शनिवार, 29 जनवरी 2011

जेएनयू छात्र प्रतिवाद का स्वर्णिम पन्नाः इंदिरा गांधी वापस जाओ


( जेएनयू कुलपति के ऑफिस के सामने प्रतिवाद करते हुए छात्र)
     जेएनयू में रहते हुए अनेक सुनहरे पलों को जीने का मौका मिला था। जेएनयू के पुराने दोस्तों ने काफी समय से एक फोटो फेसबुक पर लगाया हुआ है। यह फोटो और इसके साथ जुड़ा प्रतिवाद कई मायनों में महत्वपूर्ण है। छात्र राजनीति में इस प्रतिवाद की सही मीमांसा होनी चाहिए। उन छात्रों को रेखांकित किया जाना चाहिए जो पुलिस लाठाचार्ज में घायल हुए। उन छात्रनेताओं की पहचान की जानी चाहिए जो नेतृत्व कर रहे थे। उन परिस्थितियों का मूल्यांकन भी किया जाना चाहिए जिसमें यह प्रतिवाद हुआ था।
संभवतः 30 अक्टूबर 1981 का दिन था वह। इस दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व.श्रीमती इंदिरागांधी जेएनयू में आयी थीं। याद करें वह जमाना जब श्रीमती गांधी 1977 की पराजय के बाद दोबारा सत्ता में 1980 में वापस आयीं। जेएनयू के छात्रों के प्रतिवाद का प्रधान कारण था कि आपातकाल में लोकतंत्र की हत्या में वे अग्रणी थीं,जेएनयू के छात्रों के दमन में भी वे अग्रणी थीं। स्कूल आफ इंटरनेशनल स्टैडीज के तत्कालीन डीन के.पी मिश्रा ने उन्होंने स्कूल के 25 साल होने पर बुलाया था,छात्रों ने आमसभा में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास करके उनके आने का विरोध किया था। मैं उस समय कौंसलर था।
      छात्रसंघ का एक प्रतिनिधिमंडल वी.भास्कर ,अध्यक्ष छात्रसंघ के नेतृत्व में तत्कालीन कुलपति नायडुम्मा को छात्रों के विरोध और प्रतिवाद से अवगत करा चुका था। इसी बीच में छात्रसंघ के चुनाव आ गए और 22 अक्टूबर1981 को नयी लीडरशिप आ गयी जिसमें सारा नेतृत्व एसएफआई और एआईएसएफ के हाथ में अमरजीत सिंह सिरोही अध्यक्ष ,अजय पटनायक,महामंत्री,आर.वेणु उपाध्यक्ष,सोनिया गुप्ता सहसचिव थीं। रोचक बात यह थी कि मैं उपाध्यक्ष का चुनाव 18 वोट से हार गया था। दो-तिहाई बहुमत से एसएफआई-एआईएसएफ मोर्चा जीता था।
     चुनाव में श्रीमती गांधी के प्रतिवाद का सवाल प्रमुख सवाल था और नये नेतृत्व पर इसकी जिम्मेदारी थी। मैं उस समय एसएफआई का यूनिट अध्यक्ष और राज्य का उपाध्यक्ष था। कैंपस में श्रीमती गांधी के आगमन के खिलाफ जितना गहरा आक्रोश मैंने उस समय देखा था वह आज भी जेएनयू छात्रों की प्रतिवादी लोकतांत्रिक भावनाओं की यादों को ताजा कर रहा है। सारा कैंपस श्रीमती गांधी के खिलाफ प्रतिवाद पर एकमत था। मुझे याद है कर्मचारियों का जिस तरह का समर्थन हमें मिला था वह बहुत महत्वपूर्ण था। के.पी.मिश्रा-नायडुम्मा की लॉबी को कैंपस में अलग-थलग करने में हमें जितना व्यापक समर्थन मिला था उसने छात्रों के हौसले बुलंद कर दिए थे।

(श्रीमती इंदिरा गांधी के आगमन का विरोध करते हुए जेएनयू छात्र)    
याद पड़ रहा है कि श्रीमती गांधी के भाषण को दिल्ली के किसी आखबार ने हैडलाइन नहीं बनाया था सभी अखबारों में एक ही बड़ी खबर थी जेएनयू के छात्रों का प्रतिवाद और मुखपृष्ठ पर लाठीचार्ज की खबरें,लाठीचार्ज के बाद छात्रनेताओं की गिरफ्तारी और कैंपस में जो फूलों के गमले टूटे थे उसकी खबरें।
    दूरदर्शन पर श्रीमती गांधी के भाषण के अंश भी दिखाए गए थे जिसमें वे भाषण दे रही थीं और पृष्ठभूमि में हजारों छात्रों-कर्मचारियों के कंठों से निकला एक ही नारा गूंज रहा था ' इंदिरा गांधी वापस जाओ।' कुल मिलाकर 15 मिनट उन्होंने भाषण दिया और भाषण के दौरान सभास्थल पर अंदर प्रत्येक 30 सैकिण्ड में एक छात्र उठ रहा था और नारा लगा रहा था 'इंदिरा मुर्दाबाद','इंदिरा गांधी वापस जाओ।'
     छात्रसंघ का फैसला था कि इस समारोह का बहिष्कार करेंगे। साथ ही सभा के पण्डाल में जाकर प्रत्येक 5 सीट के बाद हमारा एक छात्र रहेगा जो उनके भाषण के दौरान उठकर प्रतिवाद  करेगा। तकरीबन 30 छात्रों की उस दौरान गिरफ्तारी हुई थी। समूचे पण्डाल में पुलिस ही पुलिस थी कुछ शिक्षक और अधिकारी भी थे। पुलिस की सारी चौकसी भेदकर छात्रों ने पण्डाल में प्रवेश किया था,सभी परेशान थे कि आखिरकार भीतर कैसे जाएंगे। लेकिन हम लोगों ने किसी तरह सेंधमारी करके छात्रों को अंदर घुसेड़ने में सफलता हासिल कर ली थी। जब श्रीमती गांधी अंदर भाषण दे रही थीं बाहर कई हजार छात्र-कर्मचारी एकस्वर से नारे लगा रहे थे। नारों का इतना जबर्दस्त असर और छात्रों-कर्मचारियों और प्रतिवादी शिक्षकों की ऐसी एकता जेएनयू के इतिहास में विरल थी।
     श्रीमती गांधी के कैंपस में आने के पहले से ही नारों से आकाश गूंज रहा था और जब वो आई तो पहलीबार इंटरनेशनल स्टैडीज के सामने और जेएनयू वीसी के ऑफिस के सामने से पुलिस की घेराबंदी को तोड़ने की एकजुट कोशिश आरंभ हुई और पुलिस का बर्बर लाठीचार्ज शुरू हुआ। मुझे याद है उस समय हिंसा छात्रों ने आरंभ नहीं की थी। जेएनयू के दोनों गेट पर छात्र और कर्मचारी प्रतिवाद कर रहे थे।हरबंस मुखिया आदि कुछ शिक्षक भी उसमें शामिल थे। नारेबाजी चल रही थी स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टैडीज के सामने और वीसी ऑफिस के सामने। अचानक पुलिस ने नारे लगाते छात्रों को जबर्दस्ती ठेलने की कोशिश की थी इंटरनेशनल स्टैडीज के सामने और फिर लाठीचार्ज किया जिसमें मुझे पीटते हुए पुलिस ने सबसे पहले गडढे में गिरा दिया उसके बाद छात्रों ने जमकर प्रतिवाद किया।
   वीसी ऑफिस के सामने वहां सिरोही छात्रसंघ के अध्यक्ष के रूप में नेतृत्व कर रहे थे उन्होंने श्रीमती गांधी की कार पर लंबी छलांग लगाई और वे किसी तरह 6-7 मीटर लंबी जंप के बाद श्रीमती गांधी की गाड़ी के सामने सारी सुरक्षा व्यवस्था को तोड़कर जाकर गिरे ,उन्हें पुलिस ने पकड़ा।दोनों ओर तेज लाठीचार्ज हुआ था,200 से ज्यादा छात्रों को चोटें आईं। अनेक को गिरफ्तार करके पुलिस ले गई।
जेएनयू में प्रतिवाद का यह शानदार दिन था।मुझे याद है इंटरनेशनल स्टैडीज के सामने हम सैंकड़ो छात्रों के साथ प्रतिवाद कर रहे थे,मेरे साथ सुहेल हाशमी भी थे, मैं पुलिस की लाठी खाने से डर रहा था,उन्होने मुझे ठेलकर आगे किया और कहा डरो मत,मैंने उस दिन के लिए नई ब्लैक शर्ट बनवायी थी,छात्र ब्लैक बिल्ले लगाए हुए थे। पुलिस की पिटाई से मेरी शर्ट फट गयी, जिस समय पहली लाठी मेरे ऊपर पड़ी थी छात्रों में तो जबर्दस्त आक्रोश की लहर दिखी ही थी साथ ही सबसे आगे आकर हरबंस मुखिया साहब ने चीत्कार करते हुए प्रतिवाद किया था। मजेदार बात यह थी कि मैं उपाध्यक्ष का चुनाव हारा था। वेणु जीता था। वह कहीं नहीं दिख रहा था। प्रतिवाद के बाद नेताओं और छात्रों को पुलिस जब पकड़कर ले जा रही थी तो संभवतः वह पीछे से किसी तरह जाकर गिरफ्तार छात्रों में शामिल हो गया, उस समय उसके फ्री थिंकर्स दोस्तों ने भेजा कि जाओ वरना नाक कट जाएगी। हमारे संगठन का निर्णय था कि मैं गिरफ्तारी नहीं दूँगा बाहर रहूँगा लेकिन पुलिस वाले सबसे पहले लाठीचार्ज करते हुए मुझे ही पकड़कर ले गए।याद पड़ रहा है जिस समय वे पीट रहे थे उस समय एक थानेदार ने मुझे पिटने से बचाया,वह थानेदार जानता था मुझे । क्योंकि उसका एक भाई हरियाणा में एसएफआई करता था।वरना उसदिन मैं बहुत पिटता। लेकिन मुझे पुलिस लाठी खाने के लिए आगे ठेलने के लिए मैं आजतक सुहेल को याद करता हूँ।
इस प्रतिवाद का शानदार पक्ष था कुलपति का लाठीचार्ज के लिए लिखित माफी मांगना और श्रीमती गांधी को बुलाने के फैसले पर खेद व्यक्त करना। जेएनयू में इसके पहले किसी कुलपति ने अपने फैसले पर इस तरह दुख व्यक्त नहीं किया था। यह हमारे लोकतांत्रिक आंदोलन की सफलता थी कि विश्वविद्यालय को अपने फैसले पर अफसोस जाहिर करना पड़ा। सारे छात्रनेताओं को तत्काल रिहा किया गया और सारे मामले वापस लिए गए। यह सब कुछ हुआ अहिंसक ढ़ंग से।

2 टिप्‍पणियां:

  1. कालेज और विश्वविद्यालय क्या राजनीति से दूर रहें? आज ओस्मानिया विश्वविद्यालय की हालत देख कर तो लगता है कि छात्रों के भविष्य से खेला जा रहा है। इसी प्रकार १९६८-६९ में छात्रों के जीवन एक साल बेकार गया था।

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  2. Chaman Lal जिस घटना और फोटो पर चर्चा चल रही है, उसका एक गवाह मैं भी हूँ फोटो में दिखाये ग्रुप के आस पास ही मैं भी था और जब पुलिस ने लाठी चार्ज किया तो भागते हुए मेरा चश्मा गिरा और तब कद्दावर और मजबूत y k रंजन ने मुझे उठा कर R K पुरम के पास पुलिस के दायरे के बाहर छोड़ा,एकाध लगी पर ज्यादा नहीं ,इससे पहले 1979 में JNU के रामपाल राणा और मनमोहन के साथ,जो वहाँ faculty में जा चुके थे,Hardwari लाल के खिलाफ प्रदर्शन में लठियाँ खाई थी, चश्मा वहाँ भी गिरा और हिन्दी के प्रो. ने उठा कर बाद में दिया, ये इस संघर्ष की अगुआई प्रो॰ ओ पी ग्रेवाल और प्रो॰ दहिया कर रहे थे, जो बाद में कुरुक्षेतर विशवविद्याल्य के VC भी हुए

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