सोमवार, 28 मार्च 2011

यादों के आइने में भगतसिंह और उनके साथी -1-यशपाल


                 ( क्रांतिकारी और महान कथाकार स्व.यशपाल)
 मैं यह कहानी व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर लिख रहा हूं। भगत सिंह, सुखदेव और मैं कालिज के सहपाठी थे। भगवतीचरण हम लोगों से दो बरस आगे थे। सहपाठी ही नहीं, हम लोगों में विशेष आंतरिकता भी थी। इस आंतरिकता का भी कुछ कारण रहा होगा। इस आंतरिकता द्वारा मैं उन लोगों की परिस्थितियों को भी जान सका हूं।
      भगत सिंह का पारिवारिक घर लाहौर से लगभग कुछ मील दूर सांडा गांव में था। सुखदेव लायलपुर का रहने वाला था। भगवतीचरण वोहरा लाहौर के ही रहने वाले थे। मेरे परिवार का आदिम स्थान तो कांगड़े का पहाड़ी जिला है परंतु पंजाब नेशनल कालिज में मैं फिरोजपुर से गया था। लाहौर के पंजाब नेशनल कालिज में, जहां कि एच.एच.आर.ए. की प्रथम धूनी सुलगी, हम लोगों का आकर मिल जाना जैसी परिस्थितियों में संभव हुआ और जिन प्रवृत्तियों के कारण हम लोग एक दूसरे की ओर आकर्षित हुए या हमने एक दूसरे में कुछ ऐसी बात विश्वास के योग्य पाई जिसके कारण जिंदगी-मौत के खेल में साथी बन गए।
      सशस्त्र क्रांतिकारी आंदोलन के जिस काल से मेरा व्यक्तिगत संबंध रहा है उसमें भगत सिंह का स्थान महत्वपूर्ण था। क्रांति की चेष्टा या राजनीतिक बातों के अलावा भी सहपाठी और मित्र के रूप में भगत सिंह की संगति में बहुत बड़ा आकर्षण था। वह स्वयं बहुत विनोदप्रिय होने के साथ-साथ दूसरों के लिए विनोद का अच्छा खासा साधन भी बन सकता था। भगत सिंह के उस समय के रूप और उसके वर्तमान ऐतिहासिक महत्व और स्थान में बहुत अंतर है। भगत सिंह के जो सुघड़ और चुस्त चित्र हैट पहने और मूंछ मुर्री दिए आज जगह-जगह दिखाई देते हैं, उनसे भगत सिंह के उस समय के रूप और व्यवहार की कल्पना नहीं की जा सकती। कद लंबा और चेहरे का रंग साफ होने पर भी हल्की-हल्की दाढी-मूंछ से घिरा चेहरा परंतु हल्की भवें और छोटी-छोटी आंखें। सिर पर ढीले-ढाले बांधे केशों पर दोनों ओर लटकती  छोटी-सी पगड़ी। खद्दर के मैले और प्राय: शरीर से बेनाप कपड़े। कमर में अक्सर पायजामे की जगह लुंगी पहन कर ही वह कालिज आ जाता। हम लोगों का सहपाठी झंडा सिंह उस की आंखों की उपमा लड्डू में चिपके बादामों से और उसके रूप की उपमा जवान अल्हड़ बोते (ऊंट) से दिया करता था।     
दूसरी और समय आने पर उसी भगत सिंह का रूप और करतूत दोनों ही ऐसे निखरे कि उसे फांसी दी जाने के समाचार की पहली चोट जब हल्की पड़ गयी तो उस अनिवार्य चोट को सह्य मजाक बना डालने के लिए पंजाब की एक प्रमुख महिला कह बैठीं- 'आज जाने देश की कितनी महत्वाकांक्षी कुमारियों के हृदय विधवा हो गए होंगे।' भगत सिंह देश के युवक-युवतियों के स्वप्नों का आदर्श बन गया था। लोग उस के रूप को भी उसकी कीर्ति की छाया में ही देखने लगे। कालिज के दिनों में भगत सिंह को बुध्दू बनाने में मजा आता था। मैं स्वयं भी काफी बुध्दू बनता रहा हूं। हम सभी को किसी न किसी समय बुध्दू बनना ही पड़ता था। एक समय खिलवाड़ का साधन भगत सिंह अपनी कर्मशीलता और निष्ठा से आज गौरव का कारण बन गया है। इसके अतिरिक्त कितनी ही रहस्यमय दंतकथाओं ने भी भगतसिंह की स्मृति को लपेट लिया है।
      आखिर भगत सिंह के हृदय में क्रांति की भावना और प्रवृत्ति इतनी उग्र क्यों थी? यहां क्रांति की भावना और शूरवीरता या साहस को अलग-अलग रखकर बात करना चाहता हूं। भगत सिंह क्यों विशेष बेचैन और उग्र जान पड़ता था... ? मैं समझता हूं इसके कारण उस की परिस्थितियों में खोजे जा सकते हैं।
      भगत सिंह के अधिकांश चित्रों में सिर पर केश पगड़ी नहीं हैट दिखायी देता है। नाम में 'सिंह' जुड़ा रहने से पंजाब से बाहर के लोग उसे प्राय: राजपूत ठाकुर समझ लेते हैं। भगत सिंह का जन्म सिख परिवार में हुआ था। अब तो शायद उसके छोटे भाइयों में से किसी के भी सिर पर केश नहीं हैं। सिख संप्रदाय में भी हिंदुओं की तरह ब्राह्मणों और खत्रियों की कई उपजातियां हैं। भगत सिंह का परिवार साधारण किसान था, जिसे जाट कहा जाता है। भगत सिंह और उनके पिता सरदार किशन सिंह के नाम के साथ सरदार की उपाधि जुड़ी देख कुछ लोग इस शब्द को उनके वंश की उपाधि ही समझ लेते हैं। ऐसी कोई बात नहीं है। पंजाब में प्रत्येक सिख सरदार पुकारा जाता है ठीक वैसे ही जैसे कि निरक्षर ब्राह्मण भी पंडित पुकारे जाते हैं। भगत सिंह को कभी किसी ऐतिहासिक पुरातन महापुरुष से अपने वंश का संबंध जोड़ने का गर्व करते नहीं सुना।
      भगत सिंह के परिवार का संप्रदाय सिख था परंतु सिख सांप्रदायिकता के प्रति इस परिवार में कोई रूढ़िवादी आस्था नहीं थी। भगत सिंह के पिता से मेरा घनिष्ट परिचय रहा है। उसके दादा को भी जानता हूं। सिर पर केश होने के बावजूद यह लोग सिख की अपेक्षा आर्यसमाजी ही अधिक थे। भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह तो सामाजिक प्रश्नों पर सांप्रदायिकता की उपेक्षा कर उन्हें केवल राजनैतिक दृष्टि से ही देखते थे। कांग्रेस में वे रहे तो सदा ही परंतु रहे असंतुष्ट आलोचक के रूप में वामपक्ष की ओर। सरदार किशन सिंह, आर्यसमाज के समाज-सुधार के कार्यक्रमों में काफी दिलचस्पी रखते थे। लाहौर में आर्यसमाज का वार्षिक उत्सव होन पर वहां अवश्य दिखाई दे जाते। यह शायद इसलिए कि पुराने सहयोग के कारण आर्यसमाज के कार्यकर्ताओं से उन के व्यक्तिगत संपर्क चले आते थे। किसी सांप्रदायिक अनुष्ठान, पूजापाठ, हवन-  संध्या के प्रति उन में रुचि नहीं देखी। दादा अर्जुन सिंह जी जरूर धार्मिक अनुष्ठान के प्रति निष्ठा रखते थे परंतु किस अनुष्ठान के प्रति?
      सन् 1925 के जाड़ों की बात है। सरदार किशन सिंह जी एक इन्श्योरेंस कंपनी की एजेंसी कर रहे थे। उनका दफ्तर लाहौर में लुहारी दरवाजे के भीतर बाजार में दुमंजिले पर था। जब यह जगह मौजूद थी तो भगत सिंह के मित्रों को कोई दूसरा मकान किराये पर लेने की जरूरत क्या थी? उस समय जोरू-जाता किसी के था ही नहीं। सरदार किशन सिंह जी एजेंसी तो जरूर लिए थे परंतु उन दिनों अधिक धन कमा सकने की आशा में उनकी रुचि खेती और दूध विक्रय की ओर ही अधिक थी। वे प्राय: सांडा गांव में रहते थे। एजेंसी का यह दफ्तर हम लोगों के लिए आराम का डेरा बना हुआ था।
      मैं उन दिनों लाहौर के नेशनल स्कूल में पढ़ा रहा था। नेशनल कालिज समाप्त होकर केवल नेशनल हाईस्कूल ही रह गया था। भगत सिंह अनिच्छा से थोड़ा बहुत समय घर के कारोबार में लगाता, शेष समय पढ़ता और गुप्त संगठन के लिए भूमि तैयार करने में लगा रहता। सुखदेव कभी लायलपुर अपने घर चला जाता। वहां उसके परिवार ने उसे आटे की एक चक्की लगवा दी थी। लाहौर आता तो भगत सिंह के साथ ही बना रहता। हमारे सहपाठी झंडा सिंह और जयदेव गुप्त भी वहीं रहते थे। झंडा सिंह 'गांधी खद्दर भंडार' में काम कर रहा था और उसी में जुटा रहा। जयदेव गुप्त सरदार के बीमे के काम में सहयोग दे रहा था। खाना हम लोग किसी तंदूर पर खा लेते और दफ्तर में बिछी दरी पर बिस्तरा लगा कर रात काट देते। दफ्तर में मेज-कुर्सी मौजूद होने से पढ़ने लिखने की भी सुविधा थी।
      एक दिन स्कूल में छुट्टी थी। दूसरे लोग मकान पर मौजूद नहीं थे। मैं अपनी सनक में मेज पर बैठा कोई लेख या कहानी लिख रहा था। मेज के नीचे टीन की क्या चीज पड़ी है, यह खयाल न कर उस पर जूते जमा कर रख लिए थे। संभव है अचेतन रूप से यही धारणा रही हो कि रद्दी की टोकरी के तौर पर कोई डिब्बा है। लिखते समय विचारों को ठेलने के लिए मेज के नीचे उस टीन की चीज को जूते से एड़ दिए जा रहा था।
      जीने पर भारी कदमों से धम-धम करते हुए एक वृध्द सिख सज्जन अपने ग्रामीण वेश में ऊपर दफ्तर में आ गए। मैंने एक दफे नजर उठा कर उनकी ओर देखा और लिखने में तन्मय रहा। सरदारजी के ऐसे अनेक संबंधी गांवों से आते-जाते रहते थे। इन सज्जन की दाढ़ी खूब प्रशस्त, बर्फ की तरह श्वेत और चेहरा खूब तेजोमय गुलाबी रंग का था। मैंने उन की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। आगंतुक भी मुझ से आदर की प्रतीक्षा न कर एक कुर्सी खींच कर चुपचाप दीवार के पास बैठ गए। मैं मालिक बना बैठा लिखता रहा और मेज के नीचे टीन की चीज पर जूते की ठोकरें भी जमाता रहा।
      अचानक वजनी गालियों से भरी एक करारी डांट सुन कर आंख उठा कर देखा कि वयोवृध्द भव्य मूर्ति की आंखें लाल और चेहरा क्रोध से तमतमा उठा है और वे हाथ में थमी लाठी को फर्श पर ठोक रहे हैं।
      ''गधा, उल्लू, नास्तिक, बदमास, सिर तोड़ दूंगा...।'' उन के हाथ की लाठी मेरे सर पर पड़ा ही चाहती थी। वृध्द ने अपने आवेश को कठिनता से वश में कर मेज के नीचे संकेत करते हुए फटकारा ''उल्लू, यही तेरी तमीज है?''
      मेज के नीचे झांक कर देखा तो अपने जूतों के बीच पाया एक औंधा पड़ा हवनकुंड। सब कुछ समझ में आ गया। उपेक्षा के कारण पहचानने में भूल हुई थी। भगत सिंह से सुन रक्खा था कि दादा जी नित्य हवन करते हैं। जहां जाते हैं, पोटली में हवनकुंड और हवन सामग्री साथ बांध ले जाते हैं।
      भगत सिंह के दादा सरदार अर्जुन सिंह की सांप्रदायिक आस्था वैदिक कार्य के आर्यसमाजी ढंग की थी। सिख परिवार में पैदा होकर, भगवान द्वारा सिर पर लाद दिए गए संप्रदाय की अवहेलना करके जो व्यक्ति अपनी बुध्दि से किसी दूसरे संप्रदाय को तर्क संगत समझ कर स्वीकार कर लेता है, वह प्रकृति से विचार स्वतंत्राता चाहने वाला और अपने ज्ञान की सीमा तक क्रांतिकारी ही होगा। भगत सिंह की इस पारिवारिक परिस्थिति का प्रभाव उसके मानसिक विकास पर पड़ना अनिवार्य था। सरदार अर्जुन सिंह न केवल व्यक्तिगत रूप से ही अपने धार्मिक विचारों के अनुसार आचरण करते थे बल्कि अपने गांव में भी बिरादरी और बस्ती के विरोध की परवा न कर आर्यसमाज का जलसा और प्रचार करने के लिए लोहा लेते रहते थे।
      भगत सिंह के परिवार का पुराना स्थान पंजाब के होशियारपुर जिले में था। चिनाब नदी की नहर बन जाने पर लायलपुर के रेतीले जिले में नई बस्ती बसने लगी। यह लोग अपने पैतृक स्थान में खेती की भूमि का अभाव अनुभव कर लायलपुर के एक गांव में आ बसे।
      भगत सिंह से इस गांव की एक बड़ी विचित्रा घटना सुनी। दादा अर्जुन सिंह जी के गांव की भूमि तम्बाकू की उपज के लिए बहुत अनुकूल है परंतु गांव में पूरी आबादी सिखों की होने के कारण वहां तम्बाकू की खेती नहीं होती थी। सरदार अर्जुन सिंह इस रूढ़िवाद या कुसंस्कार को कब तक सहते जाते? उन्होंने अपने खेतों में तम्बाकू बो दिया। गांव भर में पंचायतें हुर्इं पर वे डटे रहे। फसल तैयार हो जाने पर तम्बाकू घर में जमा भी कर लिया। खेतों तक तम्बाकू का रखना एक बात थी पर उसका एक सिख के घर में रख लिया जाना सिख बिरादरी किसी तरह न सह सकती थी। सरदारजी को बिरादरी से अलग कर दिया गया। सिख बिरादरी में हुक्के का तो प्रश्न ही नहीं उठता इसलिए सरदारजी का पानी और उनसे व्यवहार बंद  हो गया। सरदारजी अपनी बिरादरी को तर्क द्वारा समझाने की विफल चेष्टा करते रहे।
      एक दिन उस तम्बाकू का ग्राहक भी आ पहुंचा। तम्बाकू बिक गई। मुनाफा घर में आ गया। अब सरदारजी ने बिरादरी से कहा ''मैं अपना अपराध स्वीकार करता हूं कि मैंने अति अपवित्र वस्तु को छुआ और अपने घर में रखा परंतु अब वह मेरे घर से निकल  चुकी है। घृणित से घृणित वस्तु को छू कर भी सफाई कर लेने से मनुष्य पवित्र हो जाता है। गुरुओं की आज्ञा है कि कोई व्यक्ति, अछूत या मुसलमान भी 'अमृत छक' कर सिख धर्म में दीक्षित हो सकता है। आप जिस तरह कहें, मैं अपने मकान की शुध्दि करने को तैयार हूं।'' सरदारजी फिर बिरादरी में शामिल हो गए। अपने मित्रों को उन्होंने समझाया ''जहां तर्क नहीं चलता वहां उदाहरण काम देता है। मेरी बिरादरी के सामने यह उदाहरण तो है कि तम्बाकू जैसे निषिध्द पदार्थ को छू लेने वाला व्यक्ति भी गुरुओं की आज्ञा द्वारा फिर पवित्र हो सकता है। इतनी सी बात पर मैं आयु भर के लिए बिरादरी से अलग हो जाऊं यही क्या तर्कसंगत है?''
      उपरोक्त घटना से यह स्पष्ट है कि रूढ़िवाद से मुक्त पारिवारिक वातावरण में भगत सिंह ने तर्क, विद्रोह और साहस की दीक्षा स्वाभाविक रूप से पाई थी। भगत सिंह के परिवार की आर्यसमाज के प्रति अनुरक्ति विचार-स्वतंत्रता और क्रांति की ओर प्रवृत्ति के कारण ही थी। आज आर्यसमाज के आंदोलन और संगठन ने मठ और रूढ़िवाद का जैसा रूप धारण कर लिया है, उससे उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं शताब्दी के आरंभिक काल के आर्यसमाजियों की भावना का अनुमान ठीक-ठीक नहीं हो सकता; जैसे कि आज अमरीकन और ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की ईसाइयत को देख कर रोमन साम्राज्य के समय ईसाई धर्म द्वारा किए गए परलोक के विश्वास के सहारे नीरु के दमन और अत्याचार के विरुध्द लड़ने वाले ईसाई दासों और गरीब इसाई लोगों की मनोभावना का अनुमान नहीं किया जा सकता।
      उस समय भी आर्यसमाजी आंदोलन का रूप सांप्रदायिक जरूर था। वह वैदिक धर्म पुन: स्थापना की घोषणा करता था। वैदिक धर्म की पुन: स्थापना की पुकार का अर्थ मुख्यत: हिंदू संप्रदाय को असंगत, रूढ़ियों, कुसंस्कारों और मिथ्या विश्वासों से मुक्त करना था। उसका कार्यक्षेत्रो सांप्रदायिक सीमाओं के भीतर प्रगतिवादी और क्रांतिकारी भी था। उस समय आर्यसमाज के आंदोलन का विशेष रुझान सामाजिक समस्याओं की ओर था। शिक्षा-प्रचार, विधवा-विवाह, जन्म से वर्ण-व्यवस्था की धारणा को तोड़ना और अछूत समझी जाने वाली जातियों के लिए मनुष्यता के अधिकारों की मांग इस आंदोलन के प्रमुख भाग थे। इन प्रगतिशील भावनाओं का स्वाभाविक परिणाम विदेशी दासता से असंतोष भी हुआ। सामाजिक प्रगति के पथ पर कदम रखने से व्यक्ति राजनैतिक दृष्टि से सचेत हुए बिना नहीं रह सकता। यही कारण था कि पंजाब में आर्यसमाज द्वारा सामाजिक  सुधार की चेतना फैलने के साथ-साथ ही विदेशी दासता के विरोध की चेतना भी फैलने लगी। उस समय पंजाब के प्राय: सभी राजनैतिक कार्यकर्ता लाला हरदयाल, अम्बाप्रसाद सूफी, लाला लाजपत राय और अजीत सिंह आदि 'आर्यसमाजी विचार स्वतंत्रता' द्वारा प्रभावित थे। 1914-1915 लाहौर षडयंत्र के मामले में भाई परमानंदजी आदि भी आर्यसमाज की प्रगतिशील चेतना की ही उपज थे।(क्रमशः)

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