शुक्रवार, 18 मार्च 2011

नागार्जुन की जन्मशती पर विशेष- कविता के नए लोकतंत्र की तलाश में


    हिन्दी में बाबा नागार्जुन को पूज्यनीय बनाने और शब्दों की जुगाली करके ठिकाने लगाने की मित्र क्रियाएं आरंभ हो गयी हैं। बाबा पर इन दिनों जितनी चर्चाएं हो रही हैं उनमें बुर्जुआ लोकतंत्र और प्रतिवादी लोकतंत्र के बीच के अंतर पर बातें कम हो रही हैं। बाबा की कविता में बुर्जुआ लोकतंत्र की गंभीर आलोचना व्यक्त हुई है। बाबा पर बातें करते समय आमतौर पर अवधारणाओं को अमूर्त्त बनाकर देखने और चित्रित करने का रिवाज रहा है।
   मसलन नागार्जुन की कविता की रोशनी में हिन्दी समीक्षक उन्हें लोकतंत्र विरोधी के रूप में चित्रित करते रहे हैं और समाजवादी बना रहे हैं। उनकी कविता की खूबी है कि वह राजनीतिक और लोकतांत्रिक है। यह बुर्जुआ लोकतंत्र के समीक्षा की कविता है। यह ऐसी कविता है जो बुर्जुआ लोकतंत्र के दमनात्मक रूप का उदघाटन करती है। उसके रेशनल को ध्वस्त करती है।  इस कविता ने परंपरागत कविता के फॉर्म को तोड़ा है। उसकी जगह कविता के लोकतांत्रिक ढ़ांचे को बनाया है।अभी हम जिस लोकतंत्र में रह रहे हैं उसमें हेज़ेमनी है और व्यक्ति के द्वारा व्यक्ति का शोषण चरम पर है। इस वातावरण में रूपकथाओं,रूपकों,मिथकों और राजनीतिक मुहावरों में सोचने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है। जीवन की कठोर वास्तविकताओं की बजाय सॉफ्ट यथार्थ और निर्मित यथार्थ केन्द्र में आ गया है। हिन्दी में इन दोनों इस तरह के यथार्थ पर खूब लिखा जा रहा है। इसका महिमामंडन भी हो रहा है। इस क्रम में ठोस यथार्थ क्या होता है और उसके प्रमुख सवाल क्या हैं , उन पर बातें बंद हैं। बाबा के बहाने हम सोचें कि कविता के सामने आज क्या संकट है या चुनौतियां हैं।
    कविता के सामने सबसे बड़ी चुनौती है सामयिक यथार्थ के मर्म को पकड़ने की। पहले एक नयी स्थिति पर ध्यान दें। एक जमाना था साहित्य में दुनिया के सवाल उठाए जाते थे,लेकिन नए दौर में साहित्य के बारे में ही ,कविता के बारे में सवाल खड़े किए जा रहे हैं। साहित्य और कविता की प्रासंगिकता पर ही सवाल खड़े किए जा रहे हैं।
    एक जमाना था कविता में कल्पना का बोलवाला था। लेकिन बाबा ने कल्पना को गौण और सच को प्रधान बनाया और यह काम बड़े ही कौशल के साथ किया है। वे कविता की अधिरचना को सतही यथार्थ के जरिए आरंभ करते हैं और फिर उसके वास्तव मर्म के अंदर चले जाते हैं। यहां उनका यथार्थ के प्रति आग्रह प्रबल हो उठता है। इस प्रसंग में उनकी कविता ‘कौन हाँफ रहा है’ (1990) को देख सकते हैं। यह समाजवाद के पतन पर लिखी शानदार कविता है। लिखा है- ‘‘कौन हाँफ रहा है ? / किसका दम घुट रहा है ? / अरे ,अरे, मैं पहचानता हूँ/दूर से ही सही/मैंने बार-बार/उसके पैंरों की आहट सुनी है/जी,मैं पहचानता हूँ/ वो सोशलिज्म है/ वो कम्युनिज्म की तरफ /तेजी से बढ़ा जा रहा था/ हाय,बीच रास्ते में ही/ इसका दम क्यों फूलने लगा ?/ क्या वे कोलखोज यक्-ब-यक् / ऊसर हो गए ? / सामूहिक कृषि-फार्म के / गेंहूँ तो हम तक भी पहुँचे थे/ दूर ग्रामांचल में,‘तरौनी’गांव तक / सोव्रवोज वाली सुनहली फसलों की खुशबू/मेरे ग्रामांचल की आबोहवा में भी /जाने कितनी बार फैली है.../ यह सब कुछ तुम्हें बतलाएँगे /कामरेड चतुरानन -झा!! / साथी श्यामलकिशोर / आप बतलाओ/वे कोलखोज क्या अब /बालू ही बालू रह गए/ क्या सचमुच रूस के लोग भूखे-प्यासे/ दिन पर दिन गुजारते हैं अब ? / ‘पेरेस्त्रोइका’ क्या हुआ ! / ‘ग्लासनोस्त’शंख-नाद का क्या हुआ !/ कामरेड गोर्बाचोब सच-सच बतलाओ- / सोवियत -भूमि में इन दिनों/ क्या कुछ कर रहे हैं लोग ?’’  
     इस कविता में फिक्शन और गैर फिक्शन दोनों घुले मिले हैं। कल्पना और सच दोनों घुलमिल गए हैं। विचारधारा और कविता दोनों घुल मिल गए हैं। यह कविता एक तरह से गैर-काल्पनिक फॉर्म है। यह कविता नहीं है बल्कि एक तरह का लेखन है। पत्रकारिता है। कविता को लेखन में तब्दील करने की कोशिश है।
     बाबा की कविता में एक और प्रयास नजर आता है वह है राजनीतिक कविता की साख बनाने का। वे हिन्दी में कलावादियों के द्वारा बनाए अराजनीतिक कविता के वातावरण को तोड़ते हैं। राजनीतिक कविता की साख बनाते हैं। निश्चित रूप से इसमें प्रगतिशील काव्यधारा की भी बड़ी भूमिका रही है लेकिन बाबा की अन्यतम भूमिका रही है। राजनीतिक कविता में सामाजिक सच्चाई को प्रभावी ढ़ंग से व्यक्त किया जा सकता है, इस बात की स्वीकृति बाबा ने ही करायी है। वैविध्यपूर्ण राजनीतिक कविता लिखकर कविता को जहां विचारधारा के दायरे के परे ले गए वहीं दूसरी ओर लोकतंत्र के भी परे ले गए। राजनीतिक कविता को साहित्यिक स्वीकृति दिलाकर बाबा ने शीतयुद्ध का जबाव दिया है। वे किसी भी तरह शीतयुद्ध के इस या उस खेमे के साथ बंधते नहीं हैं। वे जिस समय राजनीतिक कविता की साख बना रहे थे उसी समय हिन्दी की भी साख बना रहे थे। हिन्दी भाषा को प्रतिवाद की भाषा बना रहे थे। वे कविता में नए-नए राजनीतिक विमर्शों को रच रहे थे। कविता में विमर्श के वे सबसे बड़े कवि हैं। जो लोग इन दिनों साहित्य में विमर्श को देखकर नाक-भौं सिकोड़ते हैं उनके लिए बाबा सटीक जबाव हैं। वे कविता में विमर्श के कवि हैं। जिस तरह शमशेर कवियों के कवि हैं। बाबा विमर्शों के कवि हैं। जो लोग यह कहते हैं विमर्श की संस्कृति उत्तर आधुनिक संस्कृति है,आयातित संस्कृति है,परायी संस्कृति हैं उनको बाबा की कविता को देखना चाहिए। वे बड़े पैमाने पर विमर्शों को कविता में ले आते हैं।
   बाबा हिन्दी में पैराडाइम शिफ्ट के कवि हैं। पैराडाइम शिफ्ट का कवि वह होता है जो अपनी कविता के जरिए अन्य संस्कृति की ओर ले जाए। बाबा ने अपनी राजनीतिक कविताओं ,खासकर हिन्दी,बांग्ला और मैथिली कविताओं के माध्यम से यह संभावनाएं पैदा की हैं।  उनकी कविता एक ही साथ कई संस्कृतियों में विचरण करती है। वे कविता को खासकर प्रगतिशील कविता को एक नए पैराडाइम में लेजाते हैं। वे उन चंद कवियों में हैं जो हिन्दी कविता को दैनन्दिन राजनीति के करीब ले जाते हैं। दैनन्दिन राजनीति के पास कविता के जाने का असर यह हुआ है कि कालांतर में हिन्दी कवियों ने दैनन्दिन जीवन पर केन्द्रित होकर कविताएं लिखीं। दैनन्दिन जीवन कविता के केन्द्र में आया। दैनन्दिन राजनीतिक कविताएं सामयिक आंदोलनों के प्रत्युत्तर और जरूरतों के लिहाज से लिखी गयी थीं,इन कवियाओं को बाद में साहित्य की राजनीतिक प्रतिक्रिया भी मान लिया गया।
      प्रगतिशील कविता का साम्यवादी आंदोलन के बाहर भी भविष्य है इसकी ओर भी बाबा ने ध्यान खींचा है। वे कविता में पहलीबार व्यापक रूप में मानवाधिकारों के सवालों को ले आते हैं। बाबा के पहले मानवाधिकारों को कविता के केन्द्र में कोई नहीं लाया । कविता को मजदूर-किसान के स्टीरिटाईप से निकालकर मानवाधिकारों के बृहत्तर कैनवास में लाकर बाबा ने पैराडाइम शिफ्ट का काम किया है। बाबा की 1970-71 से मानवाधिकारों पर केन्द्रित कविताएं आनी शुरू होती हैं और यह सिलसिला थमता नहीं है। वे अब कविता में उन विषयों की ओर मुड़ते हैं जो मानवाधिकारों से संबंधित हैं। इस प्रसंग में उनकी पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में हुई बूथ केप्चरिंग और अर्द्धफासी आतंक पर लिखी कविताएं प्रस्थान बिंदु के रूप में देखी जानी चाहिए। ये कविताएं बाबा को प्रगतिशील कवि की प्रचलित कोटि के बाहर ले जाती हैं और वे हठात मानवाधिकारों के रक्षक कवि के रूप में सामने आते हैं। वे दल और विचारधारा की सीमाओं का भी इसी आधार पर अतिक्रमण करते हैं और इसी आधार पर लोकतंत्र के खोखलेपन की आलोचना भी करते हैं। हमें 1970-71 के बाद की बाबा की कविताओं को मानवाधिकार साहित्य परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। वे पहलीबार प्रगतिशील कविता की सहमति को तोड़ते हैं। प्रगतिशील कवियों में अनेक सवाल हैं जिन पर आम सहमति नहीं है इनमें बाबा की कविताएं ज्यादा हैं जो आम सहमति को तोड़ती हैं। वे चीन-भारत युद्ध का सवाल हो या,नक्सलों के चित्रण का सवाल हो,संपूर्ण क्रांति आंदोलन के प्रश्न हों या आपात्काल के प्रश्न हों, आपातकाल के बाद तो यह सिलसिला और भी तेज गति से आगे बढ़ता है। मानवाधिकार के पैराडाइम में आने के साथ प्रगतिशील कविता में बनी आम सहमति टूट जाती है। प्रगतिशील कविता के पैराडाइम में अधिकांश कवि साम्यवादी विचारधारा से बंधे थे। लेकिन बाबा ने जबसे मानवाधिकारों की दुनिया में शिफ्ट किया सारा मामला बदल गया। वे साम्यवादी विचारधारा के बाहर चले गए। यह शिफ्ट आया तो भारत-चीन युद्ध के समय से है,लेकिन उसने आधार बनाया पश्चिम बंगाल के 1972-77 के अर्द्ध -फासी आतंक के समय को। उसके बाद से बाबा ने कविता में मानवाधिकार के परिप्रेक्ष्य को छोड़ा नहीं। इसी अर्थ में बाबा को पैराडाइम शिफ्ट का बड़ा कवि कह सकते हैं। मुक्तिबोध,केदारनाथ अग्रवाल,शमशेर,त्रिलोचन,शीलजी आदि की एक ही मुश्किल है कि वे पैराडाइम शिफ्ट के कवि नहीं हैं। यही हाल बाद के कवियों रघुवीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, ,केदारनाथ सिंह आदि का है। ये एक की पैराडाइम में बंधे हैं।
   बाबा लोकतंत्र की आलोचना करते हुए आरंभ में कविता में समय को दर्ज करते हैं लेकिन बाद में उसे समयरहित अवस्था की ओर ले जाते हैं। उनकी कविता में आलोचक सामयिक राजनीतिक सत्य के साथ सामान्य सत्य की भी खोज करते रहे हैं। कविता में सत्य की खोज को वे मूल्यांकन का हिस्सा बना देते हैं। बाबा अपनी राजनीतिक कविताओं में राजनीति के शिकार लोगों के आख्यान को सामने लाते हैं। राजनीति की आलोचना को सामने लाते हैं और यह काम कविता की सर्जनात्मकता को बनाए रखकर करते हैं। वे आलोचना को मानकों के परे ले जाकर पेश करते हैं। मसलन समाजवाद की आलोचना में लिखी उपरोक्त कविता की पंक्तियों को देखें-  ‘‘कौन हाँफ रहा है ? / किसका दम घुट रहा है ? / अरे ,अरे, मैं पहचानता हूँ/दूर से ही सही/मैंने बार-बार/ उसके पैंरों की आहट सुनी है/जी,मैं पहचानता हूँ/ वो सोशलिज्म है/’’ समाजवाद के पराभव को इतने सुंदर ढ़ंग से व्यक्त किया है कि कोई सोच ही नहीं सकता है कि समाजवाद ‘ हाँफ रहा है’, यह एक वाक्य ही काफी है पराभव को रेखांकित करने के लिए। इसी अर्थ में बाबा अपनी कविताओं के माध्यम से एक नया भाषाय़ीखेल खेलते हैं।  उनकी कविता में भाषा में बहुत ही गहरे अर्थों,बहुस्तरीय अर्थों की अभिव्यंजना हुई है। वे अपने भाषागेम में किसी न किसी विचार को केन्द्र में रखते हैं। वे उस विचार की ऐतिहासिकता में नहीं जाते उसे मूल्यहीन नहीं बनाते बल्कि नए मूल्य से लैस करते हैं। वे भाषाखेल को साहित्य की परिवर्तित अवधारणा की संगति में विकसित करते हैं। रूपायित करते हैं। वे अनुभव और अभिव्यक्ति में अंतराल पैदा करते हुए,उनके बीच के अंतर को गौण बना देते हैं।
    बाबा की कविता की धुरी है ‘घृणा करो या प्यार करो’, वे इस नारे के आधार पर कविता लिखते हैं। वे समाजवाद से प्यार करते हैं या फिर घृणा करते हैं। वे लोकतंत्र से प्यार करते हैं या घृणा करते हैं। वे लोकतंत्र के विभिन्न रूपों के प्रति अपनी घृणा व्यक्त करते हैं जो उन्हें परेशान करते हैं।
     बाबा के काव्य संकलनों की प्रकृति देखें तो पाएंगे कि ज्यादातर कविताएं विभिन्न समयों पर लिखी गयी और प्रकशित हुई हैं। उन्होंने किसी विषय विशेष को ध्यान में रखकर संकलन नहीं लिखा था। बाद में उनकी बिखरी हुई कविताओं को एकत्रित करके संकलन बनाए गए हैं। ये संकलन एक तरह से भिन्न किस्म की ‘पुस्तक’ की परिभाषा के अंदर आते हैं। अगर गौर से देखें तो बाबा की कविताओं में एक खास किस्म का बिखरा-बिखरा भाव है, एक अराजकता मिलेगी। असल में उनके इस तरह के काव्य संकलन को ‘रेडीकल बुक’ की देलुत्ज-गुअतारी की ‘ ए थाउजेंडस प्लेटोज’ में वर्णित अवधारणा के दायरे में ऱख सकते हैं।
     इन संकलनों के निशाने पर कुछ खास किस्म के संकेत या साइन हैं। इन संकलनों में प्रकाशित कविताओं में ऐतिहासिक समय संदर्भ है लेकिन काव्य संकलन का कोई ऐतिहासिक समय संदर्भ नहीं है। इन कविताओं में एक कविता के बाद ‘और’फिर ‘और’ इसके बाद फिर ‘और’ की पद्धति से कविताएं संकलित की गई हैं। इस तरह की पुस्तक संरचना में यह सवाल अर्थहीन हो जाता है कि आप कहां से चले थे,कहां जाना है । मैं यहां कुछ संकलनों के सहारे इस ‘रेडीकल बुक’ की अवधारणा पर रोशनी डालना चाहता हूँ। मसलन ‘भूल जाओ पुराने सपने’(1994) को ही लें इसमें 51 कविताएं हैं और ये विभिन्न समय में देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपी हैं। 1979से 1993 के बीच में प्रकाशित कविताएं इसमें हैं। इसी तरह ‘सतरंगे पंखों वाली’ (1984) संकलन में 1956-58 के बीच लिखी कविताएं शामिल की गई हैं। यही हाल ‘रत्नगर्भ ’ (1984) संकलन का इसमें 8 लंबी कविताएँ हैं जो अलग-अलग पत्रिकाओं में विभिन्न समयों में छपी हैं। यही हाल अधिकांश काव्य संकलनों का है। हिन्दी में अभी तक इस सवाल पर सोचा ही नहीं गया कि किसी कवि का जो संकलन आ रहा है वह किस तरह की ‘किताब’ की अवधारणा में बंधकर आ रहा है। हिन्दी आलोचक के लिए सिर्फ काव्य संकलन आ गया यही काफी है। यहां तक कि बाबा के नाम पर हिन्दी में जो विशेषज्ञ आलोचक हैं वे भी अभी तक समझ नहीं पाए हैं कि बाबा के ‘किताब’ के फॉर्म की व्याख्या कैसे करें। बाबा के काव्य संकलन को आप कहीं से भी और किसी भी कविता से आरंभ कर सकते हैं। चाहें तो एक कविता पढ़ें या दो या तीन या पूरी किताब उलट-पलटकर पढ़ें,आपको किसी क्रम को मानने की जरूरत नहीं है। कहां से आरंभ कर रहे हैं,कहां बंद कर रहे हैं और कहां जा रहे हैं,ये सारे सवाल बाबा की कविता की किताब पढ़ते समय अप्रासंगिक हैं। इस तरह के संकलन में कहने के लिए प्रत्येक कविता स्वतंत्र है लेकिन मजेदार बात है कि एक कविता का पाठ दूसरी कविता के पाठ से जुड़ता प्रतीत होता है। यह भी कह सकते हैं कि बाबा के काव्य संकलन में एकाधिक स्तर पर कविताएं सक्रिय हैं। उनके एक नहीं बल्कि बहुस्तरीय अर्थ भी हैं। एक कविता दूसरी कविता के पूरक की भूमिका में नजर आती है। कविता के अर्थ की बहुस्तरीयता कविताओं को एक ही आयाम की ओर ले जाती प्रतीत होती है। वे अनेक कविताओं से आधुनिक कविता का नया फॉर्म इजाद करते हैं। कविता का नया फॉर्म है कविता की बहुस्तरीयता और एक दिशा।
    इन संकलनों में विषय के वैविध्य के अलावा एक चीज साझा है वह है राजनीतिक कविता। बाबा ने राजनीतिक कविता के फॉर्म को बनाने के लिए विभिन्न समयों में लिखी कविताओं को एक ही ढ़ांचे में बांधा है। कविताओं के लेखन का समय अलग-अलग है,प्रकाशन समय अलग है लेकिन दिशा एक है। इन संकलनों की विशेषता है कविता के अर्थ की बहुस्तरीयता। और एक दिशा है लोकतंत्र के परे चलो। कविता के प्रचलित ढ़ांचे के परे चलो।
    बाबा के लेखे लोकतंत्र में अराजकता है,कोई ऐसी चीज नहीं है जिस पर भरोसा किया जाए। यह ऐसा युग है जिसमें विषय और व्यक्ति के बीच में एकता स्थापित करना संभव नहीं है। स्वाभाविक यथार्थ और बौद्धिक यथार्थ के बीच में एकता स्थापित करना संभव नहीं है। यह ऐसा जगत है जो अपनी धुरी खो चुका है। बार-बार लोकतंत्र की कमजोरियों,अन्याय आदि का कविताओं में उदघाटन करते हुए बताते हैं की देश में लोकतंत्र नहीं है। लोकतंत्र अपनी धुरी से उतर चुका है। अतः कविता में समाज और व्यक्ति के बीच की एकता के चिर-परिचित दायरे से भी ऊपर लेजाने की जरूरत है। वे समाजवाद के भी परे कविता को ले जाते हैं। बाबा के लिए मौजूदा जगत अपनी धुरी खो चुका है। उनकी कविता इस धुरी से उतरे जगत के रूपायन पर केन्द्रित है। समाज में अराजकता है इसलिए काव्य संकलनों में भी बिखरापन है।
    बाबा की कविताओं को संकलन में पढ़ते हुए एक किस्म के सत्य के दर्शन नहीं होते बल्कि अनेक किस्म के सत्य के दर्शन होते हैं। सत्य की बहुस्तरीयता ही उनकी कविता की धुरी है। इसे आप किसी भी किस्म की आलोचना की भाषिक चालाकी से ढंक नहीं सकते।                       



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