भलेमानुस को पकड़ कर एक ओर ले जाकर समझाया गया कि इससे पहले वक्ता ने भी तो यही सब कहा था तब आप कैसे चुप बैठे थे? उसने आवेश में उत्तर दिया कि अगर कोई हिंदू या ईसाई इस्लाम की आलोचना करता है तो मैं सांप्रदायिक सहिष्णुता के नाते सहने के लिए तैयार हूं परंतु मुसलमान के मुख से इस्लाम की आलोचना सुनने के लिए तैयार नहीं हूं। उस समय व्याख्यान को समाप्त कर देना उचित न जंचा। इसका अर्थ होता भविष्य में हिंदू धर्मांध लोगों को भी इस प्रकार का फसाद खड़ा करने के लिए प्रोत्साहन देना। खैर, जैसे तैसे व्याख्यान पूरा हुआ। गड़बड़ की रिपोर्ट पुलिस में करने का परिणाम हमारे जलसों पर रोक लग जाना ही होता। इसलिए उन्हें चुनौती दी-''तुम्हें जो करना है, कर लो। अगर तुम अपने विश्वास के लिए मरने-मारने के लिए तैयार हो तो हम लोगों के भी दो-दो हाथ हैं और हमारी रोटी कौवा उठा कर नहीं ले जाता।'' सभा की चर्चा वास्तव में गुप्त क्रांतिकारी आंदोलन के प्रकट रूप की ओर ध्यान दिलाने के लिऐ ही है क्योंकि आंदोलन की जड़ गुप्त क्रांतिकारी आंदोलन में ही थी। दल सभा द्वारा ही अपने ध्येय को एक सीमा तक जनता के सामने रख सकता था।
      सन् 1926 की बात है; हम लोगों का जो कुछ थोड़ा बहुत संगठन उस समय तक बन पाया था उसके सब सूत्र जयचंद्रजी ही संभाले थे। दल नौजवान भारत सभा बनाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकता था। हम लोगों को उससे कोई संतोष नहीं था। भगवतीचरण कुछ समय सभा के काम में लगाते, कुछ समय हिंदी साहित्य सम्मेलन में सहायता देते। इन कामों से संतोष न होता तो नौकरी तलाश करने की चेष्टा भी करते। भगत सिंह, सुखदेव और भगवतीचरण भाई भी बेचैनी अनुभव कर रहे थे। यह लोग क्रियात्मक कदम उठाना चाहते थे परंतु जयचंद्रजी व्यापक भौगोलिक और ऐतिहासिक शिक्षा और संगठन बढ़ाने और उसे फिर से छांट देने से आगे बढ़ना नहीं चाहते थे।
      भगत सिंह ने पंजाब से दिल्ली और कानपुर जाकर दूसरे प्रांत के लोगों से संपर्क बनाने का निश्चय किया। भगत सिंह की लाहौर से बाहर जाने की इच्छा का एक कारण सरदार किशन सिंहजी की नाराजगी भी था। भगत सिंह घर के काम-काज की उपेक्षा कर केवल राजनैतिक कार्य में लगा रहता था। इस कारण उसके पिता उससे चिढे रहते और उस पर अपना अंकुश बढ़ा रहे थे।
      भगत सिंह पिता को कोई सूचना दिए बिना लाहौर से दिल्ली पहुंच गया। दिल्ली से प्रकाशित 'अर्जुन' में पांव जमाने के लिए वह जयचंद्रजी का सिफारिशी पत्र लेता गया था। सिफारिश भी कैसी? कोई आदमी लगभग मुफ्त काम करने के लिए तैयार हो तो उसका स्वागत कौन नहीं करेगा। वह कुछ दिन 'अर्जुन' अखबार में काम करता रहा। अपनी निष्ठा और कठिन परिश्रम से उसने पंडित इंद्रजी विद्यावाचस्पति का विश्वास शीघ्र प्राप्त कर लिया था। अर्जुन में काम करते समय एक रोज अनुवाद करने के लिए एक तार दिया गया। तार था, 'चमनलाल, एडिटर डिफंक्ट नेशन ऐराइव्ड एट लाहौर'। भगत सिंह ने उसका अनुवाद किया, 'डिफंक्टनेशन के संपादक मिस्टर चमनलाल लाहौर पहुंच गए।' यह अनुवाद अर्जुन में छप भी गया।
      इन्द्रजी ने अनुवाद की ओर भगत सिंह का ध्यान दिलाया परंतु भगत सिंह को इसमें कोई भूल दिखाई न दी। उसका ख्याल था कि चमनलाल 'डिफंक्टनेशन' नामक पत्र के सम्पादक हैं। इंद्रजी ने उसे डिफंक्ट शब्द का अर्थ डिक्शनरी में देखने का आदेश दिया और भगत सिंह को मालूम हुआ कि 'डिफंक्ट' का अर्थ 'बंद हो चुका हुआ' पत्र है। ऐसी ही एक और मजेदार बात भगत सिंह के उस समय के अंग्रेजी ज्ञान के बारे में याद है। सिनेमा देखने का शौक भगत सिंह को काफी था परंतु टिकट के लिए दामों की कठिनाई रहती थी। पिता से सिनेमा के लिए तो क्या जूता तक खरीदने के लिए दाम मांगना उसे गंवारा न था। घर के काम-काज के बारे में जब वह उन की बात मानने को तैयार नहीं था तो खर्चा कैसे मांगता। समस्या का एक ही हल था कि जरूरतों की परवाह न करना और कभी साथियों की जेब में पैसा देख लेने पर उसका उपयोग कर लेना। एक दिन जयदेव गुप्त ने उसे सिनेमा दिखाने का वायदा कर लिया था। तब हम लोग सिनेमा चवन्नी के टिकट में देखते थे परंतु चवन्नी का ही काफी मूल्य था! दो आने में तो घी चुपड़ी हुई तन्दूर की दो बड़ी-बड़ी रोटियां और मामूली छुंकी हुई दाल तरकारी का भोजन हो जाता था।
      भगत सिंह को घी-दूध का शौक भी कम न था। अनारकली में कालू दूध-दही वाले के यहां सरदार किशन सिंहजी का उधार हिसाब चलता था। भगत सिंह जब चाहता वहां से दही-दूध खा पी सकता था और उसके साथ जो कोई हो, उसे भी खिला-पिला सकता था परंतु किसी तन्दूर या तबे पर उधार नहीं था। भगत सिंह सांडा(घर) जाने से कतराता था। रामकृष्ण ने ग्रेजुएट हो कर मोहनलाल रोड पर एक सुथरा सा होटल खोल लिया था। हम सब लोग खाने के लिए वहीं पहुंचने लगे थे। अपने लोगों में से कोई किसी समय खाना खा रहा हो तो वह होटल में चला आता। बिना किसी भूमिका के एक कुर्सी उठाकर वह सामने बैठ जाता और चपाती के बड़े से टुकड़े का दोना बना कर दाल के ऊपर तैरता हुआ घी एक ही बार में समेट मुंह में रख लेता। अगर राजाराम शास्त्री होटल में दिखाई दे जायें तो भगत सिंह जरूरी काम छोड़ कर, भूख न होने पर भी उन की कटोरी में से सब घी जरूर पी जाता। 'देखो, अरे देखो, क्या कर रहा है। अरे देखो तो इस जाट को'! शास्त्री जी हाथ फैलाये सहायता के लिए दुहाई देते रह जाते।
      पंजाब में घी अधिक मात्रा में खाने का कुछ चलन था। उन लोगों को वह पच भी जाता था। एक दिन भगत सिंह से कुछ आवश्यक बात करते-करते मैं उसके गांव सांडा पहुंच गया भोजन का समय था। उसकी मां ने कहा पहले खा लो! एक बड़ीसी कटोरी में लौकी की तरकारी में घी इतना था कि भगत सिंह भी घबरा गया। वह झुंझला उठा-''मां इतना घी भी कोई  खा सकता है? तुम तो तरकारी को बरबाद कर देती हो।''
      भगत सिंह की मां ने गाल पर उंगली रख मुझ से शिकायत की, ''देख तो इस लड़के को; कुछ खाता ही नहीं। जरा सा घी भी इसे नहीं भाता। तभी तो सूख कर कांटा हो रहा है।''

      भगत सिंह के लमतडंग़, हृष्ट-पुष्ट शरीर की ओर संकेत कर मैंने पूछा, ''अगर यह कांटा है तो फिर मैं तो हूं ही नहीं।''
      मां को हंसी आई परंतु स्नेह की गाली दे मुझे डांट भी दिया, ''धत् नालायक। बात कहनी भी नहीं आती। बच्चों को ऐसे नजर लग जाती है।'' अस्तु !
      मैं भगत सिंह के उस समय के अंग्रेजी ज्ञान का उदाहरण दे रहा था। जयदेव गुप्त ने संध्या समय भगत सिंह को साथ सिनेमा ले चलने का वायदा किया था। भगत सिंह जहां भी था, सिनेमा न चूकने के लिए भागा हुआ मकान पर लौट आया देखा कि जयदेव निश्चित लेटा हुआ कोई उपन्यास पढ़ रहा है। भगत सिंह ने अपने पांव से जयदेव के पांव पर ठोकर दे कर चेतावनी दी-''अबे उठ, सिनेमा का वायदा भूल गया?''
      जयदेव ने लेटे ही लेटे चिढ़ कर कड़े स्वर में डांट दिया, ''अजीब जाहिल है, मेरी तबीयत खराब है इसे सिनेमा की पड़ी है। अभी डाक्टर के यहां से लौट रहा हूं। वह देख दवाई!'' उसने मेज़ पर पड़ी बोतल की ओर संकेत कर दिया।
      भगत सिंह ने नरमी से पूछा-''क्या हो गया तुझे?''
      जयदेव ने गंभीर मुद्रा में उत्तर दिया, ''डाक्टर ने डिस्पेंसिया बताया है।''
      अंग्रेजी का यह शब्द सुनकर भगत सिंह चुप रह गया। सिनेमा न जा कर सकने की कलख तो मन में थी ही। चुपचाप डिक्शनरी उठा एक कुर्सी पर बैठ गया और डिस्पेंसिया शब्द का अर्थ ढूंढने लगा। अर्थ देख कर उसने डिक्शनरी मेज पर पटक दी। उठ कर एक लात और जयदेव की कमर पर जमायी और बांह से खींच उसे खड़ा कर दिया, ''बदमाश! खा खा कर बदहजमी कर ली है। काहिल पड़ा सो रहा है, और ऊपर से दवाई ठूंसेगा?... डिस्पेंसिया कह कर डराना चाहता है? ''
      जयदेव उलझता रहा कि उसका मन ठीक नहीं है परंतु भगत सिंह की दलील थी-''तुझे बदहजमी है। शाम को तुझे खाना नहीं चाहिए, इसलिए तेरे पास जो पैसे हैं वह मुझे सिनेमा देखने के लिए दे दे। तुझे न जाना हो, मत जा।''
      भगत सिंह के तत्कालीन अंग्रेजी ज्ञान की चर्चा इसलिए की है कि अपने ही स्वाध्याय से उसने अंग्रेजी पर इतना अधिकार कर लिया था कि 'असेंबली बमकांड' के समय उसने जो पर्चें फेंके थे और ट्रिब्यूनल के सामने अंग्रेजी में जो लिखित बयान उसने दिए थे, उनकी भाषा की प्रशंसा प्राय: सभी लोगों ने की थी। कुछ लोगों ने कल्पना कर ली थी कि वे बयान भगत सिंह के नहीं वकील के लिखे हुए थे। इस कल्पना में कोई तथ्य नहीं है। अध्ययन भगत सिंह का स्वभाव था। जब भी देखो, उस के लंबे बेडौल कोर्ट की जेब में कोई न कोई पुस्तक रखी ही रहती थी। निरानी सड़क पर चलता हो तो चलते-चलते भी पढ़ता रहता था।
      दिल्ली और कानुपर में भगत सिंह ने कैसे दिन बिताये होंगे; यह अनुमान उसके लाहौर लौटने पर उसकी सूरत देखने से ही हो जाता था। सिर के केश पगड़ी की जगह एक मामूली से अंगौछे में ही लिपटे हुए थे। शरीर पर केवल खद्दर का बंद गले का कोट। वही कोट जो लाहौर से जाते समय वह कमीज के ऊपर पहने था। अब कमीज नदारद थी। पायजामे की जगह लुंगी थी। पायजामे का आसन और कोट की आस्तीनें फट जाने पर पायजामे की टांगें कोट की आस्तीनों की जगह जोड ली थी। किसी तरह शरीर ढंका हुआ था। परंतु कोट की जेब में कोई पुस्तक जरूर थी। कानपुर में भगत सिंह ने पहले कुछ दिन अखबार बेच कर ही निर्वाह किया। फिर स्वर्गीय गणेशशंकरजी विद्यार्थी का विश्वास पा कर वह 'प्रताप' में काम करने लगा। कानपुर में रहते समय वह युक्तप्रांत के तत्कालीन क्रांतिकारी विद्यार्थियों शिव वर्मा, जयदेव कपूर और विजयकुमार आदि के सम्पर्क में आ गया परंतु क्रांतिकारी नेताओं तक उस की पहुंच न हो पायी थी।
      युक्तप्रांत में क्रांति के काम को विस्तार से चलाने की योजना बनाई जा रही थी परंतु प्रश्न था साधनों का। गुप्त कार्यक्रम के लिए सार्वजनिक रूप से धन एकत्र नहीं किया जा सकता था। प्रभावशाली लोगों को विश्वास में लेकर बात की भी जाती तो उन्हें यह केवल लड़कपन जंचता था कि पन्द्रह बीस पिस्तौल ले कर ब्रिटिश साम्राज्यशाही से लड़ा जाय। धन की समस्या हल करने के लिए युक्तप्रांत के क्रांतिकारी दल 'हिंदुस्तान रिपब्लिकन सेना' (एच.आर.ए.) ने लखनऊ जिले में काकोरी के समीप राजनैतिक डकैती करके रेलवे का सरकारी खजाना लूट लिया था। इस प्रयत्न के दो प्रयोजन थे, एक तो दल के आर्थिक संकट का उपाय करना और दूसरा विदेशी सरकार की शक्ति को चुनौती देकर उसकी प्रतिष्ठा पर चोट करना।
      क्रांतिकारी दल ने चलती गाड़ी को रोक कर जब खजाना लूटा तो मुसाफिरों से कह दिया गया था, 'हम जनता के जानोमाल पर हाथ नहीं डालेंगे केवल सरकारी खजाना लेंगे।' काकोरी-डकैती तो हो गई परंतु उसमें विशेष सफलता प्राप्त नहीं हुई। कुछ ही दिन बाद पुलिस को कुछ सुराग मिल जाने से गिरफ्तारियां भी शुरू हो गईं। कानपुर में भगत सिंह से संपर्क रखने वाले लोगों ने उसे परामर्श दिया कि तुम संदिग्ध अवस्था में हो। पुलिस अन्धाधुन्ध गिरफ्तारियां कर रही है। इस लपेट में तुम्हारा भी आ जाना संभव है। तुम कानपुर से खिसक जाओ।
      भगत सिंह कानपुर से दिल्ली लौट गया। कानपुर में पाये हुए सूत्रों के आधार पर वह दिल्ली में संगठन जमाने की चेष्ठा करने लगा। पंजाब में दल पर जयचंद्रजी अपना कब्जा जमाए हुए थे परंतु हो कुछ नहीं रहा था। भगत सिंह पंजाब से बाहर था। सुखदेव खिन्न हो लायलपुर चला गया था। भगवतीचरण भारतवर्ष के क्रांतिकारी आंदोलनों का एक श्रृंखलाबध्द इतिहास लिखने की चेष्टा करने लगे थे। भगवतीचरण के व्यक्तिगत आकर्षण के कारण हम लोग प्राय: 'ग्वाल मंडी' में उनके मकान 'शिव निवास' में आते जाते रहते थे। भगवतीचरण का मकान सुघड़ गृहस्थ का घर था। बेमतलब शोरशराबा उन्हें पसंद नहीं था। यों कभी कह देने पर या स्वयं उनके निमंत्रण दे देने पर वहां बढ़िया खाना मिल जाता था परंतु वहां उस समय तक भगत सिंह के मकान की तरह धर्मशाला न बन पाई थी।
      भगवतीचरण और दुर्गा भाभी का विवाह काफी कम उम्र में ही हो गया था। विवाह के समय भगवती भाई की उम्र तेरह-चौदह की और भाभी की दस ग्यारह की रही होगी। दोनों ही परिवारों के बुजुर्ग पुरानी परिपाटी के थे। उन्होंने अपनी संतानों का विवाह करके अपना संतोष कर लिया था, जैसे छोटे लड़के-लड़कियां गुड्ड़े-गुड़िया का विवाह कर लेते हैं। यह भाग्य की बात थी कि दोनों ही ढंग के आदमी निकले। भाभी जब ससुराल आईं तो शायद रामायण और प्रेमसागर बांच लेती होंगी। भगवती भाई ने कभी स्वयं पढ़ाकर और कभी टयूटर रख कर उनकी पढ़ाई का क्रम सदा जारी रखा। उनके पुत्र शची का जन्म 1925 में हुआ था। इसके बाद वे किसी रूप में पढ़ाई लिखाई में लगी ही रहीं।
      दुर्गा भाभी उस समय तक प्रकट रूप से सार्वजनिक कार्य में नहीं आई थीं। शायद अपने पति के लक्षण देखकर समझ चुकी थीं कि अपने जीवन के लिए वे पति और पैतृक जायदाद  किसी भी चीज पर भरोसा नहीं कर सकेंगी। वे पंजाब यूनिवर्सिटी की हिंदी की परीक्षायें एक के बाद एक पास करती रहीं। 1926 में पंजाब यूनिवर्सिटी की 'प्रभाकर' की परीक्षा हम दोनों ने साथ-साथ ही दी थी। यह परीक्षा पास करके वे लाहौर के 'महिला कालेज' में हिंदी की लेक्चकर बन गई थीं। सार्वजनिक आंदोलत में सामने कभी न आने पर भी राजनैतिक कार्य और विशेष कर क्रांतिकारी गुप्त संगठन के प्रति उनका अनुराग गूंगे के गुड़ जैसा था। वास्तविकता यह थी कि वे मन ही मन ईर्ष्या से चुप रह जातीं, क्योंकि भगवती भाई सुशीला दीदी को कवि, त्यागी और प्रतिभा संपंन समझ कर उनसे तो क्रांति की बातें करते परंतु भाभी को 'देहाती बहू' समझ इन बातों की चर्चा नहीं करते थे। भाभी होंठ दबायें सिर खुजा कर रह जातीं, देखा जायगा!(क्रमशः)



बुधवार, 30 मार्च 2011

यादों के आइने में भगतसिंह और उनके साथी -3-यशपाल


नेशलन कालिज में भाई परमानंद प्राध्यापक थे। वे पढ़ने-लिखने में ही लगे रहते। एक प्रकार से भाई परमानंद ही लाला लाजपत रायजी की ओर से नेशलन कालिज के व्यवस्थापक थे। भाई परमानंदजी की स्थिति के व्यक्ति का केवल कुर्ता-धोती पहनना और वह मोटे और घर के धोये, बिना स्त्री किए विशेष ध्यान आकर्षित करता था। उन्हें साधारणत: लोग त्याग मूर्ति भाई परमानंदजी कहते थे।

भाई परमानंदजी को पायजामा और कोट पहनने वाले विद्यार्थियों के प्रति खासी वितृष्णा थी। जो विद्यार्थी जुल्फें रखकर तेल और कंघी का व्यवहार करते थे, उन्हें तो वे बिल्कुल जनखा ही समझते थे। वे कालेज में इतिहास पढ़ाते थे और साधारणत: विद्यार्थियों में राष्ट्र सेवा की भावना को उत्साहित भी करते थे। जिनमें ऐसी रुचि देखते उन्हें प्रोत्साहित भी करते। इस प्रसंग में यदि किसी ऐसे विद्यार्थी का नाम उन्हें सुझाया जाता जो धोबी के धुले साफ कपड़े पहनने का शौक रखता हो, तो वे उसकी ओर से तुरंत ही निराशा प्रकट कर देते।

नेशनल कालेज के प्रिंसिपल आचार्य जुगल किशोरजी थे। आचार्यजी 1951 में उ.प्र. कांग्रेस के प्रधान और तदनंतर श्रमविभाग के मंत्री हो गए थे। उ.प्र. कांग्रेस के प्रधान आचार्यजी कुछ ही समय पहले इंग्लैंड में शिक्षा के लिए कई बरस रहकर लौटे थे। उस समय उन्हें हिंदुस्तानी की अपेक्षा अंग्रेजी बोलने में ही अधिक सुविधा होती थी। कालेज में शिक्षा का माध्यम हिंदुस्तानी हिंदी और अंग्रेजी था। पुस्तकें सब अंग्रेजी में ही थीं। परंतु अध्यापक लोग हिंदुस्तानी में भी समझाने की चेष्टा करते थे। केवल आचार्यजी और प्रोफेसर जी.सी.मेहता हिंदुस्तानी नहीं बोल पाते थे। आचार्यजी का दृष्टिकोण मुख्यत: अध्ययन को प्रोसाहन देने का ही था। उन्होंने कालेज में गांधी आश्रम की पध्दति को लागू करने का यत्न नहीं किया। वे प्राय: विद्यार्थियों के अध्ययन को उचित धाराओं की ओर प्रेरित करने की चेष्टा भी करते।

कॉलेज के प्रोफेसरों की विचारधारा का प्रभाव विद्यार्थियों के विचारों पर काफी पड़ा। इनमें प्रो. जयचंद्र विद्यालंकार का नाम विशेषत: उल्लेखनीय है। जयचंद्रजी प्राय: ही विद्यार्थियों की तर्क और जिज्ञासा की प्रकृति को उकसाते रहते थे। वे भारतीय इतिहास और राजनीति के अध्यापक थे। उनकी चेष्टा रहती थी कि विद्यार्थी इतिहास को श्रुति और स्मृति मानकर केवल विश्वास द्वारा ही न अपनाते चले जाएं बल्कि तर्क और खोज के दृष्टिकोण से उसका अध्ययन करें। उनकी कक्षा में अनेक प्रकार के विषयांतरों पर भी वाद-विवाद हो जाता था, जैसे आस्तिकता-नास्तिकता, आत्मवाद और भौतिकवाद। उनका दृष्टिकोण विद्यार्थियों को बहुत ही सुलझा हुआ जान पड़ता था। इसलिए जिज्ञासु और अध्ययनशील विद्यार्थियों का एक गिरोह उनके चारों ओर इकट्ठा हो गया था जिसे भविष्य में तैयार हो जाने वाले क्रांतिकारी दल की पृष्ठभूमि कहा जा सकता है। उस गिरोह में से अधिकांश विद्यार्थी छंट गए और कुछ नए भी आ मिले।

नेशनल कालेज में अधिकांश विद्यार्थी राजनीति, अर्थशास्त्रा और इतिहास की शिक्षा ले रहे थे। यों फारसी और संस्कृत भी पढ़ाई जाती थी। फारसी पढ़ने वाले केवल दो या तीन विद्यार्थी थे और संस्कृत पढ़ने वाले पांच या छह। कुछ पाठकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि भगत सिंह संस्कृत पढ़ता था। संस्कृत में भगत सिंह की रुचि का कारण उस समय बहुत हदतक उसके परिवार की आर्यसमाजी रुचि समझी जा सकती थी। डी.ए.वी. स्कूल में संस्कृत अनिवार्य होने के कारण उसने कुछ संस्कृत वहां भी पढ़ी थी। साहित्य की ओर उसकी प्रवृत्ति तो थी ही।

भगत सिंह मैट्रिक पास किये बिना और काफी समय गुरुद्वारा आंदोलन वगैरह में लगा कर हमारा सहपाठी बना था। इस कारण वह पढ़ाई में, खास कर पाठयक्रम में दूसरे साथियों से अपने आपको कुछ पिछड़ा हुआ अनुभव कर रहा था। कक्षा में प्रोफेसरों से उसे डांट-फटकार भी काफी सुननी पड़ती थी। भगत सिंह के स्वभाव में सब से बड़ी बात समय और परिस्थिति के अनुकूल सट जाने की थी। पढ़ाई की अपनी कमी को पूरा करने के लिए वह विशेष यत्न कर रहा था परंतु कक्षा में हम लोग यदि गुट बांधकर कोई शरारत करते तो वह पीछे नहीं रहता था। यह शरारतें अधिकतर होती थीं हमें भारतीय इतिहास पढ़ाने वाले प्रोफेसर सोंधी और प्रोफेसर मेहता की अंग्रेजी की कक्षा में। प्रोफेसर सोंधी कुछ औंघाते-औंघाते अपना लेक्चर देते थे। कोई भी सवाल कर देने पर उलझ बैठते-''तुम लिंक आफ थौट को डिस्टर्ब कर देते हो।'' उनका एक बार यह कहना था कि हम लोग अप्रासंगिक प्रश्नों की झड़ी लगा देते। परिणाम होता कि सोंधी साहब कक्षा छोड़ देते और हम लोग दंगे के लिए बाहर निकल जाते।

प्रोफेसर मेहता पढ़ाते बहुत लगन से थे परंतु उनका हिंदुस्तानी का ज्ञान बहुत परिमित था, हिंदुस्तानी शब्दों का उच्चारण और भी विचित्र। किसी भी शब्द का हिंदुस्तानी पर्यायवाची शब्द उनसे पूछ लेना मजाक आरंभ करने के लिए काफी था और फिर ठेठ पंजाबी का कोई ऊटपटांग शब्द उन्हें सुझा देना। दूसरे विद्यार्थियों के खिलखिला पड़ने पर मेहता साहब परेशान हो जाते और सबसे पहले झंडासिंह की ओर संकेत कर हुक्म दे देते-'गेट आउट आफ दि क्लास।' उसके बाद मेरी बारी आती फिर सुखदेव की फिर भगत सिंह की और दूसरे दो-एक साथियों की।

पंडित चेतरामजी शर्मा हमारे हिंदी के पहले अध्यापक थे और संगीत के विशेष अनुरागी। पंड़ित जी बहुत ही गंभीर थे और छंदों की व्याख्या करते समय उनके मात्रा और अनुपात इत्यादि को प्राय: संगीत के क्रियात्मक प्रदर्शन से समझाने की चेष्टा करते। पंडितजी को संगीत का ज्ञान गहरा होने पर भी कंठ काफी बोझल था। हम लोग संगीत की शुध्दता क्या जानें? हंसी रोकना कठिन हो जाता परंतु पंडितजी की शिष्टता का लिहाज इतना था कि अपने ऊपर जब्र करना पड़ता। हमारी मुस्कानों और आंखों में भरी शरारत की पंडितजी विशेष चिंता भी न करते थे।


प्रोफेसर जयचंद्रजी विद्यालंकार की कक्षा में किसी शरारत के लिए अवसर नहीं रहता था। उनकी बात की उपेक्षा करने में अपना ही नुकसान था। कोई भी बेतुका प्रश्न सुनकर जयचंद्रजी एक क्षण के लिए चुप हो जाते और फिर प्रश्न का उत्तर से आंखें मिला पूछ लेते-'प्रस्तुत विषय से तुम्हारे प्रश्न का क्या संबंध है?' इसलिए कोई वास्तविक समस्या होने पर ही प्रश्न किये जाते थे। जयचंद्रजी का पाठय विषय तो राजनैतिक सिध्दांत और शासन-व्यवस्था संबंधी ऐतिहासिक विश्लेषण था परंतु बातचीत प्राय: सत्याग्रह-आंदोलन पर भी चल जाती थी। और विद्यार्थी उसकी विफलता पर मनन किए बिना न रह सकते थे। अपने देश के लिए स्वतंत्रता प्राप्ति की लगन मन में रखने वाले विद्यार्थियों के लिए इस मनन का एक ही परिणाम हो सकता था कि वे अपने राष्ट्र की राजनैतिक समस्या के समाधान का कोई दूसरा मार्ग सोचें।

सत्याग्रह-आंदोलन की विफलता के अनुभवों और दूसरे मार्ग की खोज की इच्छा के समय हम लोगों के हाथ कौन-सा साहित्य पड़ा? डैनब्रीन की-'माई फाइट फार आइरिश फ्रीडम', मैजिनी और गैरबाल्डी की जीवनियां, फ्रांसीसी राज्यक्रांति का इतिहास, बोल्तेर और रूसो के रूढ़िवाद विरोधी क्रांतिकारी विचार, रूसी क्रांतिकारियों की जीवनियां, 'वीराफिगन' 'क्रौपोटकिन' आदि और इस के साथ-साथ भारत में सत्याग्रह से भिन्न देश की स्वतंत्राता के लिए किये गए प्रयत्नों का परिचय जिनमें सान्याल दादा की आप बीती 'बंदी जीवन' प्राथमिक पुस्तक के रूप में थी और फिर 'रौलेट कमेटी की रिपोर्ट।'

रौलेट कमेटी ने अपनी रिपोर्ट रौलेट बिल बनाया जाने की आवश्यकता प्रमाणित करने के लिए लिखी थी। इस में भारत में हुए सशस्त्रा क्रांति की चेष्टा के प्रयत्नों का काफी ब्योरेवार वर्णन है। रिपोर्ट इन प्रयत्नों को अपराध प्रमाणित करने के लिए लिखी गई थी परंतु लेखकों का दृष्टिकोण ऐतिहासिक या वास्तविकता का यथासंभव यथार्थ (आक्जेक्टिव) चित्राण करना था। इस पुस्तक को पढ़ कर हम लोगों पर यह प्रभाव नहीं पड़ा कि भारतीय क्रांतिकारी अपराधी थे। हम इस परिणाम पर पहुंचे कि उन्होंने अपनी परिस्थितियों में एक स्वाभाविक मार्ग का अवलम्बन किया था और उस प्रयत्न के लिए संभावना का बहुत विस्तृत क्षेत्र है। हमें उन कार्यों और मार्ग का भी कुछ परिचय मिल गया।

यह याद नहीं कि किस साथी ने इन पुस्तकों को पढ़ने की बात मुझे सुझाई। इनमें से अधिकांश पुस्तकें तो कालिज के छोटे से पुस्तकालय में ही थीं। शेष कहां से कैसे आ जाती थीं, यह अब याद नहीं। उस समय उस की खोज करने की आवश्यकता भी अनुभव न हुई थी। यह भी नहीं कहा जा सकता कि इन पुस्तकों को हम कुछ लोग ही, भगत सिंह और सुखदेव जैसे ही पढ़ते हों। सभी विद्यार्थी इन पुस्तकों को पढ़ते थे।

एक दिन मैं और भगत सिंह रावी नदी में नौका खेने का अभ्यास करने गए थे। हम दोनों ही थे, तीसरा कोई साथ नहीं था। यह तो याद नही कि प्रसंग कैसे चला परंतु एकांत देखकर मैंने भगत सिंह से एक बात पूर्ण विश्वास से कह डाली- 'हम लोग अपना जीवन देश के लिए अर्पण करने की प्रतिज्ञा कर लें।'

भगत सिंह ने सहसा गंभीर हो कर अपना हाथ मेरी ओर बढ़ा दिया- 'मैं प्रतिज्ञा करता हूं।'

हाथ मिलाने के बाद हम दोनों ही कुछ देर तक चप्पू चलाना छोड़ निश्चल बैठे रहे। उस समय सूर्यास्त हुआ ही था, आकाश पर लाली थी। अंधेरा होता देखकर हम लोगों ने नाव किनारे लगाकर मांझी को सौंप दी। लौटते समय भी हम लोग चुप ही रहे, बोले नहीं। यह बात इतनी भावुकता से हुई थी कि उस की याद बनी है।


सन् 1925 की एक घटना याद है। पंजाब में हिंदी साहित्य सम्मेलन की नयी-नयी स्थापना हुई थी। उर्दू प्रधान लाहौर में सम्मेलन की ओर बहुत कम लोगों की रुचि थी। नेशनल कालेज के कुछ विद्यार्थी और संस्थाओं के हिंदी अध्यापक ही प्राय: उस में योग देते। सम्मेलन ने किसी एक विषय पर सर्वोत्ताम निबन्ध लिखने के लिए पचास रुपये के पुरस्कार की घोषणा की थी। मैंने निबंध लिखा था। कई महीने तक परिणाम की प्रतीक्षा करने पर पता लगा कि पुरस्कार किसी व्यक्ति को नहीं दिया जा सकता क्योंकि निर्णायकों ने तीन निबन्धों को एक ही कोटि का ठहराया था। यह भी मालूम हो गया कि उन तीनों में से एक निबंध मेरा था। दूसरे दो निबंध लेखकों के नाम जानने के लिए खोज की तो पता लगा कि दूसरा निबंध भगत सिंह का था और तीसरा जयचंद्रजी की मां जी का था।
लिखने की ओर भगत सिंह की प्रबल रुचि थी। मैं केवल हिंदी में लिखता था। भगत सिंह उर्दू में भी लिखता था। कुछ दिन बाद स्थानीय उर्दू पत्रों में उस की लिखी छोटी-छोटी चीजें प्रकाशित भी होने लगी थीं। अपने विचारों के प्रचार के लिए अथवा सन 1924-25 में प्राय: सोई राष्ट्रीय भावना को जगाने के लिए, नेशनल कालिज के विद्यार्थियों ने नाटकों का माध्यम भी अपनाया था। इस चेष्टा के दोनों ही कारण थे, नाटक खेलने की इच्छा और नाटक को अपने विचारों के प्रचार का साधन बनाना भी। किसी लेखक का 'महाभारत' नाटक था। उसके वार्तालापों में जगह-जगह परिवर्तन करके हम लोगों ने अपने लिए उपयोगी बना लिया। इस नाटक का नाम रखा गया था 'कृष्ण विजय'। व्यंजना से अंग्रेजों को कौरव और देश भक्तों को पांडव बना लिया था। इस में कुछ गाने, विशेष कर प्रहसन भाग में, सम्मिलित कर लिए थे। इन में से एक गाना था-'कदे तूं बी हिंदिया होश सम्भाल ओ' (ऐ हिंद कभी तू भी होश सम्भाल! तेरा घरबार विदेशी लूट ले गया और तू भी बेखबर सो रहा है। ओ लूटने वाले हमारे साथ ज्यादतियां न कर। हम तेरी सब चालकियां समझ चुके है... इत्यादि।
यह गाना सरदार अजीत सिंह के एक पुराने गीत-'पगड़ी सम्भाल ओ जट्टा' (अरे बेखबर किसान तेरे सिर की पगड़ी उतरी जा रही है) के भाव को लेकर बनाया गया था। सरदार अजीतसिंह के उस गीत को सरकार ने गैरकानूनी कर दिया था। हमारे नाटकों के ऐसे विदेशी सरकार-द्रोही भागों को भी गैरकानूनी करार दे दिया गया था। कुछ दिन हम लोगों को नाटक खेलने का खूब शौक रहा। दो नाटक हम लोगों ने लाहौर में खेले। फिर 'गुजरांवाले' में प्रांतीय-कांग्रेस की कांफ्रेंस के अवसर पर भी 'भारत दुर्दशा' नाटक खेला।
नाटकों का आरंभ किया गया था देहरादून में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन के मौके पर 1924 में राजा भोज के कवि दरबार का नाटक खेलने से। राजा भोज के दरबार में आधुनिक हिंदी कवियों की उपस्थिति की कल्पना जयचंद्रजी के मस्तिष्क की उपज थी। इसमें मैंने राजा भोज की भूमिका की थी। भगत सिंह भी 'भारत दुर्दशा' आदि कई नाटकों में अभिनय करता रहा। नाटकों के कार्यक्रम में साथी झंडासिंह (अब सरदार जसवंत सिंह) धर्माभिलाषी, हुंडू और बलदेव जो अब रिजर्व बैंक आफ इंडिया में बहुत जिम्मेवार पद पर हैं, बहुत अग्रणी भाग लिया करते थे। इन दिनों भगत सिंह और सुखदेव प्राय: कालेज से गायब रहने लगे थे। भगत सिंह का व्यवहार मजाक के अलावा कामकाज के बारे में कुछ सख्त हो गया था ।
इस समय दल के संगठन की बात कुछ-कुछ स्पष्ट होने लगी थी। हिंदुस्तानी प्रजातंत्र दल(एच.आर.ए.) का एक परचा लाहौर में बलराज के दस्तखत से बांटा गया था। इस खतरनाक परचे का सफल बंटवारा संगठन और आयोजन के बिना नहीं हो सकता था। मैं सहयोग तो दे रहा था परंतु स्कूल में अपनी नौकरी और परीक्षा की तैयारी छोड़ने के लिए तैयार न था। सत्याग्रह के मार्ग की विफलताओं पर हम लोगों की बहस उन दिनों बहुत चलती थी और प्रजातंत्र और समाजवादी पध्दति की भी चर्चा काफी जोर से होती थी। समाजवाद की ओर ध्यान जाने का सीधा-सादा कारण था, रूस के संबंध में साहित्य हाथ आना। 'तिलक स्कूल आफ पालिटिक्स' और 'सरवेंट्स आफ पीपुल्स सोसाइटी' के अतिरिक्त लाला लाजपत रायजी ने अपने पिता के नाम पर 'द्वारकादास पुस्तकालय' की भी स्थापना की थी। इस पुस्तकालय में राजनैतिक पत्र-पत्रिकाएं और सामयिक साहित्य काफी मात्रा में आता था।

कानपुर के प्रसिध्द समाजवादी राजाराम शास्त्री इस पुस्तकालय के पुस्तकालयाध्यक्ष थे। हम लोग प्राय: समवयस्क थे और शास्त्रीजी को हमारे विचारों से भी सहानुभूति थी इसीलिए 'द्वारकादास पुस्तकालय' हम लोगों का अच्छा-खासा अब बन गया था। इस पुस्तकालय में सुविधा यह थी कि आस-पास अनेक कालेजों के बोर्डिंग होने के कारण यहां विद्यार्थी राजनैतिक अथवा क्रांतिकारी साहित्य में रुचि रखते थे।
शास्त्रीजी स्वभाव से विनोदी, मिलनसार और कद में काफी छोटे हैं। इसलिए प्राय: उनके ना ना करते रहने पर भी लाइब्रेरी से जरूरत के मुताबिक पुस्तकें झपट ली जा सकती थीं। कभी रात-बिरात घूम-घाम कर आने पर उनकी खाट या कमरे पर भी जबर्दस्ती दखल कर लिया जा सकता था। एच.आर.ए. का परचा बांटने में भी शास्त्राीजी का पूरा सहयोग था।(क्रमशः)

मंगलवार, 29 मार्च 2011

यादों के आइने में भगतसिंह और उनके साथी -2-यशपाल


     आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंद ने यद्यपि विदेशी शासन से विद्रोह की पुकार नहीं उठाई थी, अपने धर्मग्रंथ 'सत्यार्थप्रकाश' में उन्होंने राजभक्ति का भी उपदेश जरूर दिया है परंतु वे यह लिखे बिना भी नहीं रह सके कि विदेशी शासन चाहे जितना भी सुखदायक और उन्नतिशील क्यों न हो, अपनी जाति के स्वतंत्र शासन से अच्छा नहीं हो सकता। आर्यसमाज के आंदोलन से प्रभावित होने वाले लोगों की भावना पर स्वामीजी के इस वाक्य का प्रभाव न पड़ा हो, यह नहीं हो सकता। यह सामाजिक चेतना का अनिवार्य परिणाम था। एक समय ऐसा था कि कोई भी व्यक्ति आर्यसमाजी बन जाने से ही सरकार की दृष्टि में राजनैतिक रूप से संदिग्ध हो जाता था। उस समय किसी नवयुवक के आर्यसमाजी बन जाने पर परिवार के लोग ऐसे ही चेहरा लटका लेते थे जैसे कि आजकल घर के लड़के के कम्युनिस्ट बन जाने पर आशंका अनुभव की जाती है।
      आर्यसमाज के प्रभाव से देश की अधोगति के प्रति असंतोष, समाज को पतन से बचाने की इच्छा और विदेशी शासन के प्रति मूक विरोध की भावना दो तरह प्रकट हो रही थी। इसका एक रूप था- भारत की प्राचीन समृध्दि और शक्ति का अत्युक्तिपूर्ण प्रचार। इसका अभिप्राय था अपने देश और समाज को हीन न समझ कर आत्मविश्वास का भाव पैदा करना। अपने समाज की श्रेष्ठता के विश्वास का अर्थ था; अपने समाज में गिरी हुई अवस्था से उन्नति करने का साहस उत्पन्न करना; परंतु जब अपनी श्रेष्ठता के विश्वास के कारण हम ने संसार के दूसरे देशों में हुई प्रगति से आंखें मूंद लीं, तो यह मिथ्या विश्वास हमें उन्नति से रोकने लगा।
      आर्यसमाज द्वारा उत्पन्न की गई सुधार की भावना का दूसरा रूप था- विदेशी सरकार के नियंत्राण से मुक्त अपनी शिक्षण संस्थाएं स्थापित करना। स्वतंत्र देश और समाज की उन्नति की आशा जनता में शिक्षा द्वारा ही जगाई जा सकती थी।
      आर्यसमाज में संगठनात्मक रूप से दो पार्टियां रही हैं, एक कालिज पार्टी और दूसरी गुरुकुल पार्टी। कालिज पार्टी में सरकारी नौकरों, वकीलों और सरकारी विश्वविद्यालयों से संबंधित शिक्षण संस्थाओं के लोगों की अधिकता रही है। यह पार्टी राजभक्ति की दृष्टि से विदेशी सरकार के अधिक समीप थी। दूसरी, गुरुकुल पार्टी का मुख्य आधार प्राचीन शिक्षा प्रणाली और प्राचीन संस्कृत का पुनरुत्थान रहा है। गुरुकुल पार्टी की शिक्षण संस्थाओं का सरकारी यूनिवर्सिटियों से कोई संबंध नहीं रहा इन के सामने सरकार द्वारा अस्वीकृति कर दिए जाने का भय नहीं था। इसलिए इस पार्टी से संबंधित लोगों में विदेशी सरकार के प्रति घृणा और विरोध का भाव भी अपेक्षाकृत उग्र रहा है, परंतु गुरुकुल पार्टी भी राजद्रोही समझ ली जाने के भय से सर्वथा मुक्त न थी और समय-समय पर हर उच्च पदस्थ अंग्रेज हाकिमों को अपनी संस्थाओं में निमंत्रण दे-दे कर यह विश्वास दिलाने की चेष्टा किया करती थी कि वह केवल धार्मिक संस्था मात्रा है। राजनीति से उसका कोई संबंध नहीं है। विदेशी शासन के प्रति इन के मन में घृणा और विरोध था परंतु उसे प्रकट करने का साहस इन में भी न था।
      बचपन में मैं स्वयं लगभग सात वर्ष गुरुकुल में रहा हूं। मुझे याद है कि गुरुकुलकांगड़ी विश्वविद्यालय के संस्थापक महात्मा मुन्शीराम जी, जो बाद में संन्यास ग्रहण करके स्वामी श्रध्दानंद कहलाने लगे थे, प्रांतीय गवर्नरों और वाइसरायों को गुरुकुल आमंत्रिात करके उनका प्रेमपूर्वक सत्कार करने का पाखंड करते रहते थे। जब दिल्ली में लार्ड हार्डिंग पर बम फेंका गया और लाट साहब बाल-बाल बच गए तो गुरुकुल में ईश्वर की इस कृपा पर धन्यवाद देने के लिए एक सभा की गई थी। लार्ड और लेडी हार्डिंग के चित्र विद्यार्थियों को बांटे गए। उनके दीर्घ जीवन के लिए ईश्वर से प्रार्थना की गई थी। पाखंड शब्द का उपयोग मैंने इसलिए किया है कि गुरुकुल कांगड़ी के वातावरण में अंग्रेज और विदेशी शासन के प्रति उत्कट घृणा थी। विदेशी शासन के प्रति वहां परवशता का भाव था, प्रेम का नहीं।
      गुरुकुल पार्टी में राजनैतिक चेतना अधिक होने का प्रमाण कालिज पार्टी के प्रमुख नेता महात्मा हंसराज और गुरुकुल पार्टी के प्रमुख नेता स्वामी श्रध्दानंद के व्यवहार से ही स्पष्ट हो जाता है। 1921 में जब जलियांवाला बाग की घटना के कारण विदेशी शासन और देश की जनता के आंदोलन की टक्कर ने उग्र रूप धारणा कर लिया तो स्वामी श्रध्दानंद राजभक्ति की अपनी पुरानी घोषणाओं के बावजूद राष्ट्रीय आंदोलन के अगले मोर्चे पर आए बिना न रह सके और उनकी गणना कांग्रेस के उग्र राजनैतिक नेताओं में होने लगी। दूसरी ओर कालिज पार्टी के अधिकारी विद्यार्थियों के राजनैतिक दमन में सरकार का साथ दे रहे थे।
      सरदार अजीत सिंह ने मुख्यत: और सरदार किशन सिंह ने भी विदेशी शासन  विरोधी राजनैतिक आंदोलन में भाग लिया था। उस समय अभी कृष्ण मंदिर (जेल) में तपस्या करके आत्मिक शक्ति द्वारा स्वराज्य प्राप्त कर लेने के गांधीवादी सिध्दांत का विकास नहीं हो पाया था। इसलिए सरदार अजीत सिंह पुलिस के हाथ पड़ कर जेल में सड़ते रहने के बजाय फरार होकर अपना काम करते रहे। गिरफ्तारी से बचने के लिए अम्बाप्रसाद सूफी के साथ वे भारत के अनेक भागों और नैपाल की तराई में फिरते रहे और फिर इस देश में कुछ कर पाने का अवसर न देखकर विदेश चले गए। विदेश में भी वे लाला हरदयाल, राजा महेंद्र प्रताप और बरकतुल्ला आदि दूसरे प्रमुख क्रांतिकारियों के सहयोग से जैसे तैसे भारत में राजनैतिक क्रांति की तैयारी के लिए प्रयत्न करते ही रहे। इटली से लौटे एक मित्र का कहना है कि दूसरे महायुध्द के समय रोम से रेडियो पर जो ब्रिटिश विरोधी प्रचार हिंदुस्तान में होता था और जिस की भाषा में ब्रिटिश साम्राज्यशाही और भारतीय ब्रिटिश सरकार के प्रति अदम्य घृणा और विरोध उबला पड़ता था वह सरदार अजीत सिंह के ब्रिटिश सरकार से आमरण टक्कर लेते रहने की भावना का ही परिणाम था।
      सरदार अजीत सिंह के लिए 1948 से पहले भारत लौट सकना संभव न हुआ। जिस समय वे लौटे, अत्यंत वृध्द और निरंतर संघर्ष से जीर्ण हो चुके थे। शीघ्र ही उन का देहांत हो गया। सरदार किशन सिंह भी कुछ हद तक अपने भाई का साथ देते रहे
ब्रिटिश विरोधी प्रचार हिंदुस्तान में होता था और जिस की भाषा में ब्रिटिश साम्राज्यशाही और भारतीय ब्रिटिश सरकार के प्रति अदम्य घृणा और विरोध उबला पड़ता था वह सरदार अजीत सिंह के ब्रिटिश सरकार से आमरण टक्कर लेते रहने की भावना का ही परिणाम था।
      सरदार अजीत सिंह के लिए 1948 से पहले भारत लौटना संभव न हुआ। जिस समय वे लौटे, अत्यंत वृध्द और निरंतर संघर्ष से जीर्ण हो चुके थे। शीघ्र ही उनका देहांत हो गया। सरदार किशन सिंह भी कुछ हद तक अपने भाई का साथ देते रहे।रौलेट-कानून विरोधी हड़ताल उसी समय टूटी जब गांधी ने अपनी भूल पर पश्चाताप करके हड़ताल को तुरंत तोड़ देने की आज्ञा दे दी। यह हड़ताल केवल लाहौर में ही नहीं अमृतसर, गुजरावाला आदि कई शहरों में भी इसी रूप में हुई।
      रौलेट कानून के विरुध्द प्रदर्शनों और हड़तालों को रोक कर गांधीजी और कांग्रेस ने सरकार द्वारा किए गए दमन की जांच की जाने की मांग और प्रार्थना अंग्रेज सरकार से आरम्भ की। कांग्रेस की यह मांग सरकार द्वारा स्वीकार न की जाने पर असहयोग आंदोलन आरंभ हुआ। पंजाब केसरी लाला लाजपत राय कई वर्ष के विदेश वास के बाद उसी समय भारत लौटे थे। देश में राजनैतिक उत्साह देख कर उन्होंने पंजाब में असहयोग आंदोलन का नेतृत्व आरंभ किया। पंजाब में इस आंदोलन ने खूब उग्र रूप ले लिया। कांग्रेस ने सरकारी खिताबों, नौकरियों, अदालतों और स्कूल कालिजों से असहयोग की  पुकार की। खिताब, नौकरियां और अदालतें तो कम ही लोगों ने छोडीं होंगी परंतु विद्यार्थियों ने स्कूल कालिज बड़ी संख्या में छोड़ दिये। इन्हीं असहयोगी विद्यार्थियों को योग्य राष्ट्रीय कार्यकर्त्ता बनाने के लिए लालाजी और पंजाब के कांग्रेसी नेताओं ने लाहौर में पंजाब नेशनल कालिज की स्थापना की थी।
      भगत सिंह असहयोगी विद्यार्थियों में से था। राष्ट्र की पुकार पर उसने शायद नवीं कक्षा से स्कूल छोड़ दिया था और वह कांग्रेस के स्वयं सेवकों में भर्ती होकर राष्ट्रीय  काम करने लगा था। सन् 1922 में गांधीजी के सत्याग्रह स्थगित कर देने के कारण राष्ट्रीय आंदोलन फिर दब गया। जो विद्यार्थी राष्ट्र की पुकार पर स्कूल कालिज छोड़ आए थे, वे ठगे गए से अनुभव करने लगे। उनकी परिस्थिति कठिन हो गई। आंदोलन स्थगित होने का प्रभाव केवल विद्यार्थियों पर ही नहीं बल्कि आंदोलन के लिए उत्साहित हो जाने वाली सम्पूर्ण जनता पर विचित्र ढंग से पड़ा। जनता गांधीजी की सन् 1921 के 31 दिसम्बर तक स्वराज्य प्राप्त कर लेने की प्रतिज्ञा पर विश्वास कर बहुत उत्साहित और
मरने- मारने के लिए तैयार हो चुकी थी। 22 फरवरी, 1922 की घोषणा से स्वराज्य प्राप्त किये बिना ही आंदोलन पूर्णत: स्थगित हो गया।
      आंदोलन के यों स्थगित हो जाने से जनता में जाग उठी संघर्ष की भावना को ऐसा धक्का लगा जैसे तेज चाल से चलती रेलगाड़ी को सहसा रोक देने से रेलगाड़ी के डिब्बे आपस में ही टकराने लगते हैं। जनता में जाग उठी उग्रता और संघर्ष की भावना कई लाभदायक और हानिकारक रूपों में परिणित हो गई। सांप्रदायिक दंगे भी हुए परंतु उसके साथ सांप्रदायिक सुधारवादी आंदोलन, उदाहरणत: सिक्खों में 'गुरुद्वारा-आंदोलन' भी वेग से चल पड़े।
      इसमें संदेह नहीं कि गुरुद्वारा आंदोलन सांप्रदायिक क्षेत्रा में ही सीमित था और इस का उद्देश्य गुरुद्वारों (सिख मंदिरों) से अनाचार दूर करना था परंतु इसकी भावना उग्र   सुधारवादी और अपने सीमित क्षेत्रा में क्रांतिकारी भी अवश्य थी। यह गुरुद्वारे  कुछ महंतों की पैतृक और वैयक्तिक संपत्तिा के रूप में चले आ रहे थे। गुरुद्वारों में भेंट के रूप में आने वाली लाखों की सम्पत्तिा और गुरुद्वारों से जुड़ी हुई जागीरों की आय इन महंतों की व्यक्तिगत या पारिवारिक आमदनी समझी जाती थी। इन महंतों के स्वामित्व में यह  गुरुद्वारे प्राय: तमाशबीनी और व्यभिचार के अव्े बन चुके थे। गुरुद्वारा आंदोलन का उद्देश्य इन मन्दिरों को महन्तों की पैतृक और व्यक्तिगत सम्पत्ति न रहने  देकर संगत (संप्रदाय) की सामाजिक संपत्ति बना देना और इन गुरुद्वारों का तथा उनकी आमदनी-खर्च का प्रबंध निर्वाचित पंचायतों द्वारा करना था। यह गुरुद्वारों के सामाजीकरण की मांग थी।
      सरकार मंदिरों की संपत्ति के सामाजीकरण करने के विरुध्द और मंदिरों की संपत्ति पर महंतों के पैतृक स्वामित्व के अधिकार की रक्षा करने के पक्ष में थी। सुधार चाहने वाली सिख जनता ने यह आंदोलन सत्याग्रह के रूप में चलाया। सिखों के नि:शस्त्रा जत्थे गुरुओं की वाणी का पाठ करते हुए इन मंदिरों और मठों पर सामाजिक अधिकार कायम करने के लिए जाते थे। महंतों के पालतू गुंडे और पुलिस की बड़ी-बड़ी गारदें इन नि:शस्त्रा स्वयंसेवकों पर लाठियों की अंधाधुंध बौछार करते थे। कई जगह गोली चली। प्राय: मंदिरों की जमीन खून से रंग जाती थी। मूर्छित होकर गिर पडे स्वयंसेवकों को ले जाकर जेलों में बंद कर दिया जाता था। गुरुद्वारा आंदोलन के संघर्ष का अनुमान 'ननकाना साहब गुरुद्वारे' के उदाहरण से ही किया जा सकता है। इस मंदिर पर अधिकार करने के लिए लगभग दो सौ स्वयं सेवकों की जानें गर्इं।
      सन् 1922 में राष्ट्रीय आंदोलन के स्थगित हो जाने पर भगत सिंह गुरुद्वारा आंदोलन में भाग लेने लगा था। इस आंदोलन में भाग लेने वाले क्रांतिकारियों के प्रतिश्रध्दा के कारण और इस आंदोलन में भाग ले सकने का अवसर पाने के लिए उस ने भी सिर पर केश रखा लिए थे। वह अकाली बन कर काली पगड़ी पहनने और कृपाण भी रखने लगा था। इन दिनों और भी अनेक हिंदू युवक सिख और अकाली सज गए थे। काली पगड़ी युवकों में फैशन ही बन गई थी। कृपाण के प्रति भगत सिंह की श्रध्दा इसलिए थी कि कृपाण के आधार पर सरकार द्वारा लगाये हुए प्रतिबंध का विरोध करने के लिए सिखों ने 'कृपाण-आंदोलन' चलाया था और सिख लोग तीन फीट लम्बी तलवारें हाथ में लिए कानून भंग करते थे।
      जब भगत सिंह नेशनल कालिज में पहुंचा, वह नियम से काली पगड़ी ही बांधता था परंतु गुरुद्वारा आंदोलन समाप्त हो चुका था। अब काली पगड़ी सांप्रदायिकता का ही चिह्न बन गई थी। भगत सिंह का काली पगड़ी बांधने का नियम धीरे-धीरे शिथिल हो गया। गुरुद्वारा आंदोलन में सिखों के सफल हो जाने पर उन में सांप्रदायिक संकीर्णता का अहंकार और रूढ़िवाद जोर पकड़ने लगे थे। नवयुवकों और भगत सिंह को अकाली संगठन से विरक्ति होने लगी थी। उन दिनों वह कभी भी गुरुद्वारे में नहीं जाता था।

रघुवीर सहाय की पांच छोटी कविताएं



उसका रहना  
  रोज़ सुबह उठकर पाते हो उसको तुम घर में
  इससे यह मत मान लो वह हरदम मौजूद रहेगी



बेटे से

 टूट रहा है यह घर जो तेरे वास्ते बनाया था
जहाँ कहीं हो आ जाओ... 
नहीं यह मत लिखो लिखो जहाँ हो वहीं अपने को टूटने से बचाओ
हम एक दिन इस घर से दूर दुनिया के कोने में कहीं
बाहें फैलाकर मिल जाएँगे



 भ्रम निवारण
तुम क्या समझते हो कि
हर लड़की जो मुझे देखकर 
मुस्कुराती है मेरी पहचानी है
नहीं,वह तो सिर्फ 
अपनी दुनिया में मस्त रहती है



ग़रीबी
 "हम गरीबी हटाने चले
और उस समाज में जहाँ आज भी दरिद्र होना दीनता नहीं
भारतीयता की पहचान है,दासता विरोध है दमन का प्रतिकार है
हम ग़रीबी हटाने चले
हम यानी ग़रीबों से नफ़रत हिकारत परहेज़ करनेवाले
 हम गरीबी हटाते हैं तो ग़रीब का आत्म सम्मान लिया करते हैं
इसलिए मैं तो इस तरह ग़रीबी हटाने की नीति के विरूद्ध हूं
क्योंकि वही तो कभी-कभी अपने सम्मान की अकेली 
रचना रह जाती है



 ख़तरा 
एक चिटका हुआ पुल है 
एक रिसता हुआ बाँध है
ज़मीन के नीचे बढ़ता हुआ पानी है
ख़तरे में राम ख़तरे में राजधानी है
पहले खुदा के यहाँ देर थी अँधेर न था
 अब खुदा के यहाँ अंधेर है और उसमें देर नहीं







सोमवार, 28 मार्च 2011

यादों के आइने में भगतसिंह और उनके साथी -1-यशपाल


                 ( क्रांतिकारी और महान कथाकार स्व.यशपाल)
 मैं यह कहानी व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर लिख रहा हूं। भगत सिंह, सुखदेव और मैं कालिज के सहपाठी थे। भगवतीचरण हम लोगों से दो बरस आगे थे। सहपाठी ही नहीं, हम लोगों में विशेष आंतरिकता भी थी। इस आंतरिकता का भी कुछ कारण रहा होगा। इस आंतरिकता द्वारा मैं उन लोगों की परिस्थितियों को भी जान सका हूं।
      भगत सिंह का पारिवारिक घर लाहौर से लगभग कुछ मील दूर सांडा गांव में था। सुखदेव लायलपुर का रहने वाला था। भगवतीचरण वोहरा लाहौर के ही रहने वाले थे। मेरे परिवार का आदिम स्थान तो कांगड़े का पहाड़ी जिला है परंतु पंजाब नेशनल कालिज में मैं फिरोजपुर से गया था। लाहौर के पंजाब नेशनल कालिज में, जहां कि एच.एच.आर.ए. की प्रथम धूनी सुलगी, हम लोगों का आकर मिल जाना जैसी परिस्थितियों में संभव हुआ और जिन प्रवृत्तियों के कारण हम लोग एक दूसरे की ओर आकर्षित हुए या हमने एक दूसरे में कुछ ऐसी बात विश्वास के योग्य पाई जिसके कारण जिंदगी-मौत के खेल में साथी बन गए।
      सशस्त्र क्रांतिकारी आंदोलन के जिस काल से मेरा व्यक्तिगत संबंध रहा है उसमें भगत सिंह का स्थान महत्वपूर्ण था। क्रांति की चेष्टा या राजनीतिक बातों के अलावा भी सहपाठी और मित्र के रूप में भगत सिंह की संगति में बहुत बड़ा आकर्षण था। वह स्वयं बहुत विनोदप्रिय होने के साथ-साथ दूसरों के लिए विनोद का अच्छा खासा साधन भी बन सकता था। भगत सिंह के उस समय के रूप और उसके वर्तमान ऐतिहासिक महत्व और स्थान में बहुत अंतर है। भगत सिंह के जो सुघड़ और चुस्त चित्र हैट पहने और मूंछ मुर्री दिए आज जगह-जगह दिखाई देते हैं, उनसे भगत सिंह के उस समय के रूप और व्यवहार की कल्पना नहीं की जा सकती। कद लंबा और चेहरे का रंग साफ होने पर भी हल्की-हल्की दाढी-मूंछ से घिरा चेहरा परंतु हल्की भवें और छोटी-छोटी आंखें। सिर पर ढीले-ढाले बांधे केशों पर दोनों ओर लटकती  छोटी-सी पगड़ी। खद्दर के मैले और प्राय: शरीर से बेनाप कपड़े। कमर में अक्सर पायजामे की जगह लुंगी पहन कर ही वह कालिज आ जाता। हम लोगों का सहपाठी झंडा सिंह उस की आंखों की उपमा लड्डू में चिपके बादामों से और उसके रूप की उपमा जवान अल्हड़ बोते (ऊंट) से दिया करता था।     
दूसरी और समय आने पर उसी भगत सिंह का रूप और करतूत दोनों ही ऐसे निखरे कि उसे फांसी दी जाने के समाचार की पहली चोट जब हल्की पड़ गयी तो उस अनिवार्य चोट को सह्य मजाक बना डालने के लिए पंजाब की एक प्रमुख महिला कह बैठीं- 'आज जाने देश की कितनी महत्वाकांक्षी कुमारियों के हृदय विधवा हो गए होंगे।' भगत सिंह देश के युवक-युवतियों के स्वप्नों का आदर्श बन गया था। लोग उस के रूप को भी उसकी कीर्ति की छाया में ही देखने लगे। कालिज के दिनों में भगत सिंह को बुध्दू बनाने में मजा आता था। मैं स्वयं भी काफी बुध्दू बनता रहा हूं। हम सभी को किसी न किसी समय बुध्दू बनना ही पड़ता था। एक समय खिलवाड़ का साधन भगत सिंह अपनी कर्मशीलता और निष्ठा से आज गौरव का कारण बन गया है। इसके अतिरिक्त कितनी ही रहस्यमय दंतकथाओं ने भी भगतसिंह की स्मृति को लपेट लिया है।
      आखिर भगत सिंह के हृदय में क्रांति की भावना और प्रवृत्ति इतनी उग्र क्यों थी? यहां क्रांति की भावना और शूरवीरता या साहस को अलग-अलग रखकर बात करना चाहता हूं। भगत सिंह क्यों विशेष बेचैन और उग्र जान पड़ता था... ? मैं समझता हूं इसके कारण उस की परिस्थितियों में खोजे जा सकते हैं।
      भगत सिंह के अधिकांश चित्रों में सिर पर केश पगड़ी नहीं हैट दिखायी देता है। नाम में 'सिंह' जुड़ा रहने से पंजाब से बाहर के लोग उसे प्राय: राजपूत ठाकुर समझ लेते हैं। भगत सिंह का जन्म सिख परिवार में हुआ था। अब तो शायद उसके छोटे भाइयों में से किसी के भी सिर पर केश नहीं हैं। सिख संप्रदाय में भी हिंदुओं की तरह ब्राह्मणों और खत्रियों की कई उपजातियां हैं। भगत सिंह का परिवार साधारण किसान था, जिसे जाट कहा जाता है। भगत सिंह और उनके पिता सरदार किशन सिंह के नाम के साथ सरदार की उपाधि जुड़ी देख कुछ लोग इस शब्द को उनके वंश की उपाधि ही समझ लेते हैं। ऐसी कोई बात नहीं है। पंजाब में प्रत्येक सिख सरदार पुकारा जाता है ठीक वैसे ही जैसे कि निरक्षर ब्राह्मण भी पंडित पुकारे जाते हैं। भगत सिंह को कभी किसी ऐतिहासिक पुरातन महापुरुष से अपने वंश का संबंध जोड़ने का गर्व करते नहीं सुना।
      भगत सिंह के परिवार का संप्रदाय सिख था परंतु सिख सांप्रदायिकता के प्रति इस परिवार में कोई रूढ़िवादी आस्था नहीं थी। भगत सिंह के पिता से मेरा घनिष्ट परिचय रहा है। उसके दादा को भी जानता हूं। सिर पर केश होने के बावजूद यह लोग सिख की अपेक्षा आर्यसमाजी ही अधिक थे। भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह तो सामाजिक प्रश्नों पर सांप्रदायिकता की उपेक्षा कर उन्हें केवल राजनैतिक दृष्टि से ही देखते थे। कांग्रेस में वे रहे तो सदा ही परंतु रहे असंतुष्ट आलोचक के रूप में वामपक्ष की ओर। सरदार किशन सिंह, आर्यसमाज के समाज-सुधार के कार्यक्रमों में काफी दिलचस्पी रखते थे। लाहौर में आर्यसमाज का वार्षिक उत्सव होन पर वहां अवश्य दिखाई दे जाते। यह शायद इसलिए कि पुराने सहयोग के कारण आर्यसमाज के कार्यकर्ताओं से उन के व्यक्तिगत संपर्क चले आते थे। किसी सांप्रदायिक अनुष्ठान, पूजापाठ, हवन-  संध्या के प्रति उन में रुचि नहीं देखी। दादा अर्जुन सिंह जी जरूर धार्मिक अनुष्ठान के प्रति निष्ठा रखते थे परंतु किस अनुष्ठान के प्रति?
      सन् 1925 के जाड़ों की बात है। सरदार किशन सिंह जी एक इन्श्योरेंस कंपनी की एजेंसी कर रहे थे। उनका दफ्तर लाहौर में लुहारी दरवाजे के भीतर बाजार में दुमंजिले पर था। जब यह जगह मौजूद थी तो भगत सिंह के मित्रों को कोई दूसरा मकान किराये पर लेने की जरूरत क्या थी? उस समय जोरू-जाता किसी के था ही नहीं। सरदार किशन सिंह जी एजेंसी तो जरूर लिए थे परंतु उन दिनों अधिक धन कमा सकने की आशा में उनकी रुचि खेती और दूध विक्रय की ओर ही अधिक थी। वे प्राय: सांडा गांव में रहते थे। एजेंसी का यह दफ्तर हम लोगों के लिए आराम का डेरा बना हुआ था।
      मैं उन दिनों लाहौर के नेशनल स्कूल में पढ़ा रहा था। नेशनल कालिज समाप्त होकर केवल नेशनल हाईस्कूल ही रह गया था। भगत सिंह अनिच्छा से थोड़ा बहुत समय घर के कारोबार में लगाता, शेष समय पढ़ता और गुप्त संगठन के लिए भूमि तैयार करने में लगा रहता। सुखदेव कभी लायलपुर अपने घर चला जाता। वहां उसके परिवार ने उसे आटे की एक चक्की लगवा दी थी। लाहौर आता तो भगत सिंह के साथ ही बना रहता। हमारे सहपाठी झंडा सिंह और जयदेव गुप्त भी वहीं रहते थे। झंडा सिंह 'गांधी खद्दर भंडार' में काम कर रहा था और उसी में जुटा रहा। जयदेव गुप्त सरदार के बीमे के काम में सहयोग दे रहा था। खाना हम लोग किसी तंदूर पर खा लेते और दफ्तर में बिछी दरी पर बिस्तरा लगा कर रात काट देते। दफ्तर में मेज-कुर्सी मौजूद होने से पढ़ने लिखने की भी सुविधा थी।
      एक दिन स्कूल में छुट्टी थी। दूसरे लोग मकान पर मौजूद नहीं थे। मैं अपनी सनक में मेज पर बैठा कोई लेख या कहानी लिख रहा था। मेज के नीचे टीन की क्या चीज पड़ी है, यह खयाल न कर उस पर जूते जमा कर रख लिए थे। संभव है अचेतन रूप से यही धारणा रही हो कि रद्दी की टोकरी के तौर पर कोई डिब्बा है। लिखते समय विचारों को ठेलने के लिए मेज के नीचे उस टीन की चीज को जूते से एड़ दिए जा रहा था।
      जीने पर भारी कदमों से धम-धम करते हुए एक वृध्द सिख सज्जन अपने ग्रामीण वेश में ऊपर दफ्तर में आ गए। मैंने एक दफे नजर उठा कर उनकी ओर देखा और लिखने में तन्मय रहा। सरदारजी के ऐसे अनेक संबंधी गांवों से आते-जाते रहते थे। इन सज्जन की दाढ़ी खूब प्रशस्त, बर्फ की तरह श्वेत और चेहरा खूब तेजोमय गुलाबी रंग का था। मैंने उन की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। आगंतुक भी मुझ से आदर की प्रतीक्षा न कर एक कुर्सी खींच कर चुपचाप दीवार के पास बैठ गए। मैं मालिक बना बैठा लिखता रहा और मेज के नीचे टीन की चीज पर जूते की ठोकरें भी जमाता रहा।
      अचानक वजनी गालियों से भरी एक करारी डांट सुन कर आंख उठा कर देखा कि वयोवृध्द भव्य मूर्ति की आंखें लाल और चेहरा क्रोध से तमतमा उठा है और वे हाथ में थमी लाठी को फर्श पर ठोक रहे हैं।
      ''गधा, उल्लू, नास्तिक, बदमास, सिर तोड़ दूंगा...।'' उन के हाथ की लाठी मेरे सर पर पड़ा ही चाहती थी। वृध्द ने अपने आवेश को कठिनता से वश में कर मेज के नीचे संकेत करते हुए फटकारा ''उल्लू, यही तेरी तमीज है?''
      मेज के नीचे झांक कर देखा तो अपने जूतों के बीच पाया एक औंधा पड़ा हवनकुंड। सब कुछ समझ में आ गया। उपेक्षा के कारण पहचानने में भूल हुई थी। भगत सिंह से सुन रक्खा था कि दादा जी नित्य हवन करते हैं। जहां जाते हैं, पोटली में हवनकुंड और हवन सामग्री साथ बांध ले जाते हैं।
      भगत सिंह के दादा सरदार अर्जुन सिंह की सांप्रदायिक आस्था वैदिक कार्य के आर्यसमाजी ढंग की थी। सिख परिवार में पैदा होकर, भगवान द्वारा सिर पर लाद दिए गए संप्रदाय की अवहेलना करके जो व्यक्ति अपनी बुध्दि से किसी दूसरे संप्रदाय को तर्क संगत समझ कर स्वीकार कर लेता है, वह प्रकृति से विचार स्वतंत्राता चाहने वाला और अपने ज्ञान की सीमा तक क्रांतिकारी ही होगा। भगत सिंह की इस पारिवारिक परिस्थिति का प्रभाव उसके मानसिक विकास पर पड़ना अनिवार्य था। सरदार अर्जुन सिंह न केवल व्यक्तिगत रूप से ही अपने धार्मिक विचारों के अनुसार आचरण करते थे बल्कि अपने गांव में भी बिरादरी और बस्ती के विरोध की परवा न कर आर्यसमाज का जलसा और प्रचार करने के लिए लोहा लेते रहते थे।
      भगत सिंह के परिवार का पुराना स्थान पंजाब के होशियारपुर जिले में था। चिनाब नदी की नहर बन जाने पर लायलपुर के रेतीले जिले में नई बस्ती बसने लगी। यह लोग अपने पैतृक स्थान में खेती की भूमि का अभाव अनुभव कर लायलपुर के एक गांव में आ बसे।
      भगत सिंह से इस गांव की एक बड़ी विचित्रा घटना सुनी। दादा अर्जुन सिंह जी के गांव की भूमि तम्बाकू की उपज के लिए बहुत अनुकूल है परंतु गांव में पूरी आबादी सिखों की होने के कारण वहां तम्बाकू की खेती नहीं होती थी। सरदार अर्जुन सिंह इस रूढ़िवाद या कुसंस्कार को कब तक सहते जाते? उन्होंने अपने खेतों में तम्बाकू बो दिया। गांव भर में पंचायतें हुर्इं पर वे डटे रहे। फसल तैयार हो जाने पर तम्बाकू घर में जमा भी कर लिया। खेतों तक तम्बाकू का रखना एक बात थी पर उसका एक सिख के घर में रख लिया जाना सिख बिरादरी किसी तरह न सह सकती थी। सरदारजी को बिरादरी से अलग कर दिया गया। सिख बिरादरी में हुक्के का तो प्रश्न ही नहीं उठता इसलिए सरदारजी का पानी और उनसे व्यवहार बंद  हो गया। सरदारजी अपनी बिरादरी को तर्क द्वारा समझाने की विफल चेष्टा करते रहे।
      एक दिन उस तम्बाकू का ग्राहक भी आ पहुंचा। तम्बाकू बिक गई। मुनाफा घर में आ गया। अब सरदारजी ने बिरादरी से कहा ''मैं अपना अपराध स्वीकार करता हूं कि मैंने अति अपवित्र वस्तु को छुआ और अपने घर में रखा परंतु अब वह मेरे घर से निकल  चुकी है। घृणित से घृणित वस्तु को छू कर भी सफाई कर लेने से मनुष्य पवित्र हो जाता है। गुरुओं की आज्ञा है कि कोई व्यक्ति, अछूत या मुसलमान भी 'अमृत छक' कर सिख धर्म में दीक्षित हो सकता है। आप जिस तरह कहें, मैं अपने मकान की शुध्दि करने को तैयार हूं।'' सरदारजी फिर बिरादरी में शामिल हो गए। अपने मित्रों को उन्होंने समझाया ''जहां तर्क नहीं चलता वहां उदाहरण काम देता है। मेरी बिरादरी के सामने यह उदाहरण तो है कि तम्बाकू जैसे निषिध्द पदार्थ को छू लेने वाला व्यक्ति भी गुरुओं की आज्ञा द्वारा फिर पवित्र हो सकता है। इतनी सी बात पर मैं आयु भर के लिए बिरादरी से अलग हो जाऊं यही क्या तर्कसंगत है?''
      उपरोक्त घटना से यह स्पष्ट है कि रूढ़िवाद से मुक्त पारिवारिक वातावरण में भगत सिंह ने तर्क, विद्रोह और साहस की दीक्षा स्वाभाविक रूप से पाई थी। भगत सिंह के परिवार की आर्यसमाज के प्रति अनुरक्ति विचार-स्वतंत्रता और क्रांति की ओर प्रवृत्ति के कारण ही थी। आज आर्यसमाज के आंदोलन और संगठन ने मठ और रूढ़िवाद का जैसा रूप धारण कर लिया है, उससे उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं शताब्दी के आरंभिक काल के आर्यसमाजियों की भावना का अनुमान ठीक-ठीक नहीं हो सकता; जैसे कि आज अमरीकन और ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की ईसाइयत को देख कर रोमन साम्राज्य के समय ईसाई धर्म द्वारा किए गए परलोक के विश्वास के सहारे नीरु के दमन और अत्याचार के विरुध्द लड़ने वाले ईसाई दासों और गरीब इसाई लोगों की मनोभावना का अनुमान नहीं किया जा सकता।
      उस समय भी आर्यसमाजी आंदोलन का रूप सांप्रदायिक जरूर था। वह वैदिक धर्म पुन: स्थापना की घोषणा करता था। वैदिक धर्म की पुन: स्थापना की पुकार का अर्थ मुख्यत: हिंदू संप्रदाय को असंगत, रूढ़ियों, कुसंस्कारों और मिथ्या विश्वासों से मुक्त करना था। उसका कार्यक्षेत्रो सांप्रदायिक सीमाओं के भीतर प्रगतिवादी और क्रांतिकारी भी था। उस समय आर्यसमाज के आंदोलन का विशेष रुझान सामाजिक समस्याओं की ओर था। शिक्षा-प्रचार, विधवा-विवाह, जन्म से वर्ण-व्यवस्था की धारणा को तोड़ना और अछूत समझी जाने वाली जातियों के लिए मनुष्यता के अधिकारों की मांग इस आंदोलन के प्रमुख भाग थे। इन प्रगतिशील भावनाओं का स्वाभाविक परिणाम विदेशी दासता से असंतोष भी हुआ। सामाजिक प्रगति के पथ पर कदम रखने से व्यक्ति राजनैतिक दृष्टि से सचेत हुए बिना नहीं रह सकता। यही कारण था कि पंजाब में आर्यसमाज द्वारा सामाजिक  सुधार की चेतना फैलने के साथ-साथ ही विदेशी दासता के विरोध की चेतना भी फैलने लगी। उस समय पंजाब के प्राय: सभी राजनैतिक कार्यकर्ता लाला हरदयाल, अम्बाप्रसाद सूफी, लाला लाजपत राय और अजीत सिंह आदि 'आर्यसमाजी विचार स्वतंत्रता' द्वारा प्रभावित थे। 1914-1915 लाहौर षडयंत्र के मामले में भाई परमानंदजी आदि भी आर्यसमाज की प्रगतिशील चेतना की ही उपज थे।(क्रमशः)

रविवार, 27 मार्च 2011

प्रमोशन और साहित्य का संकट


     कोलकाता में एक दशक से हिन्दी सेमीनार के प्रमाणपत्र जुटाने की संक्रामक बीमारी कॉलेज शिक्षकों में फैल गयी है। सेमीनार में वे इसलिए सुनने जाते हैं जिससे उन्हें सेमीनार में भाग लेने का सर्टीफिकेट मिल जाए। यह साहित्य के चरम पतन की सूचना है। ये वे लोग हैं जो हिन्दी साहित्य से रोटी-रोजी कमा रहे हैं। ये लोग सेमीनार में बोले बिना सेमीनार में भाग लेने का प्रमाणपत्र पाकर अपने को धन्य कर रहे हैं।  आयोजक यह कहकर शिक्षकों को बुलाते हैं कि प्रमोशन कराना है तो सेमीनार सर्टीफिकेट लगेगा, आ जाओ सुनने, सर्टीफिकेट मिल जाएगा। फलतः ज्यादातर शिक्षक सेमीनार को सुनने आते हैं। सेमीनार का सर्टीफिकेट पाने के लिए वे डेलीगेट फीस भी देते हैं। इस प्रक्रिया में दो किस्म का साहित्यिक भ्रष्टाचार हो रहा है. पहला नौकरी में प्रमोशन के स्तर पर हो रहा है। श्रोता के सर्टीफिकेट को वक्ता के सर्टीफिकेट के रूप में पेश करके तरक्की के पॉइण्ट प्राप्त किए जा रहे हैं। दूसरा , साहित्य विमर्श के नाम पर कूपमंडूकता बढ़ रही है। सेमीनारों में वक्ताओं के भाषण साधारण पाठक की चेतना से भी निचले स्तर के होते हैं और सेमीनार के बाद सभी लोग एक-दूसरे की पीठ ठोंकते हैं, गैर शिक्षक श्रोता फ्रस्टेट होते हैं,वे मन ही मन धिक्कारते हैं और कहते हैं और कहते हैं कि वे सुनने क्यों आए। वक्तागण आशीर्वाद देते हैं,पैर छुआते हैं। इस समूची प्रक्रिया में कई लोग तो इस कदर नशे में आ गए हैं कि उन्हें यह बीमारी हो गयी है कि शहर में कोई भी साहित्यिक कार्यक्रम हो उनको अध्यक्षता के लिए बुलाओ,ये लोग अध्यक्ष न बनाए जाने पर कार्यक्रम में जाते नहीं है। नहीं बुलाने पर नाराज हो जाते हैं।  इन पंडितों का मानना है वे जिस सेमीनार में जाते हैं उस सेमीनार को सार्थक करके आते हैं। इस प्रसंग में मुझे कई लेखकों की रचनाएं याद आ रही हैं। इनमें सबसे पहले में मुक्तिबोध को उद्धृत करना चाहूँगा। बहुत पहले मुक्तिबोध ने हिन्दी के प्रोफेसरों के बारे में लिखा, ''बटनहोल में प्रति‍नि‍धि पुष्‍प लगाए एक प्रोफ़ेसर साहि‍त्‍यि‍क से रास्‍ते में मुलाकात होने पर पता चला कि हि‍न्‍दी का हर प्रोफेसर साहि‍त्‍यि‍क होता है। पने इस अनुसन्‍धान पर मैं मन ही मन बड़ा खुश हुआ। खुश होने का पहला कारण था अध्‍यापक महोदय का पेशेवर सैद्धान्‍ति‍क आत्‍मवि‍श्‍वास। ऐसा आत्‍मवि‍श्‍वास महान् बुद्धि‍मानों का तेजस्‍वी लक्षण है या महान् मूर्खों का दैदीप्‍यमान प्रतीक ! मैं नि‍श्‍चय नहीं कर सका कि वे सज्‍जन बुद्धि‍मान हैं या मूर्ख ! अनुमान है कि वे बुद्धि‍मान तो नहीं, धूर्त और मूर्ख दोनों एक साथ हैं।''       
मुक्‍ति‍बोध ने यह भी लि‍खा है '' चूँकि प्रोफेसर महोदय साहि‍त्‍यि‍क हैं इसलि‍ए शायद वे यह कुरबानी नहीं कर सकते। नाम- कमाई के काम में चुस्‍त होने के सबब वे उन सभी जगहों में जाएंगे जहॉं उन्‍हें फायदा हो-चाहे वह नरक ही क्‍यों न हो।''
    कोलकाता के शिक्षकों की अवस्था इससे बेहतर नहीं बन पायी है। हिन्दी के इस तरह के आयोजनों में किस तरह के भाषण होते हैं और चेले-चेलियां किस तरह प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं इस पर कवि -कहानीकार उदयप्रकाश की बड़ी शानदार कविता है 'पाँडेजी' उसका अंश देखें-
"छोटी-सी काया पाँडेजी की/छोटी-छोटी इच्छाएँ/ छोटे-छोटे क्रोध/और छोटा दिमाग।
गोष्ठी में दिया भाषण,कहा- 'नागार्जुन हिन्दी का जनकवि है '/फिर हँसे कि ' मैंने देखो
कितनी गोपनीय/चीज को खोल दिया यों।यह तीखी मेधा और/वैज्ञानिक आलोचना का कमाल है। '/एक स-गोत्र शिष्य ने कहा-' भाषण लाजबाब था /अत्यन्त धीर-गंभीर/
तथ्यपरक और विश्लेषणात्मक/हिन्दी आलोचना के खच्चर/ अस्तबल में/आप ही हैं /एकमात्र/काबुली बछेड़े/ 'तो गोल हुए पाँडे जी/मंदिर के ढ़ोल जैसे/ठुनुक -ठुनुक हँसे और/फिर बुलबुल हो गए/फूलकर मगन !"
    मैं 20 सालों से कोलकाता में रह रहा हूँ और आए दिन हिन्दी सेमीनारों की दुर्दशापूर्ण अवस्था के किस्से अपने दोस्तों और विद्यार्थियों से सुनता रहा हूँ। मैं आमतौर पर इन सेमीनारों से दूर रहता हूँ। इसके कारण लोग यह मानने लगे हैं कि मैं साहित्य के बारे में नहीं जानता। कई मित्र हैं जो सेमीनार के कार्ड में वक्ता के रूप में मेरा नाम न देखकर दुखी होकर फोन करते हैं कि यहां तो आपको होना ही चाहिए था। मेरी स्थिति इस कदर खराब है कि एकबार कोलकाता की सबसे समर्थ साहित्यिक संस्था की कर्ताधर्ता साहित्यकार नेत्री ने चाय पर अपने घर बुलाया और कहा कि हम इतने कार्यक्रम करते हैं और आपस में बातें भी करते हैं कि स्थानीय स्तर पर कौन विद्वान हैं जिन्हें बुलाया जाए तो लोग आपका नाम कभी नहीं बताते, मैं  स्वयं भी नहीं जानती कि आप विद्वान हैं। मैंने कहा मैं विद्वान नहीं हूँ। इसी प्रसंग में मैंने उन्हें त्रिलोचन की एक कविता ' प्रगतिशील कवियों की नयी लिस्ट निकली है' सुनायी, कविवर त्रिलोचन ने लिखा- " प्रगतिशील कवियों की नयी लिस्ट निकली है/उसमें कहीं त्रिलोचन का नाम नहीं था/आँख फाड़कर देखा/दोष नहीं था/पर आँखों का/सब कहते हैं कि प्रेस छली है/शुद्धिपत्र देखा ,उसमें नामों की माला छोटी न थी/ यहाँ भी देखा ,कहीं त्रिलोचन नहीं/तुम्हारा सुन सुनकर सपक्ष आलोचन कान पक गए थे/मैं ऐसा बैठा ठाला नहीं,तुम्हारी बकबक सुना करूँ/किसी जगह उल्लेख नहीं है,तुम्हीं एक हो,क्या अन्यत्र विवेक नहीं है/ तुम सागर लाँघोगे ? -डरते हो चहले से/बड़े-बड़े जो बात कहेंगे-सुनी जायग/व्याख्याओं में उनकी व्याख्या चुनी जाएगी/"
  कोलकाता हिन्दी के क्षयिष्णु वातावरण का एक अन्य पक्ष है हिन्दी के पठन-पाठन की ह्रासशील अवस्था। यह स्थिति कमोबेश पूरे राज्य में है। मसलन जो आज छात्र है वह कल शिक्षक होगा।जो विद्यार्थी एम.ए. में आते हैं उनमें अधिकांश ठीक से हिन्दी लिखना तक नहीं जानते । अब आप ही सोचिए कि जो विद्यार्थी एम.ए. तक आ गया वह हिन्दी लिखना नहीं जानता। इस तरह के विद्यार्थियों की संख्या हर साल बढ़ रही है। उच्च शिक्षाकी सुविधाओं का निचलेस्तर पर विस्तार हुआ है। बड़े पैमाने पर छात्र हिन्दी ऑनर्स कर रहे हैं , वे जब ठीक से हिन्दी लिखना नहीं जानते,ठीक से प्रश्नों का उत्तर तक नहीं देते तब वे कैसे एम.ए. तक अच्छे अंक प्राप्त करके आ जाते हैं, इसका रहस्य कोई भी आसानी से समझ सकता है कि कोलकाता में हिन्दी में अंक कैसे दिए जाते होंगे। हिन्दी प्रमोशन के नाम पर बड़े पैमाने पर ऐसे छात्रों की पीढ़ी तैयारहुई है जो येन-केन प्रकारेण अंक हासिल करके पास हुए हैं। पढ़ने,समझने और सीखने की आदत बहुत कम विद्यार्थियों में है। जिनमें यह आदत है उन्हें पग-पग पर छींटाकशी, अपमान और अकल्पनीय असुविधाओं का सामना करना पड़ता है। कोलकाता में सारे विद्यार्थी जानते हैं कि हिन्दी में नौकरी पाने के नियम क्या हैं  ? किसके हाथ में नौकरियां हैं ? किस नेता और प्रोफेसर को पटाना है और कैसे पटाना है । इस समस्या की जड़ें गहरी हैं,गहराई में जाकर देखें तो हिन्दी के शिक्षक नए से डरते हैं,विचारों का जोखिम उठाने से डरते हैं। अन्य से सीखने और स्वयं को उससे समृध्द करने में अपनी हेटी समझते हैं। साहित्य को अनुशासन के रूप में पढ़ने पढ़ाने में इनकी एकदम दिलचस्पी नहीं है।
        आज वास्तविकता यह है कि ज्यादातर शिक्षक और समीक्षक आजीविका और थोथी प्रशंसा पाने लिए अपने पेशे में हैं।वे किसी भी चीज को लेकर बेचैन नहीं होते। उनके अंदर कोई सवाल पैदा नहीं होते। एक नागरिक के नाते उनके अंदर वर्तमान की विभीषिकाओं को देखकर उन्हें गहराई में जाकर जानने की इच्छा पैदा नहीं होती।वे पूरी तरह अतीत के रेतीले टीले में सिर गडाए बैठे हैं।
       हिन्दी की सबसे बड़ी समस्या यह है कि शिक्षक और आलोचक अपने नियमित अभ्यास और ज्ञान विनिमय को अनुसंधान का जरिया नहीं बना पाए है। विद्यार्थियों में मासूमियत और अज्ञानता बनाए रखने में इस तरह के शिक्षकों की बड़ी भूमिका है।ये ऐसे शिक्षक हैं जो ज्ञान के आदान-प्रदान में एकदम विश्वास नहीं करते। कायदे से शिक्षक को पारदर्शी, निर्भीक और ज्ञानपिपासु होना चाहिए।किन्तु हिन्दी विभागों में मामला एकदम उल्टा है।हिन्दी के शिक्षक कम ज्ञान में संतुष्ट,आरामतलब,और दैनन्दिन जीवन की जोड़तोड़ में मशगूल रहते हैं।
    इसके विपरीत यदि कोई शिक्षक निरंतर शोध करतााहै या निरंतर लिख रहा है तो उसका उपहास उडाने और केरीकेचर बनाने में हमारे शिक्षकगण सबसे आगे होते हैं। और कहते हैं कि बड़ा कचरा लिख रहे हैं।हल्का लिख रहे हैं। यानी हमारे शिक्षकों को निरंतर लिखने वाले से खास तरह की एलर्जी है।वे यह भी कहते हैं कि फलां का लिखा अभी तक इसलिए नहीं पढ़ा गया या विवेचित नहीं हुआ  क्योंकि जब तक उनकी एक किताब पढकर खत्म भी नहीं हो पाती है तब तक दूसरी जाती है।इस तरह के अनपढों के तर्क उसी समाज में स्वीकार किए जाते हैं जहां लिखना अच्छा नहीं माना जाता। कहीं कहीं गंभीर लेखन के प्रति एक खास तरह की एलर्जी या उपेक्षा जिस समाज में होती है वहीं पर ऐसी प्रतिक्रियाएं आती हैं। इस तरह की मनोदशा के प्रतिवादस्वरूप त्रिलोचन ने लिखा है- "शब्द/ मालूम है/व्यर्थ नहीं जाते हैं/पहले मैं सोचता था/उत्तर यदि नहीं मिले /तो फिर क्या लिखा जाय/किन्तु मेरे अन्तरनिवासी ने मुझसे कहा- लिखाकर/तेरा आत्म-विश्लेषण क्या जाने कभी तुझे/एक साथ सत्य शिव और सुंदर को दिखा जाय/अब मैं लिखा करता हूँ/अपने अन्तर की अनुभूति बिना रँगे चुने/कागज पर बस उतार देता हूँ/"
   हिन्दी से जुड़े अधिकांश जटिल सवालों की हमारी समीक्षा ने उपेक्षा की है। वे किसी भी साहित्यिक और सांस्कृतिक बहस को मुकम्मल नहीं बना पाए हैं। हिन्दी में साहित्यिक बहसें विमर्श एवं संवाद के लिए नहीं होतीं,बल्कि यह तो एक तरह का दंगल है,जिसमें डब्ल्यू डब्ल्यू फाइट चलती रहती है।हमने संवाद,विवाद और आलोचना के भी इच्छित मानक बना लिए हैं। इसे भी हम अनुशासन के रूप में नहीं चलाते।

    परंपरा का मूल्यांकन करते हुए हमने सरलीकरण से काम लिया है।परंपरा की इच्छित इमेज बनाई है।परंपरा की जटिलताओं को खोलने की बजाय परंपरा के वकील की तरह आलोचना का विकास किया है।  परंपरा का मूल्यांकन करते हुए जो लेखक-शिक्षक परंपरा के पास गया वह परंपरा का ही होकर रह गया। परंपरा के बारे में हमारे यहां तीन तरह के नजरिए प्रचलन में हैं। पहला नजरिया परंपरावादियों का है जो परंपरा की पूजा करते हैं।परंपरा में सब कुछ को स्वीकार करते हैं। दूसरा नजरिया प्रगतिशील आलोचकों का है जो परंपरा में अपने अनुकूल की खोज करते हैं और बाकी पर पर्दा डालते हैं।तीसरा नजरिया आधुनिकतावादियों का है जो परंपरा को एकसिरे से खारिज करते हैं। इन तीनों ही दृष्टियों में अधूरापन है और स्टीरियोटाईप है।
   परंपरा को इकहरे,एकरेखीय क्रम में नहीं पढ़ा जाना चाहिए।परंपरा का समग्रता में जटिलता के साथ मूल्यांकन किया जाना चाहिए।परंपरा में त्यागने और चुनने का भाव उत्तर आधुनिक भाव है। यह भाव प्रगतिशील आलोचकों में खूब पाया जाता है। परंपरा में किसी चीज को चुनकर आधुनिक नहीं बनाया जा सकता। नया नहीं बनाया जा सकता। परंपरा के पास हम इसलिए जाते हैं कि अपने वर्तमान को समझ सकें वर्तमान की पृष्ठभूमि को जान सकें।हम यहां तक कैसे पहुँचे यह जान सकें।परंपरा के पास हम परंपरा को जिन्दा करने के लिए नहीं जाते। परंपरा को यदि हम प्रासंगिक बनाएंगे तो परंपरा को जिन्दा कर रहे होंगे। परंपरा को प्रासंगिक नहीं बनाया जा सकता।परंपरा के जो लक्षण हमें आज किसी भी चीज में दिखाई दे रहे हैं तो वे मूलत: आधुनिक के लक्षण हैं, नए के लक्षण हैं।नया तब ही पैदा होता है जब पुराना नष्ट हो जाता है। परंपरा में निरंतरता होती है जो वर्तमान में समाहित होकर प्रवाहित होती है वह आधुनिक का अंग है।
       हिन्दी में सबसे ज्यादा अनुसंधान होते हैं।आजादी के बाद से लेकर अब तक कई लाख शोध प्रबंध हिन्दी में लिखे जा चुके हैं।सालाना 7 हजार से ज्यादा शोध प्रबंध हिन्दी में जमा होते हैं। लेकिन इनमें एक फीसद शोध प्रबंधों में भी सामयिक समाज की धड़कन सुनाई नहीं देगी। हमें विचार करना चाहिए कि रामविलास शर्मा, नगेन्द्र,नामवर सिंह,विद्यानिवास मिश्र, मैनेजर पांडेय,शिवकुमार मिश्र, कुंवरपाल सिंह , चन्द्रबलीसिंह ,परमानन्द श्रीवास्तव,नन्दकिशोर नवल आदि आलोचकों ने कितना वर्तमान पर लिखा और कितना अतीत पर लिखा है ? इसका यदि हिसाब फैलाया जाएगा तो अतीत का पलड़ा ही भारी नजर आएगा। ऐसे में हिन्दी के वर्तमान जगत की समस्याओं पर कौन गौर करेगा ? खासकर स्वातंत्र्योत्तर भारत की जटिलताओं का मूल्यांकन तो हमने कभी किया ही नहीं है।




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