सोमवार, 9 मई 2011

साहित्य का मायाजाल और यथार्थ


     साहित्य इन्द्रधनुषी मायाजाल है। इसमें फंसा व्यक्ति हमेशा ख्बाबों की दुनिया में रहता है। ख्बाबों में खोए रहना,इच्छित यथार्थ की कामना के लिए के लिए लिखना और फिर उसे ही सच मान लेना। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो लेखक में निजी और समाज ,अवधारणाओं और आंदोलनों के बारे में विभ्रम की सृष्टि करती है। जो लेखक इस तिलिस्म को जानते हैं वे विभ्रम में नहीं रहते। यही वजह है लेखक के जीवन में कष्ट होते हैं लेकिन रचना में सुख रहता है। पाठक को साहित्य सुख देता है लेकिन लेखक को दुख देता है। साहित्य सृजन से लेखक के लिए दुख और समाज के लिए सुख मिलता है। साहित्य के मायाजाल की धुरी है लेखक का विचारधारा और अवधारणाओं के सम्मोहन में बंधा रहना।  
साहित्य में जब भी किसी अवधारणा का प्रयोग आरंभ होता है तो एक अवधि के बाद वह रूढ़ि बन जाती है। लेखक इससे जल्द मुक्त नहीं हो पाता। सवाल यह है साहित्यकार नई अवधारणा को जल्द ही रूढ़ि क्यों बना देता है ? फिर उसके विभ्रम में लंबे समय तक क्यों फंसा रहता है ? असल में अवधारणा और यथार्थ की सटीक समझ के अभाव में वह अवधारणा के विभ्रम में फंसा रहता है। इसके कारण वह खास विषय,शैली,भाषा और साहित्यिक व्यवहार का प्रयोग करता है। साहित्यिक रूढ़ियां साहित्यिक एकता का निर्माण करती हैं। रूढ़ियां ,पर्शुएसन का काम करती हैं। इसलिए लेखक इनसे बंधा रहता है। ये औद्योगिक समाज को जोड़ने में सीमेंट का काम करती हैं। रूढ़ियों के प्रयोग में जोखिम नहीं होता। साहित्य और समाज दोनों खतरों से मुक्त रहते हैं। साहित्य जब रूढ़ियों का आदी हो जाता है तो शासकों की सेवा करने लगता है,चाहे उसकी अंतर्वस्तु कुछ भी हो।नई अवधारणाएं नई भौतिक परिस्थितियों के कारण जन्म लेती हैं। वे लेखक के दिमागी फितूर की देन नहीं होतीं। हिन्दी लेखक में नए को पाने की ललक है लेकिन पुराने को छोड़ने आदत नहीं है। इसके कारण हिन्दी में खारिज हो चुकी पुरानी रूढ़ियों, स्टीरियोटाइप, अवधारणाओं और मान्यताओं का अम्बार लगा है। बार-बार इसी पुराने ढ़ेर से साहित्य का उत्पादन और पुनरूत्पादन हो रहा है। इसके कारण बार बार लेखक अपनी पैकेजिंग बदल रहे हैं। अंतर्वस्तु और यथार्थ नहीं बदल रहे। वे परिवर्तित यथार्थ को पकड़ने और समझने का प्रयास नहीं करते। यही साहित्य का मायाजाल है। मायाजाल में फंसा लेखक छद्म में जीने लगता है। हिन्दी में बहुत लेखक हैं जो आए दिन साहित्य और जीवन में छद्म को जीते हैं और उसकी किसी न किसी रूप में हिमायत भी करते हैं। छद्म की हिमायत मूलतः पूंजीवाद की हिमायत है। जो वास्तव अर्थ में परिवर्तनकामी साहित्यकार-संस्कृतकर्मी हैं। वे जब तक छद्म के खिलाफ खड़े नहीं होते सचमुच में परिवर्तन नहीं कर सकते। किसी नेता,दल और विचारधारा की हिमायत में परिवर्तन का जयगान करना एक हद तक प्रचार में मदद करता है लेकिन ऐसी स्थिति का बहुत जल्दी अंत हो जाता है। जिस लेखक के पास सामाजिक परिवर्तन का विज़न है वह सच और छद्म दोनों के प्रति सचेत होता है। मसलन् यदि कोई लेखक क्रांति या बुर्जुआजी पर फिदा है । उसके दल और विचारधारा का प्रचारक है तो उसे इनके छद्म रूपों के प्रति भी सतर्क होना चाहिए। साहित्य के लिए सत्य के उदघाटन से ज्यादा महत्वपूर्ण छद्म का उदघाटन करना है। छद्म की आड़ में अनेक प्रतिगामी रूप और अंतर्वस्तु सक्रिय रहती हैं। इसी प्रसंग में बाबा नागार्जुन याद आ रहे हैं ,वे प्रगतिशील थे। सामाजिक परिवर्तन के हिमायती थे। क्रांति और कांतिकारी ताकतों के हिमायती थे,लेकिन क्रांति की आड़ में चल रहे छद्म के प्रति भी सचेत थे। उन्होंने लिखा-  "क्रान्ति तुम्हारी तुम्हें मुबारक /भ्रान्ति तुम्हारी तुम्हें मुबारक/कूट-कपट की भीतरघाती/शान्ति तुम्हें मुबारक/" बाबा ने कम्युनिस्टों में अंधभक्ति देखी तो लिखा- "तुम्हें चाहिए अंधअनुगमन/ तुम्हें चाहिए ठकुरसुहाती/अनुजों तक के स्वाभिमान से/अब तो तुमको हिचकी आती।" सत्तामद ने कम्युनिस्टों को मदमत्त राजनीतिज्ञों में तब्दील कर दिया था और एक बड़ा हिस्सा आए  दिन नेताओं के भाषणों और लेखों के उद्धरणों का गीता की तरह पाठ किया करता था। इस पर लिखा- "क्रांन्ति जवाबी तुम्हें मुबारक/अक्ल नवाबी तुम्हें मुबारक/मार्क्स और लेनिन-स्तालिन के/ताला-चाबी तुम्हें मुबारक ।"
    पश्चिम बंगाल में 1972-77 के बीच असामान्य हालात थे और उन समय के हालातों पर बाबा ने जो लिखा वो लोकतंत्र के छद्म आवरण को खोलने में हमारी मदद कर सकता है। उससे हम पश्चिम बंगाल में खासकर राजनीति में घुस आयी अपराधी संस्कृति के विभिन्न पहलुओं को आसानी से समझ सकते हैं। उस समय लोकतंत्र के क्षय पर बाबा ने एक शानदार बड़ी कविता लिखी थी,शीर्षक है- "देवी ,तुम तो काले धन की बैसाखी पर टिकी हुई हो।" यह कविता आज भी प्रासंगिक है। यह कविता लोकतंत्र पर मोहित लोगों में इंजेक्शन का काम करती है और बुर्जुआ लोकतंत्र की बजाय आलोचनात्मक लोकतंत्र की तलाश की ओर प्रेरित करती है। बुर्जुआ लोकतंत्र में नेताओं पर भ्रष्टाचार और काले धन के उपयोग के आए दिन आरोप लगते रहे हैं। साथ ही कालेधन की लोकतंत्र और नेताओं के व्यक्तित्व के निर्माण में जो भूमिका है उस ओर भी बाबा ने ध्यान खींचा है। बाबा ने देवि के रूपक के बहाने असल में बुर्जुआनेता के वर्गीय चरित्र को गहराई में जाकर उदघाटित किया है। बाबा नागार्जुन ने लिखा है-  "जन-मन भरम रहा है नकली/मत-पत्रों की मृग-माय़ा में/विचर रही तू महाकाल के/काले पंखों की छाया में/सौ कंसों की खीझ भरी है/इस सुरसा के दिल के अंदर/ कंधों पर बैठे हैं इस के/धन-पिशाच के मस्त-कलंदर/गोली-गोले,पुलिस -मिलिटरी/ इर्द-गिर्द हैं घेरे चलते/इसकी छलिया मुस्कानों पर/धन-कुबेर के दीपक जलते।" आम राजनीति में साधारण जनता की ज्वलंत समस्याओं की बजाय गैर जरूरी मसलों पर जमकर भाषण होते रहते हैं,इसी फिनोमिना को ध्यान में ऱखकर नागार्जुन ने लिखा- "मँहगाई का तुझे पता क्या ! जाने क्या तू पीर पराई !इर्द-गिर्द बस तीस-हजारी/ साहबान की मुस्की छाई !तुझ को बहुत-बहुत खलता है/'अपनी जनता ' का पिछड़ापन/ महामूल्य रेशम में लिपटी/यों ही करतीं जीवन-यापन/ठगों-उचक्कों की मलकाइन/प्रजातंत्र की ओ हत्यारी/अबके हमको पता चल गया/है तू किन वर्गों की प्यारी।" छद्म को लोकतंत्र का दादागुरू कहते हैं। इसका पूरे समाज पर गहरा असर है। साहित्य में वे लेखक या रचनाएं कालजयी हैं जो छद्म अवधारणा के विभ्रम को तोड़ती हैं।  हिन्दी में प्रगतिशील-जनवादी-समाजवादी-क्रांतिकारी-आधुनिकतावादी और उत्तर आधुनिकतावादी अंततः ढर्रे या रूढ़ि में बदल गए हैं। इनमें रूढ़िबद्धता से निकलने की छटपटाहट नहीं दिखती। यह सच है नई अवधारणा नए यथार्थ के साथ जन्म लेती है। नए विज़न को जन्म देती है। जड़ रूपों को तोड़ती है लेकिन इसके लिए लेखक में यथार्थ के परिवर्तित रूपों को सही परिप्रेक्ष्य और साहस के साथ देखने की दृष्टि होनी चाहिए। रघुवीर सहाय ने लिखा है- "कविता शब्द का निरा आडम्बर नहीं है। न वह वर्तमान की निरी व्याख्या है, न इतिहास का निरा पुनरावलोकन और न अतीत से भविष्य के निरे अंतरावलंबन का औचित्य। इन सबके समेत वह कुछ है तो साहस है जो हमारे जाने बिना दूसरे को मिलता है बशर्ते कि वह दूसरा हमारी कविता में हो।"हिन्दी में जिन लेखकों ने साहित्य को क्रांति के हवाले किया। राजनीतिक विषयों पर लिखा उसमें वास्तविकता से पलायन का भाव भी था। इसके प्रति आगाह करते हुए रघुवीर सहाय ने दो खतरों की ओर ध्यान खींचा है- "कवि कहीं क्रांति का पुजारी और मसीहा एक साथ बनकर दिखाने में अपने कर्त्तव्य से भागने का रास्ता न निकालने लगे,या कहीं आत्मदया के आत्मपीड़क भाव में लिप्त होकर लोगों से वैसी सहानुभूति न माँगने लगे जो न केवल लोगों की रागात्मक शक्ति का शोषण करेगी बल्कि उन्हें स्वयं अपनी वेदना पहचानने में भटकाएगी।जिस एक खतरे में ये दोनों हैं वह अहंवाद का ही खतरा है। अहंवाद को पहले के आलोचकों ने शायद पूरी तरह नहीं पहचाना था। जिस कवि को उन्होंने अपने बारे में कुछ भी ऐसा कहते पाया जो सतही तौर पर दूसरों के बारे में न हो ,उसे अहंवादी कहकर दुत्कार दिया। वास्तव में अहं खुलेआम जनसाधारण के बारे में लिखने का अहंकार करनेवाले कवियों में भी हो सकता है,यह आज ही प्रकट होकर दिख रहा है।जैसे राजनीति में वैसे ही कविता में भी जन के साथ कानूनी रिश्ते तो बने हुए हैं ,लेकिन एक इंसानी रिश्ता नहीं रह गया है। इससे कवि भी राजनीतिज्ञों की तरह आत्मरहित बनता जा रहा है।" 
    मासकल्चर और मासमीडिया के व्यापक प्रचार-प्रसार ने साहित्य से लेकर जीवन तक छद्म की सत्ता को विस्तार दिया है। उसे वैध बनाया है। इस पर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है '' आज हम बाजार की भीड़ और शोर-गुल में सम्‍मि‍लि‍त हो रहे हैं,नीचे उतर आए हैं,ओछे हो गए हैं। कलह से हमारा सन्‍तुलन जाता रहा है। पदवि‍यों-उपाधि‍यों को लेकर आपस में झगड़ा कर रहे हैं। बड़े-बड़े अक्षरों के और ऊंचे स्‍वर के विज्ञापनों से अपने को औरों से बड़ा घोषित करने में हमें संकोच नहीं होता। और मजे की बात तो यह है कि जो कुछ हम कर रहे हैं सब 'नकल' है। इसमें सत्‍य की मात्रा नहीं के बराबर है। इसमें शान्ति नहीं,संयम नहीं,गाम्‍भीर्य नहीं, शालीनता नहीं।''रवीन्‍द्रनाथ टैगोर ने सादगी और मानवता पर जोर दिया और ऊपरी आडम्‍बर की जबर्दस्‍त मुखालफत की थी। भद्रता को वे आंतरि‍क चीज मानते थे, भद्रता कोई बाजार में मि‍लने वाली वस्‍तु नहीं थी जि‍से जाकर खरीद लो और पहनकर भद्र बन जाओ।" टैगोर के शब्‍दों में  आज हमारी भद्रता सस्‍ते कपड़ों से अपमानि‍त होती है,घर में वि‍लायती ढंग की सजावट न हो तो उस पर आंच आती है बैंक में हमारे नाम पर जो अंक लि‍खे हैं वे कम हों, तो हमारी भद्रता कलंकि‍त होती है। हम यह भूल बैठे हैं कि‍ ऐसी प्रति‍ष्‍ठा को सि‍र पर ढोकर उसका आदर करना वास्‍तव में लज्‍जा का वि‍षय है। जि‍न बेकार की उत्‍तेजनाओं को हमने सुख मानकर चुना है उनसे हमारे समाज का अन्‍त:करण दासता के पाश में जकड़ा जा रहा है। टैगोर ने यह भी लिखा है मनुष्‍य मधुमक्‍खी की तरह नहीं है जो एक ही तरह का छत्‍ता बनाती है, न वह मकड़ी की तरह है जो एक ही 'पैटर्न' का जाल बुनती है।उसकी सबसे बड़ी शक्‍ति‍ है उसका अन्‍त:करण। मनुष्‍य का पूरा दायि‍त्‍व अन्‍त:करण के सामने है। अभ्‍यासपरता के सामने नहीं।  रवीन्द्रनाथ टैगोर का मानना है  मनुष्‍य की शक्‍ति‍ के दो पक्ष हैं : एक पक्ष का नाम है 'कर सकता है' और दूसरे पक्ष का नाम है 'करेगा'। पहला पक्ष उसके लि‍ए सहज है,लेकि‍न उसकी तपस्‍या दूसरे पक्ष की ओर है। धर्म मनुष्‍य के 'करेगा' पक्ष के सर्वोच्‍च शि‍खर पर खड़ा होकर उसके समस्‍त 'कर सकता है' को पुकारता है ; उसे वि‍श्राम नहीं करने देता ; उसे कि‍सी सामान्‍य लाभ से ही सन्‍तुष्‍ट नहीं होने देता। जहॉं मनुष्‍य का 'कर सकता है' इसी 'करेगा' के नि‍र्देशन में आगे बढ़ता जाता है वहीं मनुष्‍यता की वीरता है-वहीं उसका सत्‍य -रूप से आत्‍मलाभ है।''  धर्म और कलाओं के प्रति‍ हमें पुराने नुस्‍खे को अपनाना होगा,पुराना नुस्‍खा था '' अभी और'',हम जहां थे उससे आगे के बारे में सोचें। कला और धर्म जहां है उससे आगे के बारे में सोचें। इस प्रक्रि‍या को जि‍तनी दूर तक ले जा सकें,ले जाएं। इससे मानवीय चेतना के नए दि‍गंत खुलेंगे। रवीन्‍द्रनाथ टैगोर ने लि‍खा है '' धर्म मनुष्‍य की पूर्ण शक्‍ति‍ की अकुण्‍ठि‍त वाणी है। उसमें कोई द्वि‍धा नहीं है। वह मनुष्‍य को मूर्ख कहकर स्‍वीकार नहीं करता,और न दुर्बल कहकर अवज्ञा करता है। वह मनुष्‍य को पुकारकर कहता है- ' तुम अजेय हो,अभय हो,अमर हो।' धर्म की शक्‍ति‍ से ही मनुष्‍य असंभव लगने वाले कामों में जुट जाता है, और ऐसे स्‍तर पर पर पहुँच जाता है जि‍सकी वह स्‍वप्‍न में भी कल्‍पना नहीं कर सकता।




1 टिप्पणी:

  1. ""साहित्य के लिए सत्य के उदघाटन से ज्यादा महत्वपूर्ण छद्म का उदघाटन करना है"।
    यह भी तो प्रकारांतर से सत्य का उद्घाटन करना ही तो हुआ !

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