रविवार, 24 अप्रैल 2011

आकाशवाणी और संगीत की धरोहर -कुलदीप कुमार


                                       ( वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप कुमार)
 
हमारे संगीत के संरक्षण और संवर्धन में ऑल इंडिया रेडियो यानी आकाशवाणी की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है. यह दीगर बात है कि अब आकाशवाणी को अपनी इस ऐतिहासिक भूमिका का ज़्यादा अहसास नहीं रह गया है और संगीत, विशेषकर शास्त्रीय संगीत, के प्रति उसका रवैया उदासीनता का बनता जा रहा है. मुझे मालूम है कि आकाशवाणी और उसके अधिकारी संगीत के कार्यक्रमों का विवरण और आंकड़े देकर तत्काल इसका प्रतिवाद करेंगे, लेकिन जिसे भी आकाशवाणी के गौरवशाली इतिहास और संगीत के प्रचार-प्रसार और संरक्षण-संवर्धन में उसकी भूमिका की जानकारी है, वह इस आकलन से असहमत नहीं होगा.
 
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में घटी दो राजनीतिक घटनाओं ने उत्तर भारत के साहित्य और संगीत की दुनिया पर बहुत गहरा प्रभाव छोड़ा. 1856 में लखनऊ के नवाब वाजिदअली शाह की गद्दी छीनकर ईस्ट इंडिया कंपनी ने  उन्हें कोलकाता के पास मटियाबुर्ज़ में बसा दिया. अगले साल सिपाही विद्रोह हुआ जिसे अंग्रेजों ने ग़दर और कार्ल मार्क्स ने भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा. इसके परिणामस्वरूप मुग़ल राजवंश की प्रतीकात्मक सत्ता भी ख़त्म हो गयी और दिल्ली के अधिकाँश मूर्धन्य संगीतकार, जिनमें दिल्ली घराने के शीर्षस्थ गायक उस्ताद तानरस खां भी शामिल थे, रामपुर, हैदराबाद, मुंबई और ऐसी ही अनेक जगहों पर शरण लेने के लिए मजबूर हो गए. यह समय भारत में औद्योगिक एवं वाणिज्यिक पूंजी के विकास और मुंबई तथा कोलकाता के औद्योगिक महानगरों में बदलने की प्रक्रिया के शुरू होने का भी था. इसलिए संगीतकारों को शौक़ीन ज़मींदारों, नवाबों और महराजाओं के अलावा संगीतरसिक सेठों का प्रश्रय भी मिलने लगा. 
बीसवीं शताब्दी के आते-आते संगीत में दो विभूतियों ने क्रांतिकारी परिवर्तन का सूत्रपात किया. पंडित विष्णु नारायण भातखंडे ने देश भर में घूम-घूमकर उस्तादों से बंदिशें एकत्रित करने, विभिन्न रागों पर उनसे चर्चा करके उनके मानक रूप निर्धारित करने और संगीतशास्त्र के रहस्यों से पर्दा उठाते हुए अनेक विद्वत्तापूर्ण पुस्तकें लिखने का महत्कार्य किया. उधर पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर ने टिकट लगाकर संगीत के सार्वजनिक कार्यक्रम करने की परम्परा शुरू की और लाहौर में पहला संगीत विद्यालय खोला. इन दोनों क्रांतदर्शी संगीतज्ञों के प्रयासों के फलस्वरूप शास्त्रीय संगीत अभिजात वर्ग की महफ़िलों से बाहर निकलकर मध्यवर्ग तक पहुंचा. बीसवीं शताब्दी की आरंभिक वर्षों में ही ध्वनि-टंकण यानी रिकॉर्ड करने की टेक्नोलॉजी आ गयी और 1902 में उस ज़माने की सबसे मशहूर गायिका गौहर जान के रिकॉर्ड बाज़ार में आये. संक्षेप में कहें तो यह शास्त्रीय संगीत के लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत थी क्योंकि अब संगीत किसी के भी द्वारा कभी भी और कहीं भी सुना जा सकता था. वह सीधे लोगों के घरों के भीतर प्रवेश पा गया था. अब उसे सुनने के लिए किसी रईस के घर की महफ़िल में उपस्थित होना ज़रूरी नहीं रह गया था.
लेकिन टेक्नोलॉजी की सीमा यह थी कि ये रिकॉर्ड तीन से चार मिनट के ही हो सकते थे. रेडियो ने इस सीमा को तोड़ दिया. भारत में रेडियो का युग 1923 में शुरू हुआ और 1936 के आते-आते ऑल इंडिया रेडियो की स्थापना हो गयी. रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने एआईआर को आकाशवाणी की संज्ञा दी. आकाशवाणी ने पहली बार संगीतकारों को अखिल भारतीय मंच प्रदान किया. अब उनके कार्यक्रम देश के विभिन्न हिस्सों में बैठे श्रोता एक ही समय पर एक साथ सुन सकते थे.
आज़ादी आने के साथ ही संगीतकारों को मिलने वाला सामंती राज्याश्रय समाप्त हो गया. ऐसे में आकाशवाणी ने उन्हें संभाला और अपने यहाँ नौकरियाँ और काम देकर उनके भरण-पोषण का कुछ हद तक प्रबंध  किया. रेडियो संगीत सम्मेलन और राष्ट्रीय कार्यक्रम के द्वारा उसने शास्त्रीय संगीत के प्रचार-प्रसार और संगीतकारों को प्रोत्साहन देने का ऐतिहासिक कार्य किया. इसी क्रम में उसके पास मूर्धन्य संगीतकारों की प्रस्तुतियों का अनमोल खजाना जमा हो गया जो इस समय उसके संग्रहालय की शोभा बढ़ा रहा है. यूं यह कहना अधिक सही होगा कि वहां धूल खा रहा है. 
किसी को भी यह नहीं पता कि आकाशवाणी के संग्रहालय में किस-किसकी रिकॉर्डिंग है. पारदर्शिता के इस युग में भी, जब सभी सूचनाएं वेबसाइट पर डालने का चलन है, आकाशवाणी की वेबसाइट पर संग्रहालय के बारे में कोई भी सूचना नहीं है. इस वेबसाइट का हाल यह है कि इस पर यदि आप आकाशवाणी के विभिन्न चैनलों पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों की जानकारी लेना चाहें, तो वह भी उपलब्ध नहीं है. पहले आकाशवाणी हीनी और अंग्रेजी में एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन किया करती थी जिसमें अगले एक माह के कार्यक्रमों की पूरी जानकारी दी जाती थी. लेकिन इनका प्रकाशन बंद कर दिया गया है. इन पत्रिकाओं को बंद हुए कम से कम एक दशक तो हो ही गया होगा. हमारे अखबार केवल टीवी चैनलों पर प्रसारित होने कार्यक्रमों की जानकारी देने में रूचि रखते हैं. रेडियो को उन्होंने भी भुला दिया है. नतीजतन आज किसी भी संगीतप्रेमी के लिए यह संभव नहीं कि वह यह जान सके कि अगले दिन सुबह आठ बजे के समाचार बुलेटिन के बाद किस संगीतकार का गायन या वादन प्रसारित होने वाला है या आज रात को वह किस संगीतकार को सुन सकता है. चूंकि आकाशवाणी संग्रहालय में क्या-कुछ जमा है, इसके बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं है, इसलिए किसी श्रोता के लिए यह भी संभव नहीं कि वह अपनी फरमाइश आकाशवाणी के पास भेज सके. 
कुछ समय पहले आकाशवाणी के एक उच्चाधिकारी ने मेरे साथ बातचीत के दौरान बेबाकी के साथ कहा कि उनके संगठन की नीति अपनी संगीत सम्पदा या उसके बारे में जानकारी को जनता के साथ बांटने की नहीं है. आकाशवाणी एक जन प्रसारण संस्था है और उसका काम संगीत का प्रसारण करना है, जो वह बखूबी कर रही है.
तकनीकी नज़रिए से देखें तो उनकी बात ठीक है. आकाशवाणी से रोज़ ही संगीत का प्रसारण होता है. लेकिन यह प्रसारण कैसा है, इसे आकाशवाणी के कार्यक्रमों को सुनने वाले बदकिस्मत श्रोता ही जानते हैं. आप चौंकिए मत यदि धमार की जगह आपको  'धामड़' सुनने को मिले और राग पूरिया राग प्रिया बन जाए. कभी-कभी आप केदार में राग ख़याल भी सुन सकते हैं.
आकाशवाणी को अपने संग्रहालय के बांरे में जानकारी जनता के साथ बांटने में तो गुरेज़ है ही, वह अपने स्टाफ के साथ भी शायद इसे नहीं बांटना चाहती. इसीलिए इन्द्रप्रस्थ चैनल पर, जिसे पहले हम दिल्ली ए के नाम से जानते थे, हर मंगलवार रात दस बजे प्रसारित होने वाले कार्यक्रम 'चयन' की यह दुर्गति न होती. इस कार्यक्रम में आकाशवाणी के संग्रहालय से चुनकर रिकॉर्डिंग प्रसारित की जाती हैं. लेकिन अब हाल यह है कि इसमें कुछ गिने-चुने कलाकारों की कुछ गिनी-चुनी रिकॉर्डिंग ही पूरे साल हर दो-तीन माह के अंतराल पर दुहराई जाती हैं, मानों संग्रहालय में इनके अलावा और कुछ हो ही नहीं. 
किसी समय आकाशवाणी ने एचएमवी के साथ मिलकर पुराने दिग्गज संगीतकारों के एलपी रिकॉर्ड और कैसेट निकाले थे. बाद में टी-सिरीज़ के साथ मिलकर उस्ताद अलाउद्दीन खां, उस्ताद बिस्मिल्लाह खां और उस्ताद अली अकबर खां जैसे कई महान कलाकारों के सीडी सेट जारी किये गए. लेकिन अब ये सभी अप्राप्य हैं. इन्हें संगीतप्रेमियों को फिर से सुलभ कराने की ओर आकाशवाणी का बिलकुल ध्यान नहीं है. उसने स्वयं पिछले कुछ वर्षों के दौरान उस्ताद अमीर खां, बेगम अख्तर, पंडित डी वी पलुस्कर और पंडित कृष्णराव शंकर पंडित जैसे मूर्धन्य संगीतकारों के सीडी जारी किये हैं, लेकिन इनकी मार्केटिंग की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया है. यदि कोई संगीतप्रेमी इन्हें खरीदना चाहे, तो उसे संसद मार्ग स्थित आकाशवाणी भवन जाकर वहां बने काउंटर से ही उन्हें लेना होगा. यानी दिल्ली जैसी जगह में उसे एक दिन सिर्फ इस काम के लिए समर्पित करना होगा. कितने लोग ऐसा कर सकते हैं? और फिर, इस बात की क्या गारंटी कि जाने पर कांउटर खुला ही मिलेगा? उसे संभालने वाला छुट्टी पर नहीं होगा या फिर लंच के लिए नहीं गया हुआ होगा? भारत के सरकारी दफ्तरों के लंच और उनकी लगातार लंबी होती जाती अवधि तो अब विश्व भर में प्रसिद्द हो चुकी है.
आकाशवाणी ने अधिकांशतः उन्हीं संगीतकारों के सीडी जारी किये हैं जिनके एलपी, कैसेट या सीडी पहले से ही बाज़ार में उपलब्ध हैं. बेहतर हो यदि वह अपने संग्रहालय से ऐसे लोगों की रिकॉर्डिंग चुने जिनका संगीत अब श्रोताओं को उपलब्ध नहीं है, या यदि है भी तो बेहद कम.
यह तभी हो सकता है जब सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय किसी ऐसे व्यक्ति के हाथ में हो जिसे स्वयं संगीत में दिलचस्पी हो. अभी तक इस मंत्रालय को केवल दो ही ऐसे मंत्री नसीब हुए हैं--बी वी केसकर और वसंत साठे. या फिर आकाशवाणी को कोई ऐसा महानिदेशक मिले जो संगीत और उसकी गौरवशाली महिमामयी परम्परा के संरक्षण और संवर्धन में गहरी रूचि रखता हो. वर्ना इस अनमोल खजाने का भी वही हश्र होगा जो ज़मीन में गड़े खजानों का होता है. वे किसी के भी काम नहीं आते.   

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