सोमवार, 4 अप्रैल 2011

यादों के आइने में भगतसिंह और उनके साथी -6-यशपाल


लाहौर से फरार हो जाने पर भगतसिंह ने दिल्ली, आगरा, कानपुर, पटना और कलकत्ते तक बार-बार चक्कर लगाकर भिन्न-भिन्न प्रांतों के क्रांतिकारियों को एक सूत्र में बांधने की चेष्टा की। स्थिति सभी प्रांतों में खराब ही थी। स्थिति खराब होने का मुख्य कारण था, साधनों और संगठन की कमी। गुप्त क्रांतिकारी आंदोलन की सब से बड़ी कठिनाई यह थी कि उसका उद्देश्य तो सार्वजनिक था परंतु उसे जनता से दूर रह कर जनता की सहायता के बिना चलना पड़ रहा था। अपने दल के लोगों अथवा सहानुभूति रखने वाले उंगलियों पर गिने जा सकने योग्य व्यक्तियों को छोड़ कर क्रांतिकारी अपनी आवश्यकता और स्थिति का भेद किसी को नहीं दे सकते थे। काकोरी की डकैती असफल हो जानेऔर इस मामले में बहुत से लोगों के मुखबिर भी हो जाने के कारण इस समय क्रांतिकारी सर्वसाधारण लोगों से सहानुभूति की आशा कम ही रख सकते थे।
      युक्त प्रांत में उन दिनों बहतु निरुत्साह था। सशस्त्र क्रांति के बढ़ने की कोई आशा थी तो केवल काकोरी के बंदियों को छुड़ा सकने से। इसके लिए अनेक योजनाएं बार-बार बनतीं और प्रयोग में आए बिना ही रह जातीं। इस अवस्था से ऊबकर काकोरी दल के नेता शहीद रामप्रसाद बिस्मिल ने जेल से संदेश भेजा था।बिस्मिल की बड़ी इच्छा थी कि एक बार किसी तरह जेल से निकल कर विदेशी सरकार से दो-दो हाथ कर पाते परंतु दल में इतनी शक्ति नहीं थीं; ये योजनाएं कपोल कल्पनाएं ही रह गई।भगत सिंह, सुखदेव, विजय और शिव वर्मा के प्रयत्नों से उत्तर भारत के प्रांतों के क्रांतिकारी प्रतिनिधियों की एक बैठक की योजना दिल्ली में की गई थी। यह बैठक 9-10 सिंतबर, 1928 को फीरोजशाह कोटला के खंडहरों में हुई थी। इस बैठक में पंजाब से  सुखदेव और भगत सिंह, राजपूताना से कुंदनलाल, युक्तप्रांत से शिव वर्मा, ब्रह्मदत्ता मिश्र, जयदेव, विजय कुमार सिन्हा, सुरेंद्रनाथ पांडे और बिहार से फणींद्रनाथ घोष और मनमोहन बनर्जी आए थे। आजाद इस बैठक में नहीं आ पाए थे। भगत सिंह और शिव वर्मा उनसे मिल चुके थे। आजाद ने आश्वासन दे दिया था कि बहुमत से जो कुछ निश्चय होगा, उसे वे स्वीकार कर लेंगे।
      अब तक भिन्न-भिन्न प्रांतों में क्रांतिकारी दलों के अपने-अपने पृथक नाम थे। बंगाल-बिहार के 'अनुशीलन' और 'युगांतर' समितियां, युक्त प्रांत में 'हिंदुस्तान प्रजातंत्र सेना' और 'बनारस रिवोल्यूशनरी पार्टी'। दिल्ली की बैठक में भगत सिंह और सुखदेव ने सभी प्रांतों से प्रतिनिधि लेकर एक केंद्रीय-समिति बनाई जाने और पूरे संगठन का नाम 'हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (हिंदुस्तानी समाजवादी प्रजातंत्रा सेना) रखे जाने का प्रस्ताव रखा।
      सोशलिस्ट शब्द जोड़े जाने का सुझाव भगत सिंह और सुखदेव ने ही दिया था परंतु युक्तप्रांत के शिव वर्मा और विजयकुमार सिन्हा का भी सबल अनुमोदन इनके साथ था। यह लोग कानपुर के संगठित मजदूर आंदोलन द्वारा प्रभावित हो चुके थे और कानपुर की मजदूर सभा से भी अपना संपर्क बना चुके थे। उन लोगों पर सन् 1925 के 'कानपुर बोल्शेविक षडयंत्र' का भी प्रभाव जरूर पड़ा होगा। सबसे बड़ी बात तो थी सन् 1928 में जगह-जगह हड़तालों द्वारा मजदूरों की चेतना और शक्ति का प्रदर्शन। एच.एस.आर.ए. के साथी मजदूर श्रेणी की क्रांतिकारी शक्ति से परिचित होने लगे थे।
      क्रांतिकारियों की बहुत सी शक्ति मुकद्दमों में बन गए मुखबिरों और पुलिस केथे। काकोरी की डकैती असफल हो जाने मामूली अफसरों के वध में ही नष्ट होती रही थी। दिल्ली में निश्चय किया गया कि अब केवल ऐसे ही मामलों को हाथ में लिया जायेगा जिनका सार्वजनिक राजनैतिक महत्व हो सके। इस उद्देश्य से सब से पहले चुना गया साइमन कमीशन को। इस कमीशन के आने पर बम्बई में मजदूरों की जो व्यापक हड़ताल हुई थी, उससे अपना सहयोग प्रकट करना दल आवश्यक समझता था।
      दिल्ली की बैठक में यह भी स्पष्ट रूप से निश्चिय कर लिया गया कि भविष्य में हमारा कार्यक्रम किसी एक व्यक्तिगत नेतृत्व में नहीं चलेगा। दल के सब हथियार और प्राप्त होने वाला धन केंद्रीय समिति के हाथ में रहेंगे। कोई भी कार्य करने से पहले सात आदमियों की केंद्रीय समिति में उस पर विचार किया जायेगा।
      इस बैठक में विजय कुमार सिन्हा और भगत सिंह पर अंतरप्रांतीय संबंध बनाए रखने का उत्तारदायित्व दिया गया। सुखदेव को पंजाब, शिव वर्मा को युक्तप्रांत, कुंदनलाल को राजपूताना, फणींद्रनाथ को बिहार का प्रतिनिधि संगठनकर्त्ता स्वीकार किया गया। हथियारों और कोष की कमी के कारण यह निश्चय किया गया कि हथियार और कोष पूर्णत: केंद्रीय-समिति के हाथ में रहें। कोष वास्तव में कुछ था ही नहीं। हथियार भी कम ही थे, इसलिए यह तय पाया कि जिस प्रांत में जब आवश्यकता हो हथियार भेज दिए जायें और फिर लौटा कर केंद्रीय समिति में दे दिए जाएं।
      इससे पूर्व के दल में से चंद्रशेखर आजाद ही ऐसे व्यक्ति थे जो ज्येष्ठ होने का दंभ छोड़ कर नए लोगों के साथ नये ढंग से काम करने के लिए तैयार थे। आजाद के अतिरिक्त उस समय नये लोगों में से शस्त्राों का उपयोग भी कोई दूसरा व्यक्ति ठीक से नहीं जानता था; इसलिए सशस्त्रा या सैनिक कार्य का नेता उन्हीं को बनाकर एच.एस.आर.ए. का 'कमांडर-इन-चीफ' निश्चिय किया गया था।
      लाहौर में नौजवान भारत सभा को यह निर्देश दिया गया था कि नगर में साइमन कमीशन के आने पर जहां तक हो सके सभी राजनैतिक दलों को मिलाकर विकट से विकट प्रदर्शन किया जाये। नौजवान भारत सभा की पुकार थी कि-''अंग्रेज सरकार को हमारे भाग्य निर्णय का अधिकार नहीं है। वे कमीशन भेजने वाले कौन होते हैं?'' लाहौर में साइमन कमीशन के बहिष्कार के प्रदर्शन का नेतृत्व सभा ही कर रही थी। सब ओर मुकम्मिल हड़ताल, काले झंडे और नंगे सिरों की बाढ़-सी नजर आती थी। इतने बड़े प्रदर्शन से प्रभावित हो कर कांग्रेस के नेताओं को प्रदर्शन में आगे चलना ही पड़ा।
   वृध्द पंजाब केसरी लाला लाजपत राय को भीड़ के धक्कों से बचाये और धूप में उनके सिर पर छतरी संभाले नौजवान उन्हें स्टेशन तक ले गए। भीड़ के आगे नौजवानभारत सभा के लोग थे। उन्होंने पुलिस की धमकियों के बावजूद कमीशन के लिए रास्ता देने से इनकार कर दिया। वे कमीशन को काले झंडे दिखा देने और 'साइमन गो बैक' की पुकार उनके कानों तक पहुंचा देने पर तुले हुए थे। पुलिस ने लाठी चार्ज किया। सभा के लोगों से जहां तक बन पड़ा जनता को पीछे हटने से रोके रहे। जनता के हृदय में अंग्रेजी सरकार के प्रति प्रबल घृणा उत्पन्न कर सकने का यह अच्छा अवसर था।
   लालाजी को घेरे इस मोर्चें को टूटते न देखकर समीप खड़े पुलिस सुपरिटेंडेंट स्काट ने इस टोली पर हमला करने की आज्ञा दी। डी.एस.पी. सांडर्स स्वयं छोटी लाठी हाथ में लेकर सिपाहियों के साथ इस टोली पर टूट पडा। उसकी एक लाठी से लालाजी के सिर पर तनी हुई छतरी टूट कर उनके कंधे पर भी चोट आ गयी।
   'मोरी दरवाजे' की विराट सार्वजनिक सभा में सुखदेव और मैं भीड़ के पीछे खड़े थे। हम लोगों से कुछ ही कदम दूर डिप्टी पुलिस सुपरिटेंडेंट नील खड़ा था। लालाजी ने अपनी ओजपूर्ण वक्तृता में सुबह की घटना की निंदा करते हुए कहा-''जो सरकार निहत्थी प्रजा पर इस तरह के जालिमाना हमले करती है, उसे तहजीबयाफ्ता (सभ्य) सरकार नहीं कहा जा सकता और ऐसी सरकार कायम नहीं रह सकती। मैं आज चैलेंज देता हूं कि इस सरकार की पुलिस ने मुझ पर जो बार किया है। वह एक दिन इस सरकार को ले डूबेगा।'' अंग्रेज अफसरों को लक्ष्य कर लालाजी ने अपनी बात अंग्रेजी में दोहराई-'' प् कमबसंतम जींज जीम इसवूे ेजतनबा ंज उम ूपसस इम जीम सेंज दंपसे पद जीम बविपिद व िजीम ठतपजपेी तनसम पद प्दकपंण्'' 
    17 नवंबर, 1928 को लालाजी का देहांत हो गया। जनता में विदेशी शासन विरोधी भावना और लालाजी के लिए आदर का प्रवाह उमड़ रहा था। लालाजी की अर्थी के जुलूस में लाख-डेढ़ लाख आदमी रहे होंगे। डॉक्टर गोपीचंदजी भार्गव तो विलख-विलख कर रोये। लाहौर में ऐसा कोई भी हिंदू-मुसलमान न होगा जिसने मातम न मनाया हो। लाहौर के सभी स्वयं-सेवक दलों ने शव-यात्राा के प्रबंध में साथ दिया था परंतु हम लोगों की सेवा समिति पर बोझ अधिक था। प्राय: दस बजे सुबह अर्थी की यात्राा लालाजी के बंगले से आरंभ हुई और चार मील दूर रावी नदी के तट पर पहुंचते-पहुंचते संध्या के पांच बज गए। अर्थी पर फूलों का बोंझ इतना था कि बीसियों आदमी उसे उठा कर चल रहे थे और दस-पांच कदम पर आदमी बदलते जाते थे।
      संध्या का अंधेरा हो गया था परंतु विराट चिता के समाप्त होने में अभी घंटों की देर थी। भीड़ प्राय: छंट चुकी थी। डाक्टर भार्गव आंसू बहाते हुए बोले कि वे चिता कोअकेला नहीं छोड़ना चाहते। उन्हें आशंका थी कि कोई चिता का अपमान न कर जाय। मैंने उन्हें सांत्वना दी कि मैं रात यहीं रह जाऊंगा।
      भगवती भाई ने मुझ से पूछा, यहां सख्त सर्दी में गीली रेत पर कैसे रह जाओगे? वे यह भी देख रहे थे कि मैं कितना थका हुआ था।
      ''अब तो कह चुका हूं।'' लाचारी दिखाई।  
      ''अच्छा।'' कहकर वे चले गए। मैं अकेला ही चिता से कुछ दूर बैठा रहा। हल्की-हल्की चांदनी फैल रही थी। रावी की तीखी ठंडी हवा चलने लगी थी। चिता से हल्का सेंक भी आ रहा था। आंखों में नींद भर रही थी।
      प्राय: एक घंटे के बाद अचानक अपने नाम की पुकार सुनी। आवाज पहिचानी, भगवती भाई थे। वे दूर रेती के पार खड़े पुकार रहे थे। पास जाकर देखा कि वे टांगे पर एक खाट और बिस्तर ले आए हैं और एक कटोरदान में कुछ खाने के लिए भी।
      हम लोगों ने चिता से कुछ दूर खाट पर बिस्तरा लगाया और दोनों एक साथ सो गए। सुबह सूर्य की किरणों से नींद खुली। नींद ऐसी आई थी कि करवट भी नहीं बदली। भगवती भाई के साथ खाट पर सोने से करवट लेने की गुंजाइश भी नहीं थी। फारारी के दिनों में हम लोगों को हफ्तों जाड़ों में एक कम्बल लेकर इसी प्रकार सोना पड़ा परंतु तब खाट भी नहीं थी।

17 दिसम्बर, 1928 को अपराहन में राजगुरु और भगत सिंह ने गोलियां मारकर सांडर्स को नरक रवाना कर दिया। साथ ही एच.एस.आर.ए. ने हत्या की जिम्मेदारी स्वीकार की और दीवारों पर इस्तहार लगाकर कहा गया 'नौकरशाही सावधान! सांडर्स की मृत्यु से लाला लाजपत राय की हत्या का बदला ले लिया गया।
      सबसे कठिन समस्या थी भगत सिंह को लाहौर से बार निकालने की। यह कल्पना कर लेना कठिन नहीं था कि जिस भगत सिंह के विषय में पुलिस को याें ही सदा संदेह बना रहता था, उसकी लम्बी फरारी और सांडर्स-वध की घटना के बाद पुलिस उसकी खोज में कितनी परेशान होगी। भगत सिंह केश कटा कर वेश तो बदल चुका था लेकिन इससे चेहरे में कितना परिवर्तन आ सकता था? फर्न पर गोली चलाते समय उसे तीन-चार सिपाहियों ने अच्छी तरह देखा भी था। भगत सिंह के पुराने रूप से लाहौर की खुफिया पुलिस खूब परिचित थी ही। दाढ़ी उसने साफ करा दी थी जरूर परंतु उसकी दाढ़ी बहुत घनी तो कभी थी भी नहीं।
      सुखदेव लगभग रात के आठ बजे आया। उन दिनों भाभी संस्कृत पढ़ा करती थीं। पड़ोस की एक और महिला के साथ मिल कर उन्होंने एक अध्यापक नियुक्त कर लिया था। भाभी को एक ओर बुला कर सुखदेव ने प्रश्न किया- ''कहीं बाहर जा सकती हो?''
      ''कहां?...क्या काम है? ''
      ''इस घटना के एक आदमी को बचा कर लाहौर से निकालना है। उसकी मेम साहब बन कर साथ जाना होगा,... खतरा है। सोच लो, गोली चल सकती है।'' सुखदेव भाभी की ओर घूरता रहा।
      ''कौन आदमी है?'' भाभी ने जानना चाहा।
      ''कोई भी हो।'' जैसी की सुखदेव की आदत थी।
      ''चली जाऊंगी।''
      ''वह रात में यहां ही रहेगा।...इस पढ़ाई को समाप्त कर दो।''
      ''अच्छा।''
      कुछ देर बाद सुखदेव के साथ एक लंबा सा जवान ओवरकोट, हैट पहने एक नौकर के साथ आ गया। भाभी ने उन्हें कमरे में बैठा दिया, स्वयं भी बैठी और सुखदेव की ओर देखती रहीं। अपरिचित आदमी की ओर क्या देखतीं?
      सुखदेव ने उस आदमी की ओर संकेत कर भाभी से पूछा-''इसे पहचानती हो!''
      भाभी ने देखा; जरा ध्यान से देखा-''भगत?''
      भगत सिंह और सुखदेव हंस पड़े।
      सुबह तड़के पांच-छह बजे कलकत्ता मेल से चलने की बात थी। भगत सिंह ओवरकोट का कालर उठाये, हैट माथे पर खींचे और अपना चेहरा गोद में लिए 'शची' के सिर की आड़ में किये रेलवे प्लेटफार्म पर पहुंचा। भगवती भाई का लड़का शचींद्र कुमार वोहरा, जो अब इंजीनियर है उस समय तीन बरस का था। भाभी भी यथाशक्ति चेहरे पर पाउडर मले और अपने सब से ऊंची एड़ी के जूते से खट-खट करती साथ थीं। भगत सिंह की जेब में भरा हुआ पिस्तौल था। राजगुरु नौकर के वेश में साथ था। उस की कमर पर भी भरा हुआ पिस्तौल बंधा था। पुलिस को संदेह हो जाता तो गोली जरूर चलती... शची और भाभी दोनों का क्या होता?(क्रमशः)




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