रविवार, 20 मार्च 2011

ख़ून की होली जो खेली- निराला

युवकजनों की है जान ;
    खू़न की होली जो खेली।
पाया है लोगों में मान,
   ख़ून की होली जो खेली।
रँग गये जैसे पलाश;
   कुसुम किंशुक के,सुहाये,
कोकनद के पाये प्राण,
    ख़ून की होली जो खेली।
निकले क्या कोंपल लाल,
     फाग की आग लगी है,
फागुन की टेढ़ी तान,
     ख़ून की होली जो खेली।
खुल गयी गीतों की रात,
      किरन उतरी है प्रात की ;-
हाथ कुसुम-वरदान,
   ख़ून की होली जो खेली।
आयी सुवेश बहार,
   आम-लीची की मंजरी;
कटहल की अरघान,
    ख़ून की होली जो खेली।
विकच हुए कचनार,
    हार पड़े अमलतास के ;
पाटल-होठों मुसकान,
    ख़ून की होली जो खेली।
( यह कविता ने निराला ने 1946 के स्वाधीनता संग्राम में विद्यार्थियों के देशप्रेम पर लिखी थी और यह गया से प्रकाशित साप्ताहिक 'उषा ' के होलिकांक में मार्च 1946 में प्रकाशित हुई)





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