सोमवार, 10 जनवरी 2011

स्वजनहाराओं का क्रंदन और गूंगा मुख्यमंत्री

    लालगढ़ में स्वजनहाराओं का क्रंदन और बर्बरता चरम पर पहुँच गए हैं। राज्य में स्वजनहाराओं की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। लगता है इसबार का चुनाव स्वजनहाराओं के क्रंदन के प्रतिवाद में लड़ा जाएगा। खबरों के अनुसार लालगढ़ में 7 मार्च को बड़े पैमाने पर हिंसा हुई है। इसमें अब तक 7 लोग मारे गए हैं और 18 घायल हुए हैं। यह सर्वहारा संरक्षकों की पराजय का संकेत है। लज्जा की बात है कि मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को लालगढ़ की 7 मार्च की हिंसा ने उद्वेलित नहीं किया है। वे 24 घंटे बाद बोले ‘ निंदा’ करता हूँ। उनकी ‘निंदा’ में वह जोर और आक्रोश नहीं था जो एक मुख्यमत्री की भाषा में होना चाहिए। लगता है उन्हें हिंसा में मारे गए लोगों की खबरें बेचैन नहीं करतीं ? यदि बैचैनी होती और स्वजनहाराओं की पीड़ा का उन्हें एहसास होता तो वे खबर सुनकर दौड़कर लालगढ़ क्यों नहीं गए ? लालगढ़ की हिंसा की खबर सुनकर ममता जा सकती है, कांग्रेस के नेता जा सकते हैं,मुख्यमंत्री क्यों नहीं गए ? मुख्यमंत्री घायलों से मिलने कोलकाता में अस्पताल भी नहीं गए ? मुख्यमंत्री अच्छी तरह जानते हैं जिन पर गोली चलाई गई और जो मारे गए हैं वे माकपा के हमदर्द हैं जबकि मारने वाले माकपा के हथियारबंद कॉमरेड हैं। कम से कम माकपा के स्वजनों के नाते तो मुख्यमंत्री को कठोर भाषा बोलना चाहिए। माकपा को यह सोचना चाहिए कि यह कैसी पार्टी तैयार हुई है जो अपने ही कॉमरेडों और हमदर्दों को गोलियों से भून रही है। यह कैसा माओवाद के खिलाफ राजनीतिक प्रतिवाद है जिसमें गांव वालों को प्रति परिवार एक बच्चा हथियारबंद प्रशिक्षण के लिए देने के लिए कहा जा रहा है। क्या यह वही माकपा है जो एक जमाने में हथियारबंद जंग का रास्ता छोड़ चुकी थी। लालगढ़ में 7 मार्च को हुआ हत्याकांड भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन की महान त्रासद और अपमानजनक घटना है। माकपा को जान लेना चाहिए सशस्त्र जंग का मार्ग उन्हें संसद की गलियों से निकालकर जंगली बीहड़ों में ले जाएगा। माकपा को पहल करके उन अपराधियों को पुलिस को सौंपना चाहिए जो इस हत्याकांड में शामिल हैं। साथ ही उन्हें पार्टी से भी निकाला जाना चाहिए। माकपा ने अपनी इमेज रक्षा के लिए पीसीपीए के एक नेता दिलीप हांसदा का बयान माकपा नियंत्रित चैनलों '24 घंटा ’और ‘आकाश' पर शनिवार को दिखाया जिसमें पीसीपीए ने 7 मार्च की हिंसा की जिम्मेदारी ली है। यह नकली बयान है। 
    मुख्यमंत्री जानते हैं इस तरह की हिंसा होने पर पीडितों को आर्थिक और मेडीकल मदद देना राज्य की संवैधानिक जिम्मेदारी है। उल्लेखनीय है नंदीग्राम की घटना के बाद राज्य सरकार को राष्ट्रीय मानवाधिकार कमीशन ने पीडितों को सहायता राशि देने का आदेश दिया था। लालगढ़ की ताजा घटना के प्रसंग में भी यही किया जाना चाहिए।
   सवाल उठता है मुख्यमंत्री इतने हृदयहीन कैसे हो गए ? हिंसा की वे दो टूक ढ़ंग से निंदा क्यों नहीं कर पाते ? असल में,मन में विभाजन रखकर ,विचारधाराओं में बांटकर , तेरे-मेरे में बांटकर वाममोर्चे ने पश्चिम बंगाल में जो राजनीति की है उसका दुष्परिणाम है कि मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य हिंसा में मारे गए लोगों के प्रति समानभाव से अपनी सामान्य भाषा में निंदा का भावबोध भी खो चुके हैं।
   असल में मुख्यमंत्री की हृदयहीनता का स्रोत है ‘इलाकादखल’ की राजनीति। ‘इलाका दखल’ की राजनीति का मार्क्सवाद से कोई संबंध नहीं है,लोकतंत्र से कोई संबंध नहीं है, यह विशुद्ध रूप से फासिस्ट राजनीति है। लालगढ़ के जितने भी एपीसोड अभी तक टीवी पर आए हैं वे एक ही संदेश देते हैं कि लालगढ़ में इलाका दखल का पागलपन थमा नहीं है। इसके आतंक ने लालगढ़ की समूची जनता को घेर लिया है। माओवादी बर्बरता से बचाने के नाम पर जनता माकपा की बर्बरता में घिर चुकी है। लालगढ़ के समूचे मसले का संबंध न तो जमीन से है और न सुरक्षा से है और न औद्योगिकीकरण से है बल्कि इसका संबंध इलाकादखल से है। यह स्वजनों के खिलाफ अपराधियों की खुली जंग है। यह माकपा के अंदर पैदा हुए कुलीन अहंकारी मार्क्सवाद की पराजय और बर्बरता की अभिव्यक्ति हैं। माकपा के कुलीन अहंकारी जानते हैं कि मार्क्सवाद शॉर्टकट नहीं है। इसे बयानों ,आदेशों,जनतांत्रिक संरचनाओं और आम जनता के दिल को तोड़कर लागू नहीं किया जा सकता। मार्क्सवाद दखल करने का शास्त्र नहीं है। यह दिल जीतने और सामाजिक परिवर्तन का विज्ञान है। माकपा वाले जितना दखल करेंगे उतने बर्बर बनेंगे। अमानवीय बनेंगे। दखलतंत्र का लोकतंत्र ,मार्क्सवाद,उदारतावाद से कोई संबंध नहीं है। दखल करना बर्बरता है। इसे चाहे जो भी करे। 
शक्ति प्रदर्शन और जनतंत्र के नाम पर ''इलाका दखल'' का रास्ता अहर्निश वाचिक-कायिक हिंसा का रास्ता है। ''इलाका दखल'' के लिए हिंसाचार और दादागिरी जरूरी है। इसके विरोधी और समर्थक दोनों एक ही साथ नायक -खलनायक हैं।
     ‘इलाका दखल’ असल में भय की राजनीति है। भय की राजनीति जनतांत्रिक नहीं होती। भय में स्वाधीनताबोध संभव नहीं है। भय को समर्पण और पलायन की जरूरत होती है। भय में रहना चाहते हैं तो समर्पण कीजिए और भय से मुक्त रहना चाहते हैं तो पलायन कीजिए अथवा भय का सामना कीजिए, अपने को गोलबंद कीजिए। लालगढ़ में आज जो एकता सतह पर दिखाई दे रही है वह भयजनित एकता है। भयजनित एकता टिकाऊ नहीं होती। गरीबों के बीच में राजनीति करने के लिए सिर्फ हंगामे से काम चलने वाला नहीं है। गरीब आरंभ में यदि हंगामे को पहचान नहीं पाया है तो इसका यह निष्कर्ष नहीं निकालना चहिए कि वह आगे भी नहीं पहचानेगा। गरीब को अपने दोस्त और दुश्मन की मध्यवर्गीय नेताओं से ज्यादा गहरी पहचान होती है। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...