शनिवार, 26 मार्च 2011

नव्य उदार भारत की सामाजिक हकीकत - डा.भरत सिंह


       आज हम विभ्रम के दौर से गुजर रहे हैं। समाजवादी दुनिया खत्म हो चुकी है। समाजवाद एवं साम्यवाद का नाम लेने वाले दल और संस्थाएं नवउपनिवेशवाद और भूमंडलीकरण की राजनीति के पैरोकार हो गए हैं। 'कोई विकल्प नहीं है भूमंडलीकरण का' कहकर रिरियाते-खीजते हुए कम्युनिस्ट असहाय दिखाई दे रहे हैं। चारों तरफ  विधवा विलाप का आर्त्तनाद है। ऐसे में क्रांतिकारी राजनीति का नाम लेने वाले उपहास के पात्र हैं। रही क्रांतिकारी स्वछंदतावाद की काव्य-धारा की चर्चा तो वह कहीं सुनाई तक नहीं देती है। किसान-मजदूर वर्ग की बातें करना गुनाह है। उत्तर-आधुनिक दौर में वर्ग एक गाली है। अब दलित, पिछडे, आदिवासी समुदायों के विमर्शों का बोलवाला है। विचारधारा, इतिहास, कविता आदि सब मर चुकने की घोषणाएं हो चुकी हैं। देशभक्ति और समतावादी समाज की बातें करने वाले शर्मिंदा और लाचार हैं।
      भारत का मध्यवर्ग अपनी पतनोन्मुखी भूमिका में आ गया है। यद्यपि भारतीय    मध्यवर्ग ब्रिटिश साम्राज्यवाद के बलात्कार से उत्पन्न दोगला औलाद है तथापि इसी    मध्यवर्ग ने भारतीय नवजागरण और स्वाधीनता संग्राम में प्रगतिशील तथा क्रांतिकारी भूमिका भी निभाई थी। भगत सिंह मध्यवर्ग के संपन्न तबके में पैदा हुए थे और दिनकर भी सर्वहारा वर्ग के नहीं थे। भूमंडलीकरण के दौर में भारतीय मध्यवर्ग सुर्खियों में आया। इसे 'द ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास' कहकर सराहा गया। इसकी शक्ति और सामर्थ्य के बारे में यहां तक कहा गया कि यह अमरीका की कुल आबादी के बराबर है और विश्व का सबसे बड़ा उपभोक्ता बाजार है। यह वर्ग अमरीका पर फिदा है और अमरीका इस पर कुर्बान। आज भारत के हर शहर में एक अमरीका है। अमरीका में भारत के हर शहर
की पॉश कॉलोनी का एक नुमाइंदा रह रहा है। अगर भारतीय मध्यवर्ग को छूट दे दी जाय तो चौबीस घंटे के भीतर शहरी भारत का मध्यवर्ग न्यूयार्क और वाशिंगटन में दिखाई देगा।
      भारत के रक्तपायी वर्ग के नौनिहाल अमरीका और यूरोप के कुछ देश में शिक्षा पा रहे हैं। इन नौनिहालों की पढ़ाई पर इस देश का 40,000 करोड़ रुपया प्रति वर्ष खर्च होता है। आज भारत में प्रतिष्ठित वर्ग का शायद ही कोई ऐसा परिवार हो जिसका कोई सगा संबंधी अमरीका में प्रवासी न हो। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक विदशों में बसे भारत वंशियों की कुल संख्या 2 करोड़ है। इनकी सालाना आय 27 लाख करोड़ है, जबकि भारत का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) कुल 40 लाख करोड़ ही है। अमरीका में बसे एनआरआई'ज की औसत सालाना आय 60 हजार डालर है। मार्च 2007 में खत्म हुए वित्तीय वर्ष में भारतीय प्रवासियों द्वारा भारत में भेजी गई रकम का क्रमांक एशिया में प्रथम स्थान पर विराजमान है। भारत के मध्यवर्ग ने 2006-07 में 27 अरब डालर यानी 1080 अरब रुपए भारत भेजे।
      यह वर्ग 'करप्सन' को 'कर प्रसन्न' कहता है। घूस की रकम को 'स्पीड मनी' बताता है। सरकारी कर्मचारी प्रति वर्ष 21068 करोड़ रुपया घूस के रूप में डकार जाते हैं। न्याय के मंदिर में बैठे देवता प्रति वर्ष 2630 करोड़ रुपए पुजापे के रूप में पाते हैं। ये तो दस्तूरी भ्रष्टाचार है, जो न्यायिक कर्मचारियों की जेबों में जाता है। न्यायाधीशों का भ्रष्टाचार इसमें शामिल नहीं है।
      इस वर्ग के आराध्य त्रिदेव- नेता, अफसर और सेठ- कितने भ्रष्ट हैं, इसका अनुमान लगाना असंभव है। पानी में रहकर मछली कितना पानी पी जाती है, इसका आकलन करना तो संभव हो सकता है लेकिन इस त्रिमूर्ति के भ्रष्टाचार की थाह तो ब्रह्मा-विष्णु-महेश भी नहीं पा सकते।
    एक अनुमान के अनुसार इस देश के शीर्षस्थ लोगों के कालाधन की 5 लाख करोड़ रुपए की रकम विदेशी बैंकों में जमा है। ये धन कुबेर 2 लाख करोड़ रुपए की प्रतिवर्ष टैक्स चोरी करते हैं। यह काला धन बड़े-बड़े कृषि फार्मों को खरीदने पर खर्च होता है। ग्रामीण भारत की गरीबी को बढ़ाता है। समाज में लाचारी बढ़ती है और अपराध, नशा खोरी, वेश्यावृत्तिा की प्रवृत्तियां पनपकर समाज   अधोगति को प्राप्त करता है। इस देश में भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है। कांग्रेस ही नहीं लगभग सभी पार्टियों के नेता भ्रष्टाचार की गटर गंगा में रोज स्नान करते हैं। आम आदमी की असहायता को छोड़कर लगभग सारा भारत भ्रष्टाचार की त्रिावेणी में गोते लगा रहा है।
      भारत का मध्यवर्ग (पैटी बुर्जुआ) शासक-शोषक वर्ग से नाभि-नाल बध्द है। भारत की सिविल सोसाइटी पर इसकी अजगरी जकड़न है। पूंजीपति-सामंत वर्ग की पार्टियों के नेतृत्व की तो बात ही छोड़ दें, इस देश की साम्यवादी पार्टियों पर भी इसी वर्ग का  एकाधिकार है। जैसा कि कहा जा चुका है मध्यवर्ग के रक्त में अमेरिका बसा हुआ है।पंजाबी बड़ी ठनक और फक्र के साथ यह कहते सुनाई देते हैं -'साड्डा पुत्तर अमरीका विच है।' मुक्तिबोध ने कहा था 'साम्राज्यवादियों के / पैसों की संस्कृति भारतीय आकृति में बंधकर/ दिल्ली को वाशिंगटन व लंदन का उपनगर/ बनाने पर तुली है / भारत का धनतंत्री जनतंत्री, बुध्दिवादी स्वेच्छा से उसी का कुली है।'' इस मध्यवर्ग का कुलीकरण हो चुका है। इसकी कुलीनता में अमरीकी साहबों के पिट्ठू ढोने वाले कुलियों की दास्य मनोवृत्ति झलकती है। इस वर्ग के साम्यवादियों को भी साम्राज्यवाद रास आ गया है। सलीम ग्रुप के साम्राज्यवादी हितों की खातिर लाल झंडे के रणबांकुरे अपने किसानों की हत्या करने में वीरता का प्रदर्शन कर रहे हैं और गरीब किसानों की औरतों से बलात्कार कर रहे हैं।
      भारत में साम्राज्यवाद की सफलता मैकाले की विचारधारा एवं ब्रिटिश साम्राज्यवाद की सफलता की कहानी के विकास का नया अध्याय है। मैकाले और ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने भारत में यूरोपीय दिमाग मध्यवर्ग पैदा किया। यही मध्यवर्ग नेहरू-इंदिरा के समाजवाद के कथित दौर में पनपा और समाजवादी बना तथा समाजवादी तब तक बना रहा जब तक 'समाजवाद' गाली के रूप में गली-गली में चर्चित नहीं हो गया। अब यही मध्यवर्ग नवउदार व्यवस्था में फल-फूल रहा है। अमरीकी साम्राज्यवाद का पिट्ठू , दलाल बन गया है और अपने ही देश के बाकी लोगों को उपनिवेश में बदल रहा है। इसी वर्ग ने साम्राज्यवादी दलाली का पट्टा अपने नाम लिखा लिया है। भारत की राजनीति अमरीकी दलालों के हाथ में वार वनिताओं की तरह थिरक रही है।
       अमरीकी साम्राज्यवाद की पूंछ पकड़कर भारतीय पूंजीपति वर्ग ने वैतरणी पार की। प्रथम दृष्टया अच्छे परिणाम आए जो देश के 10-15 करोड़ नौदौलतियों के हक में गए। 31 मार्च 2007 के सरकारी आंकडे गद-गद भाव में अमरीकी चरण चुंबन करते हुए दिखाई देते हैं। इनमें बताया गया कि भारत के पास 180 अरब डालर का विदेशी मुद्रा भंडार है। कभी भारत ने ऐसा समय भी देखा था कि विदेशी मुद्रा भंडार चुक गया था और उसकी प्राप्ति के लिए भारत के स्वर्ण भंडार गिरवी रख दिए गए थे। सचमुच यह इतराने वाली बात ही है। विदेशी मुद्रा भंडार और विदेशों से आने वाली आय ने भारत को स्वत: स्फूर्ति स्थिति में पहुंचा दिया। बचत दर 32 प्रतिशत की दर से और निवेश की दर 34 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ी। माल व सेवा क्षेत्रा में कुल व्यवसाय की वृध्दि दर भारत के सकल घरेलू उत्पाद के 17 प्रतिशत पर जा पहुंची। शेयर बाजार के सूचकांक में आई तेजी से भारतीय अर्थव्यवस्था में निवेशकों का विश्वास बढ़ा।
      मध्यवर्ग भारत की बढ़ती हुई अमीरी को देख कर गद्-गद् है। दुनिया में सबसे तेज गति से अमीरी भारत में बढ़ रही है, 23 प्रतिशत की दर से। चीन का नंबर दूसरा है, 20 प्रतिशत की दर वाला। और उधर अमरीका तथा यूरोप में अमीरी दो-तीन प्रतिशत पर जाकर अटक गई है। भारत में पिछले चार साल (अप्रैल 2004 से मार्च 2008) में भारत में खरबपतियों की संख्या नौ से बढ़कर छप्पन हो गई है। भारत से ज्यादाखरबपति तो अब अमरीकी में ही हैं। भारत के खरबपतियों के हाथ में देश की 20 प्रतिशत सम्पदा है। आज देश में एक लाख करोड़पति हैं। दुनिया के सबसे रईस 20 लोगों में से 3 भारत के हैं।
       आज 10-15 प्रतिशत संख्या वाला भारत का मायावी मध्यवर्ग 85-90 प्रतिशत भारतीयों की कीमत पर भारत को 'अमेरिकन इंडिया' बनाने में लगा हुआ है।
      क्या इस मध्यवर्ग के युवाजन भगत सिंह के स्वप्नों को साकार करने के लिए गरीब भारत के नोजवानों का नेतृत्व करेंगे? शायद नहीं। कहीं यह कहना ज्यादा सरलीकरण तो नहीं है। आइए, तसवीर का दूसरा पहलू भी देखें।
       इस मध्यवर्ग के मायावी स्वर्गलोक के अलावा मरते-खपते श्रमजीवियों का मृत्युलोक भी है, जिसके बलबूते मध्यवर्ग के देवता ऐशोआराम का जीवन व्यतीत करते हैं। इस मृत्युलोक के नर-नारियों का जीवन देवलोक (शासक-शोषक वर्ग) की इन्द्रसभा ने नारकीय बना रखा है। यहां जम्बू द्वीपे, भरत खंडे, भारत देशे की चर्चा- विशेष रूप से उल्लेखनीय है। सबसे ज्यादा दुर्गति भारत के किसानों की है, किसानों के कर्म स्थल गांवों की है। भारत के छह लाख गांव मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं। दो लाख गांवों को शुध्द पेय जल तक उपलब्ध नहीं है। देश की 68 प्रतिशत ग्रामीण आबादी खेती पर आश्रित है, जिसमें 40 प्रतिशत आबादी खुद काश्त है, 25 प्रतिशत आबादी भूमिहीन मजदूरों की है। खुद काम करने वालों का सामाजिक आधार अन्य पिछड़ा वर्ग 61 प्रतिशत, अनुसूचित जाति 37 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति 49 प्रतिशत है। 80 प्रतिशत किसानों के पास एक हेक्टेयर से कम जमीन है। ग्रामीण भारत की 55 करोड़ आबादी किसान है और 20 करोड़ खेतहर मजदूर हैं। औसत कृषि भूमि 1.47 हैक्टेयर है। किसानों को भारत में पूंजीपतियों, कारखानेदारों और सरकारी संस्थानों द्वारा अप्रत्यक्ष सब्सिडी दी जाती है, जिसका लाभ किसान को कम किंतु बिचौलियों को अधिक मिलता है। अमरीका और यूरोप के देशों में किसानों को प्रत्यक्ष सब्सिडी दी जाती है। अमरीका में प्रति हेक्टेयर 35 हजार डालर की प्रत्यक्ष सब्सिडी दी जा रही है। खेती करना सम्मानजनक नहीं रहा। 40 प्रतिशत नौजवान खेती करने के पक्ष में नहीं हैं। पैदावार की दर घट रही है। पंजाब जैसे विकसित कृषि प्रधान राज्य में गेहूं का उत्पादन 15 प्रतिशत घटा है। खाद्यान्न पैदा करने वाला कृषि क्षेत्रा घटकर 12 करोड़ हेक्टेयर रह गया है। किसान की आय की वृध्दि दर मात्रा 28 प्रतिशत है, जबकि गैर किसान 4 प्रतिशत। सकल घरेलू उत्पादन में कृषि क्षेत्र का योगदान 1975 में 38 प्रतिशत था जो 2007 में घटकर आधा यानी 19 प्रतिशत रह गया। केंद्र सरकार के बजट का 2 प्रतिशत ही खेती पर खर्च होता है जबकि संचार पर 13 प्रतिशत। गांव की 60 प्रतिशत आबादी के पास महीने में खर्च करने के लिए 600 रुपए भी नहीं हैं। विवेकहीन शहरीकरण के नाम पर किसानों से औने-पौने दामों में जमीन लगभग छीनी जा रही है। अब तक 2 करोड़ किसानों से जमीन छीन ली गई है, जिनमें 40 प्रतिशत आदिवासी हैं। बेदखल लोगों मेंसे केवल 54 लाख लोगों का ही पुनर्वास हो पाया है, जिनमें 25 प्रतिशत आदिवासी हैं।
      खेती घाटे का सौदा है। गांव, गरीब, किसान की स्थिति अत्यंत दयनीय है। किसानों और गांव के गरीबों का रोम-रोम कर्ज से विंधा है। महाजनी पूंजीवाद का युग वापस हुआ है। 'गोदान' के रचना काल का भयावह, विनाशकारी समय लौटा है। वित्ताीय पूंजी की अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था ने चाराें तरफ कर्ज का हाहाकार मचा रखा है। किसानों के कर्ज की समस्या को लेकर गठित की गई राधाकृष्ण आयोग की रिपोर्ट आंख खोलने वाली है। वर्ष 2003 तक भारत के किसानों पर 1,12,000 करोड़ रुपए का कर्ज था। आंध्रप्रदेश के 82 प्रतिशत, पंजाब के 65.4 प्रतिशत, हरियाणा के 53 प्रतिशत किसान कर्ज में डूबे हुए थे। पंजाब के प्रत्येक किसान पर औसत 45000 रुपए का कर्ज है। 2007 में यह कर्ज की राशि 3,80,000 करोड़ रुपए तक पहुंच गई है। संस्थाओं द्वारा 57.7 प्रतिशत कर्ज किसानों को दिया जाता है, जबकि महाजनों द्वारा 42.3 प्र्रतिशत कर्ज वितरित होता है। छोटे किसानों को तो बैंक भी कर्ज देने में आनाकानी करते हैं। एक हेक्टेयर से भी कम जमीन जोतने वाले 61 प्रतिशत किसान अत्यंत गरीबी का जीवन यापन करते हैं। महाजनों के कर्ज जाल में उलझकर अपनी जमीन गिरवी रख देते हैं। एक दिन ऐसा आता है कि जमीन महाजन की हो जाती है और ये किसान आत्महत्या कर लेते हैं। यह नया सामाजिक परिदृश्य है। 'गोदान' रचना-काल में किसान आत्महत्या नहीं करते थे। आज तो हालत यह है कि 1997 से 2007 के दशक में 1,50,000 किसानों ने आत्महत्या की। औसतन रोजाना 45 किसान भारत में आत्महत्या करते हैं।
      भारत में मजदूरों की संख्या, 2001 की जनगणना के अनुसार 40.2 करोड़ है। इनमें शुध्द श्रमिक 31.3 करोड़ और सीमांत श्रमिक 8.9 करोड़ हैं। असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की संख्या 36.9 करोड़ यानी 93 प्रतिशत है और संगठित क्षेत्रा में इनकी तादाद 2.59 करोड़ यानी 7 प्रतिशत है। शहरों में ये मजदूर गंदी बस्तियों में रहते हैं। कुल शहरी आबादी का 25 प्रतिशत स्लम्स में रहता है। शहरी आबादी के 67 प्रतिशत निम्नवर्गीय जनों का 1100 रुपए का प्रतिमाह जुगाड़ करना मुश्किल होता है। 43 प्रतिशत हिस्से के पास ही नियमित आय का साधन यानी नौकरियां हैं। स्वरोजगार के क्षेत्रा में पिछड़े वर्ग की हिस्सेदारी 34 प्रतिशत, एस.सी. की 31 प्रतिशत और एस. टी. की 27 प्रतिशत है।
      आज भी देश में 30 करोड़ लोग गरीबी की रेखा के नीचे हैं। इस वर्ग की प्रतिव्यक्ति आय एक डालर प्रतिदिन से कम है। अगर इसमें दो डालर प्रतिदिन कमाने वालों को शामिल कर लें तो देश में इन लोगों की कुल संख्या 60 करोड़ के आसपास होगी।
      अर्जुन सेन गुप्ता आयोग के अनुसार 84 करोड़ लोगों को प्रतिदिन 20 रुपए भी नहीं मिलते। 34 करोड़ लोगों को दो दिन में एक बार खाना नसीब होता है।
      जगमोहन का कहना है कि ''आज भी देश में दुनिया के सबसे अधिक गरीब, अशिक्षित और कुपोषित लोग रहते हैं। कम क्रय-शक्ति के कारण 25 करोड़ लोग हरदिन भूखे पेट सोते हैं। हर तीसरी महिला शारीरिक रूप से कमजोर है। 5 वर्ष से कम आयु में कम वजन के बच्चों में 40 प्रतिशत भारतीय हैं। इस वर्ग के 5 करोड़ 70 लाख बच्चे कुपोषित हैं। यदि इसे प्रतिशत में (48) देखा जाए तो यह इथियोपिया (47) से भी अधिक है। विश्व में स्कूल न जाने वाले कुल 15 करोड़ बच्चों में से 13 करोड़ भारतीय हैं। 4.40 करोड़ बच्चे गुलामी का जीवन जीते हैं। सात भारतीय महिलाओं में से छह अशिक्षित हैं। 64 करोड़ भारतीयों के पास शौचालय की  सुविधा नहीं है। 17 करोड़ के लगभग भारतीय पीने के स्वच्छ पानी से वंचित हैं। 29.3 करोड़ लोगों को स्वास्थ्य की सामान्य सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। बीमारियां और प्राकृतिक आपदाएं आज भी भारतीयों के लिए मौत का पैगाम लेकर आती हैं। दुनिया में टी.बी. के सबसे अधिक 4 करोड़ मामले भारत में हैं। एड्स का खतरा हर दिन बढ़ रहा है। तथ्य यह है कि प्रतिमिनट एक भारतीय इस जानलेवा बीमारी की चपेट में आ रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक तनाव लोगों के प्राण ले रहा है। शहरों की स्थिति कोई अच्छी नहीं है। झुग्गी-झोपड़ियों और अवैध कब्जों पर बनाई गई बस्तियों की बढ़ती तादाद शहरों के नारकीय जीवन को प्रतिबिंबित करने के लिए काफी है। ऐसी बस्तियां समग्र आबादी की तुलना में 250 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रही हैं। झुग्गी-झोपड़ी वालों से भी ज्यादा बदनसीव लोगों की संख्या 10 करोड़ है, इन्हें झुग्गी-झोंपड़ी भी नसीव नहीं है। ये बेघर लोग हैं। सड़क, फुटपाथ, स्टेशनों, पार्कों, पुलों के नीचे और रेलवे पटरियों के पास रहते हैं। मजेदार बात यह है कि ये सभी घर-गृहस्थी वाले बाल-बच्चेदार लोग हैं। विश्व में प्रतिहजार वाहनों के बीच होने वाली मार्ग दुर्घटनाओं में सबसे बड़ा हिस्सा भारत में होने वाली मार्ग दुर्घटनाओं का होता है। कोढ़ में खाज वाली बात यह है कि शहरों में मूलभूत सुविधाओं की स्थिति दुर्दशा ग्रस्त बनी हुई है। देश के खाद्यान्न और शाक-सब्जियों का 40 प्रतिशत भाग खेत से उपभोक्ता तक पहुंचने के दौरान बर्बाद हो जाता है।''
      असली भारत बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी से पीड़ित रहने वाला कुपोषण का शिकार बीमार भारत है। हमारे देश में संसार के एक चौथाई दूध देने वाले पालतू जानवर हैं, फिर भी संसार भर में जितना दूध होता है, उसका केवल 5 फीसद ही इस देश में होता है। दूध की प्रतिवर्ष खपत 110 ग्राम है। कुपोषण से 45 प्रतिशत बच्चे भयंकर रूप से पीड़ित हैं और 60 फीसद का वजन उनकी आयु के अनुपात से कम है। यही हाल महिलाओं का है। पर्याप्त पोषण के अभाव में प्रतिवर्ष लाखों गर्भवती महिलाएं रक्त की कमी के कारण मृत्यु का शिकार होती हैं।
      नौजवानों के स्वास्थ्य की स्थिति संतोष जनक नहीं है। उनके कद, सीने की चौड़ाई और वजन में बराबर गिरावट आती जा रही है। देश के 75 प्रतिशत बच्चों को छोटी-बड़ी बीमारियों के कारण अस्वस्थ की श्रेणी में रखा जा सकता है। विटामिन ए की कमी के कारण प्रतिवर्ष 14 से 15 हजार बच्चे अंधे हो जाते हैं। 1980 में अंधों की संख्या 90 लाख थी। आज वह बढ़ी ही होगी। आंख के रोगों से पीड़ित 3 करोड़ व्यक्ति इस देश में रहते हैं।
      देश में करोड़ों व्यक्ति निराश्रित हैं, जिनमें से 39.2 प्रतिशत शारीरिक रूप से विकलांग हैं। 29.9 प्रतिशत क्षय, दमा, कैंसर आदि से पीड़ित हैं। 11 प्रतिशत लोग मानसिक रोगों के शिकार हैं। इन निराश्रितों का पांचवां हिस्सा दान एवं भीख पर आश्रित है। बाकी लोग या तो रद्दी इकट्ठा करते हैं या मामूली चोरी-चकोरी, गिरहकटी, उठाई गीरी और वेश्यावृत्तिा से पेट पालते हैं।
      देश में प्रतिवर्ष जनसंख्या का 7 प्रतिशत भाग यानी लगभग दो करोड़ लोग हृदय रोग के शिकार हो जाते हैं। अमीवा-पेचिश के रोगियों की संख्या 21 करोड़ है। कृमि रोगियों की संख्या 26 करोड़ है। मधुमेह से पीड़ित व्यक्तियों की संख्या 5 करोड़ है। डायरिया-अतिसार से 19 करोड़ लोग पीड़ित हैं। दमा और कैंसर के सटीक आंकडे उपलब्ध नहीं हैं। मलेरिया, जुकाम, खांसी तो हमारे स्थायी मेहमान हैं। चेचक कभी खत्म कर दी गई थी, आज उसकी ससम्मान वापसी हो रही है। पोलियो से मासूमों को बचाने के अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रयास हो रहे हैं। अल्लाहो-अकबर के अनुयाई वैक्सीन को इस्लाम विरोधी मान रहे हैं। मुस्लिम बच्चों मेंे पोलियों आज भी विद्यमान है। दो करोड़ से अधिक बच्चे गलगंड (गोयटर नामक गले की बीमारी) से ग्रस्त हैं। तपेदिक से प्रति वर्ष 5 लाख लोग मरते हैं। भारत में कुष्ठ रोग से पीड़ित व्यक्तियों की संख्या 1.30 करोड़ है।
      जब से एल.पी.जी. अर्थव्यवस्था का अमरीका के नेतृत्व में सूत्रापात हुआ, तब से लाखों छोटे-कारखाने बंद हो गए। करोड़ों कारीगर, मजदूर बेकार हो गए। स्वचालित दैत्याकार मशीनों ने आदमी को निगल लिया। बेकारों की फौज सड़कों पर घूम रही है। अब तो बेरोजगारों के आंकड़े भी सरकार तैयार नहीं करती। एक अनुमान के अनुसार 20 करोड़ नौजवान बेकार हैं।
      घटे डालर की पूंछ पकड़ कर रुपया चल रहा है। जब अमरीका छींकता है तो भारत में निमोनिया हो जाता है। अमरीका की मंदी से भारत की अर्थव्यवस्था डांवाडोल हो जाती है। मंहगाई वैश्विक परिघटना के रूप में नमूदार हो रही है। ऐसी अभूतपूर्व मंहगाई भारत की जनता ने कभी नहीं देखी थी। जनता त्रााहि-त्रााहि कर रही है। भारत की राजनीति में परमाणु डील के नाम पर नूरा कुश्ती हो रही है। वास्तविक समस्याओं से    ध्यान हटाने के लिए यह तमाशा शवोरोज हमारे आगे हो रहा है।
      इस भीषण गरीबी के कारण सामाजिक समस्याएं बढ़ी हैं। दहेज प्रथा शहरी ग्रामीण मध्यवर्ग में नासूर बन गई है। स्त्रिायों को दहेज की खातिर जिंदा जलाया जा रहा है। स्त्री स्त्री के गर्भ में भी सुरक्षित नहीं है। कन्या भ्रूण नष्ट किए जा रहे हैं। स्त्राी-पुरुष अनुपात में भयानक अंतर आ रहा है। बलात्कार बढ़ रहे हैं। स्त्रियों में आत्महत्या की दर बढ़ रही है। स्त्राी के पास जब कुछ नहीं होता तो वह जिस्म फरोशी करने लगती है।
      निर्धन गरीब लोग शराब के आदी होते जा रहे हैं। बंगाल, केरल में सबसे अधिकशराब नोशी होती है। यहां स्त्रिायां भी सर्वाधिक दर से आत्महत्या कर रही हैं।
      इस देश के शासक जनता को संगठित नहीं विघटित कर रहे हैं। सांप्रदायिकता और जातिवाद, क्षेत्रीयता, आंचलिकता को बढ़ावा दिया जा रहा है। पूरी राजनीति जातिवाद, क्षेत्राीयवाद और सांप्रदायिकता के सांचे में ढल गई है।  मुस्लिम सांप्रदायिकता आज इस्लामी आतंकवाद में बदल गई है। कश्मीर में हुर्रियत कांफ्रेस खुल्लम खुल्ला पाकिस्तान जिंदावाद का नारा बुलंद करती है। पिछले बीस वर्षों में कश्मीर घाटी से 5 लाख कश्मीरी पंडितों को खदेड़ दिया गया है। अपने ही देश में अपने ही नागरिक शरणार्थी बन गए हैं। हिंदी भाषी लोग महाराष्ट्र, पूर्वोत्तर में मारे जा रहे हैं। पूरा देश अराजकता के मुहाने पर बैठा है। असंतोष का ज्वालामुखी धीरे-धीरे सुलग रहा है।
 (डा.भरत सिंह,प्रोफेसर,हिन्दी विभाग,अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय,अलीगढ़)      


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2 टिप्‍पणियां:

  1. वर्तमान भारत की आंकड़ों के माध्यम से जो सच्ची तस्वीर
    आपने खींची है ,सचमुच दिल दहला देने वाली है !
    अफ़सोस की बात है की हम भारतीय होते हुए और भारत
    में रहते हुए भी ,अपनें देश को नहीं जानते !
    मध्य-वर्ग का कच्चा चिठ्ठा खोलता है यह लेख !
    आशा है आँख भी खोलेगा !

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  2. हर भारतीय के दिमाग में एक अमरीका बसता है | जो उसे लुभाता, ललचाता भी है और डराता भी है |पर न उससे डरने की जरुरत है और न उसे लपकने की | जरुरत एक ऐसा समाज बनाने की है जिसमें सभी सुखी हों |
    अमरनाथ 'मधुर'

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