मंगलवार, 18 जनवरी 2011

फ्रेडरिक एंगेल्स की नजरों में 1857 का दिल्ली दखल

उस सम्मिलित शोरगुल में हम नहीं शामिल होंगे जिसके द्वारा उन सैनिकों की बहादुरी की तारीफ में, जिन्होंने हमला करके दिल्ली पर कब्जा कर लिया है, इस समय ब्रिटेन में जमीन-आसमान एक किया जा रहा है। आत्म-प्रशंसा के मामले में अंगरेजों का मुकाबला कोई भी कौम नहीं कर सकतीयहां तक कि फ्रांसीसी कौम भी नहीं, खास तौर से जब सवाल बहादुरी का हो। लेकिन सौ में से निन्यान्वे बार, तथ्यों का विश्लेषण होते ही, उनके शौर्य की समस्त वैभवपूर्ण कहानी एक अत्यंत साधारण घटना रह जाती है। हर समझदार व्यक्ति को उस ढंग से नफरत होगी जिससे ये अंगरेज बुजुर्गजो आराम से अपने घरों में रहते हैं और ऐसी हर चीज से पल्ला छुड़ाकर जोरों से दूर भागते हैं जिसमें सैनिक गौरव प्राप्त करने की दूर की भी संभावना होदूसरों के शौर्य का व्यापार करते हैं। वे यह दिखलाने की कोशिश कर रहे हैं कि दिल्ली के आक्रमण के समय जो पराक्रम दिखलाया गया था, उसमें उनका भी हाथ था। दिल्ली में जो पराक्रम दिखलाया गया, वह बड़ा जरूर थालेकिन किसी भी रूप में असाधारण नहीं था।
दिल्ली की तुलना अगर हम सेवास्तोपोल के साथ करें तो निस्संदेह हम सहमत होंगे कि हिंदुस्तानी सिपाही रूसियों की तरह नहीं थे; ब्रिटिश छावनी के खिलाफ उनका एक भी हमला इंकरमैन के हमलों की तरह का नहीं था; दिल्ली में टोटलेबेन जैसा कोई नहीं था; और, हिंदुस्तानी सिपाही जो व्यक्तिगत और कंपनी दोनों ही दृष्टि से अधिकतर मामलों में बहादुरी से लड़े थेएकदम नेतृत्वविहीन थे। न केवल उनके ब्रिगेडों और डिवीजनों का, बल्कि उनके बटैलियनों तक का कोई नेतृत्व नहीं था; इसलिए उनकी एकता कंपनियों की संगठित शक्ति से आगे नहीं जाती थी। उनमें उस वैज्ञानिक तत्व का एकदम अभाव था जिसके बिना कोई भी फौज आजकल असहाय होती है और किसी शहर की रक्षा का काम
सर्वथा निराशापूर्ण कार्य बन जाता है। फिर भी, संख्या और लड़ाई के उनके साधनों में जो अंतर था, जलवायु का मुकाबला करने की यूरोपियनों की अपेक्षा देशी सिपाहियों में जो अधिक क्षमता थी, दिल्ली के सामने पड़ी (अंगरेजी) फौजें कभी-कभी जिस अत्यंत कमजोर स्थिति में पहुंच जाती थींइस सबकी वजह से दोनों घेरों का, सेवास्तोपोल और दिल्ली के घेरों का, बहुत सा अंतर मिट जाता है और उनकी तुलना करना संभव हो जाता है। (इन कार्रवाइयों को घेरे कहना कैसा विचित्र लगता है!) हमला करके दिल्ली पर कब्जा करने के काम को हम असाधारण, अथवा अनोखे पराक्रम का काम नहीं मानतेयद्यपि यह सही है कि हर लड़ाई की भांति यहां भी व्यक्तिगत पराक्रम के कार्य निस्सदेह दोनों ही तरफ देखने को मिले थे। लेकिन इस बात को हम मानते हैं कि अंगरेजी फौजों की सेवास्तोपोल और बलकलावा के दरम्यान की अग्नि-परीक्षा की तुलना में, दिल्ली के सामने की एंग्लो-इंडियन फौजों ने कहीं अधिक लगन, चारित्रिक शक्ति, विवेक और कौशल का परिचय दिया है। इंकरमैन की घटना के बाद, रूस गई हुई अंगरेजी सेनाएं जहाजों पर बैठकर वापस लौटने के लिए तैयार और राजी थीं और बीच में अगर फ्रांसीसी न आ गए होते, तो निस्संदेह वे लौट आई होतीं। लेकिन, भारत में मौसम, उससे उत्पन्न होने वाली भयानक बीमारियां, संचार के साधनों की गड़बड़ियां, कहीं से जल्दी सैनिक सहायता आने की तमाम संभावनाओं का अभाव, संपूर्ण उत्तर भारत की हालतये सारी चीजें उनसे कहती थीं कि 'वापस चले जाओ!' और अंगरेजी फौजों ने इस कदम की उपादेयता पर विचार तो किया; लेकिन, इन तमाम कठिनाइयों के बावजूद, अपने मोर्चे पर वे डटी रहीं।
विप्लव जब अपने शिखर पर था, तब सबसे पहले जिस चीज की जरूरत थी, वह यह थी कि उत्तर भारत में एक द्रुतगामी सेना हो। केवल दो ही फौजें थीं, जिनका इस तरह से इस्तेमाल किया जा सकता था : हैवलॉक की छोटी सी फौज, जो जल्दी ही नाकाफी साबित हो गई थी, और वह फौज जो दिल्ली के सामने पड़ी हुई थी। ऐसी हालात में यह निर्विवाद है कि दिल्ली के सामने पड़े रहना और एक अभेद्य शत्रु के साथ व्यर्थ की लड़ाइयां करके अपनी शक्ति गंवाना एक सैनिक गलती थी। एक जगह निठल्ले पड़े रहने की जगह अगर वह फौज चलती-फिरती रहती, तो वह चार गुना अधिक उपयोगी होती। अगर वह गतिशील रहती तो दिल्ली को छोड़कर, उत्तर भारत को साफ कर लिया जा सकता था, और संचार मार्गों की फिर स्थापना हो जाती। अपनी शक्तियों को एक जगह इकट्ठा करने की विद्रोहियों की प्रत्येक कोशिश को असफल बना दिया गया होता, और, इस सबकी वजह से, एक स्वाभाविक और सरल परिणाम के रूप में, फिर दिल्ली का भी पतन हो जाता। यह सब निर्विवाद है। लेकिन राजनीतिक कारणों की मांग थी कि दिल्ली के सामने जो फौजी पड़ाव डाला गया था उसे न उठाया जाए। दोष हेडक्वार्टर (सदर दफ्तर) के उन लालबुझक्कड़ों को दिया जाना चाहिए, जिन्होंने फौज को दिल्ली भेजा था, न कि सेना की उस दृढ़ता को जो एक बार वहां पहुंच जाने के बाद उसने दिखलाई थी। साथ ही साथ, हमें यह बताना भी
नहीं भूलना चाहिए कि वर्षा ऋतु का इस फौज पर जितना असर पड़ने की आशंका थी, उससे कहीं कम असर उस पर पड़ा था। ऐसे मौसम में, सक्रिय सैनिक कार्रवाइयों के परिणामस्वरूप, आम तौर से जैसी बीमारियां फैलती हैं, अगर उनके आसपास की मात्रा में भी वहां वे फैली होतीं तो उस फौज का वापस हट आना, अथवा एकदम भंग हो जाना अपरिहार्य बन जाता। फौज की यह खतरनाक स्थिति अगस्त के अंत तक चलती रही थी। फिर इधर सैनिक सहायता आने लगी, और उधर विद्रोहियों के शिविर के आपसी झगड़े उन्हें कमजोर करते रहे। सितंबर के आरंभ में घेरे वाली गाड़ी आ गई और सुरक्षात्मक स्थिति आक्रमण की स्थिति में बदल गई। 7 सितंबर को पहली बैटरी (तोपखाने) ने गोलाबारी शुरू की और 13 तारीख की शाम को, काम में आने लायक दो दरारें (परकोटे में) पैदा हो गईं। अब हम देखें कि इस दरम्यान क्या हुआ था।
इस संबंध में अगर हम जनरल विल्सन द्वारा भेजी गई सरकारी रिपोर्ट पर भरोसा करेंगे, तो सचमुच भारी गलती के शिकार हो जाएंगे। यह रिपोर्ट लगभग उसी तरह से भ्रामक है जिस तरह क्रीमिया के अंगरेजों के सदर दफ्तर से जारी की जाने वाली दस्तावेजें सदा ही भ्रामक हुआ करती थीं। उस रिपोर्ट से कोई भी इनसान यह नहीं जान सकता कि वे दोनों दरारें कहां हैं, न कोई यही जान सकता है कि हमला करने वाली सेनाओं की क्या सापेक्ष स्थिति है और (मोर्चे पर) वे किस क्रम से लगाई गई हैं। जहां तक लोगों की निजी रिपोर्टों की बात है, तो निस्संदेह वे और भी अधिक भ्रामक हैं। लेकिन, सौभाग्य से, इंजीनियरों और तोपखाने की बंगाल टुकड़ी के एक सदस्य ने जो कुछ हुआ था, उसकी एक रिपोर्ट बंबई गजट में दी है। यह रिपोर्ट उतनी ही स्पष्ट और कामकाजी है जितनी वह सीधी-सादी और अहंकाररहित है। यह अफसर भी उन कुशल वैज्ञानिक अधिकारियों में से एक है जिन्हें सफलता का प्राय: संपूर्ण श्रेय दिया जाना चाहिए। क्रीमिया के पूरे युध्दकाल में एक भी ऐसा अंगरेज अफसर नहीं मिल सका था जो इतनी समझदारी की रिपोर्ट लिख सकता जितनी यह है। दुर्भाग्य से यह अफसर हमले के पहले ही दिन घायल हो गया और फिर उसका पत्र वहीं खतम हो गया। इसलिए, उसके बाद की घटनाओं के संबंध में हम अब भी बिलकुल अंधकार में हैं।
अंगरेजों ने दिल्ली की सुरक्षा की इतनी मजबूत व्यवस्था कर ली थी कि कोई भी एशियाई सेना घेरा डालती, तो वे उसका मुकाबला कर लेते। हमारी आधुनिक धारणाओं के अनुसार, दिल्ली को मुश्किल से ही किला कहा जा सकता है, उसे बस एक ऐसी जगह कहा जा सकता है जो किसी फील्ड सेना (सफरी सेना) के हमले का मुकाबला कर सकती है। उसकी पक्की दीवाल (फसील) 16 फुट ऊंची और 12 फुट चौड़ी है, उससे ऊपर 3 फुट मोटा और 8 फुट ऊंचा कमरकोटा है। कमरकोटे के अलावा, उसकी 6 फुट दीवाल खुली हुई है उसके नीचे ढाल भी नहीं है जिससे उसकी रक्षा हो सके। उस पर सीधे-सीधे गोलाबारी की जा सकती है। इस पक्के प्राचीर के संकरेपन की वजह से उसके बुर्जों और
मारटेलो लाठों (रूड्डह्मह्लद्गद्यद्यश ञ्जश2द्गह्मह्य) के अलावा और कहीं तोपों को रख पाना भी असंभव है। ये बुर्ज और लाठें फसील का बचाव करती थीं, लेकिन बहुत ही कम। इस 3 फुट मोटे पक्के कमरकोटे को घेरा डालने वाली तोपों के जरिए आसानी से तोड़ डाला जा सकता है (फील्ड की तोपों से भी ऐसा किया जा सकता है)। इसलिए बचाव करने वालों की तोपों को, और खास तौर से खाई के पाश्र्वों पर लगी हुई तोपों को खामोश कर देना बहुत आसान था। फसील और खाई के बीच आगे निकला हुआ एक चौड़ा भाग अथवा समतल मार्ग है जिससे एक उपयोगी दरार पैदा करने में सुविधा हो सकती है। इन परिस्थितियों में उसमें फंस जाने वाली किसी सेना के लिए मरघट बनने के बजाए, वह खाई उन सैनिक दस्तों के पुनर्गठित होने के लिए विश्राम-स्थल बन गई थी जो ढलुए किनारे पर चढ़ते समय अस्त-व्यस्त हो जाती थी।
घेरे के नियमों के अनुसार एक ऐसे स्थान पर, जिसके चारों तरफ खंदकें हैं, धावा करना उस वक्त भी पागलपन होता जिस वक्त कि उसकी पहली शर्त, यानी जगह को चारों तरफ से घेरने के लिए पास में आवश्यक फौजें होने की शर्त भी, पूरी हो गई होती। रक्षात्मक तैयारियों की जो स्थिति थी, रक्षकों की जो असंगठित और पस्तहिम्मती से भरी अवस्था थी, उसको देखते हुए हमले का जो तरीका अपनाया गया, उसके अलावा किसी भी दूसरे तरीके का अपनाया जाना एक अक्षम्य अपराध होता। शक्तिपूर्ण हमले के नाम से यह तरीका फौजी लोगों को अच्छी तरह ज्ञात है। रक्षात्मक मोर्चेबंदी जब ऐसी हो कि भारी तोपों के बिना उस पर हमला करना असंभव हो जाए, तब तोपखाने की मदद से उससे तुरत-फुरत निपट लिया जाता है; किले के अंदरूनी भाग पर गोलाबारी निरंतर जारी रखी जाती है, और ज्योंही दरारें इस लायक हो जाती हैं कि उनका इस्तेमाल किया जा सके, त्योंही हमले के लिए फौजें आगे बढ़ जाती हैं।
जिस मोर्चे पर हमला किया जा रहा था, वह उत्तर की तरफ था, यानी अंगरेजों के शिविर के एकदम सामने था। इस मोर्चे पर दो कोटे और तीन बुर्ज हैं। मध्य के (कश्मीरी गेट के) बुर्ज से वे थोड़े तिरछे कोण पर पड़ते हैं। उसका पूर्वी भाग, कश्मीरी गेट के बुर्ज से पानी के बुर्ज तक का भाग, अपेक्षाकृत छोटा है, और, कश्मीरी गेट और मोरी गेट के बुर्जों के बीच, पश्चिमी भाग के सामने, थोड़ा सा आगे बढ़ा हुआ है। कश्मीरी गेट के बुर्ज और पानी के बुर्ज के सामने का मैदान हलके जंगल, बाग-बगीचों, मकानों, आदि से घिरा हुआ है। सिपाहियों ने इसे साफ नहीं किया था। इस कारण हमलावरों को उससे मदद मिलती थी। (इसी चीज से इस बात का जवाब मिल जाता है कि वहां की तोपों के बिलकुल सामने भी अंगरेज अकसर देशी सिपाहियों का पीछा करते हुए कैसे उतनी दूर चले जाते थे। उस समय इस कार्य को बहुत बहादुरी का समझा जाता था, लेकिन, वास्तव में, जब तक उनको यह आड़ प्राप्त थी, तब तक इस तरह पीछा करने में मुश्किल से ही कोई खतरा था।) इसके अलावा, इस मोर्चे से लगभग 400 या 500 गज की दूरी पर, फसील के ही
आमने-सामने एक गहरा नाला था। सामने से हमला करने में इससे स्वाभाविक रूप से सहायता मिलती थी। नदी से अंगरेजों के बाएं बाजू को जबरदस्त सहारा तो मिलता ही था, लेकिन, इसके अतिरिक्त, कश्मीरी गेट और पानी के बुर्जों के बीच के हलके से उस उभार का आक्रमण के मुख्य लक्ष्य के रूप में चुनाव किया जाना भी बहुत सही था। साथ ही साथ, पश्चिम की फसील और बुर्जों के ऊपर एक बनावटी हमला भी किया गया। यह चाल इतनी कामयाब रही कि सिपाहियों की मुख्य शक्ति उसी दिशा में लग गई। काबुली गेट के बाहर के उपनगरों में, अंगरेजों के दाहिने पार्श्व पर हमला करने के लिए उन्होंने मजबूत सेना इकट्ठी कर ली। मोरी गेट और कश्मीरी गेट के बुर्जों के बीच की पश्चिम वाली फसील को अगर सबसे ज्यादा खतरा होता तब तो यह दाव एकदम सही और अत्यधिक कारगर हुआ होता। सक्रिय सुरक्षा के एक साधन के रूप में बाजू से घेरने वाली सिपाहियों की यह चाल बहुत बढ़िया रही होती; वैसी हालत में, आगे बढ़कर, हमला करने वाली प्रत्येक सैनिक टुकड़ी को पहले से ही यह सेना बाजू से दबा लेती। लेकिन, इस मोर्चे की पहुंच पूर्व की ओर कश्मीरी गेट और पानी के बुर्जों के दरम्यान की फसील तक नहीं हो सकी; और, इस तरह, उस पर कब्जा होने से रक्षा करने वाली फौजों का सबसे अच्छा भाग रणक्षेत्र के निर्णायक स्थान से दूर हट गया।
तोपों को लगाने के अड्डों के चुनाव, उनके निर्माण और हथियारों से उनको लैस करने का काम जिस तरह से किया गया था, और जिस तरह से उनका इस्तेमाल किया गया था, उसकी अधिक से अधिक प्रशंसा की जानी चाहिए। अंगरेजों के पास लगभग 50 तोपें और मॉर्टर थे जो अच्छी ठोस रक्षात्मक दीवालों के पीछे शक्तिशाली बैटरियों के साथ केंद्रित थे। सरकारी बयानों के अनुसार, जिस मोर्चे पर हमला किया जा रहा था, उस पर सिपाहियों के पास 55 तोपें थीं, लेकिन वे छोटे-छोटे बुर्जों और माटर्ेलों लाठों पर इधर-उधर बिखरी हुई थीं। वे मिलकर केंद्रित रूप से काम नहीं कर सकती थीं, और तीन फुट का जो रद्दी सा कमरकोटा था, उससे उनका मुश्किल से ही कोई बचाव होता था। इसमें कोई शक नहीं कि रक्षा करने वालों की तोपों को खामोश करने के लिए कुछ ही घंटे काफी हुए होंगे और उसके बाद करने के लिए फिर बहुत ही कम रह गया था।
8 तारीख को, फसील से 700 गज की दूरी से, बैटरी (तोपखाना) नं. 1 की 10 तोपों ने गोलाबारी शुरू की। जब रात आई, तो जिस नाले का पहले जिक्र किया गया है, उसे एक प्रकार की खंदक में बदल दिया गया। 9 तारीख को, बिना किसी प्रतिरोध के, इस नाले के सामने के टूटे-फूटे मैदान और मकानों पर कब्जा कर लिया गया; और 10 तारीख को बैटरी नं.2 की 8 तोपों के मुंह खोल दिए गए। यह बैटरी फसील से 500 या 600 गज के फासले पर थी। 11 तारीख को बैटरी नं. 3 नेजिसे किसी टूटी हुई जगह में, पानी के बुर्ज से 200 गज की दूरी पर, बहुत हिम्मत और होशियारी के साथ खड़ा किया गया थाअपनी 6 तोपों से गोले बरसाने शुरू किए और 10 भारी मॉर्टरों ने शहर पर गोलाबारी आरंभ कर दी।
13 तारीख की शाम को रिपोर्ट मिली कि दरारें पैदा हो गई हैंएक कश्मीरी बुर्ज के दाहिने बाजू की फसील में और दूसरी, पानी के बुर्ज के बाएं बाजू में, सामने की तरफ। सीढ़ियां लगा कर इन दरारों से ऊपर चढ़ा जा सकता है। फौरन हमले का हुक्म दे दिया गया। 11 तारीख को संकटग्रस्त दोनों बुर्जों के बीच के ढाल पर सिपाहियों ने जवाबी हमला करने की कोशिश की और, अंगरेजों की बैटरियों के सामने ही, लगभग 350 गज पर, लड़ाई के लिए एक खंदक तैयार कर ली गई। इसी अड्डे से, काबुली गेट के बाहर, बाजुओं से आक्रमण के लिए भी वे आगे बढ़े। लेकिन सक्रिय रक्षा के ये प्रयत्न बिना किसी एकता, योजना या उत्साह के किए गए थे। उनका कोई फल नहीं निकला।
14 तारीख की सुबह अंगरेजों की 5 सैनिक टुकड़ियां हमले के लिए आगे बढ़ीं। एक, दाहिनी तरफ, काबुली गेट के अड्डे पर कब्जा करने के लिए और,इसमें सफलता मिलने पर, लाहौरी गेट पर हमला करने के लिए। शेष एक-एक टुकड़ी हर दरार की तरफ गई, एक कश्मीरी गेट की तरफ बढ़ी जिसको उसे उड़ा देना था, और एक बतौर रिजर्व काम करने के लिए गई। पहली को छोड़ कर, ये सारी सैनिक टुकडियां सफल हुईं। दरारों की तो नाममात्र के लिए ही रक्षा की जा रहा थी, लेकिन फसील के पास के मकानों से किया जाने वाला प्रतिरोध बहुत जबरदस्त था। इंजीनियरों की टुकड़ी के एक अफसर और तीन साजर्ेंटों की बहादुरी के कारण (क्योंकि यहां वास्तव में बहादुरी दिखाई गई थी) कश्मीरी गेट को सफलतापूर्वक खोल दिया गया और, इस तरह यह सैनिक टुकड़ी भी अंदर घुसने में समर्थ हुई। शाम तक पूरा उत्तरी मोर्चा अंगरेजों के कब्जे में आ गया था। लेकिन जनरल विल्सन यहीं पर रुक गए। जो धुआंधार हमला किया जा रहा था, उसे बंद कर दिया गया, तोपों को आगे लाया गया और शहर के हर मजबूत मुकाम के खिलाफ उन्हें लगा दिया गया। शस्त्रागार पर हमला करके कब्जा करने की बात छोड़ दी जाए तो वास्तव में बहुत ही कम लड़ाई हुई मालूम होती है। विद्रोहियों की हिम्मत पस्त हो गई थी और वे भारी संख्या में शहर छोड़ कर चले गए। विल्सन शहर में सावधानी से घुसे, 17 तारीख के बाद उन्हें मुश्किल से ही किसी से लड़ना पड़ा। 20 तारीख को उस पर उन्होंने पूरा कब्जा कर लिया।
आक्रमण के संचालन के संबंध में हमारी राय जाहिर की जा चुकी है। जहां तक बचाव का सवाल है, तो जवाबी हमले करने की कोशिशों, काबुली गेट के पास बाजू से घेरने के प्रयत्न, जवाबी घातें, राइफल चलाने की खंदकें,ये सब चीजें बतलाती हैं कि युध्द संचालन की कुछ वैज्ञानिक धारणाएं सिपाहियों के अंदर भी प्रवेश कर गई थीं; लेकिन उन पर किसी प्रभावशाली ढंग से अमल न किया जा सका, क्योंकि या तो सिपाहियों को वे पर्याप्त रूप से स्पष्ट नहीं थीं, अथवा उन पर अमल करने लायक काफी शक्ति वे नहीं रखते थे। इन वैज्ञानिक धारणाओं की कल्पना स्वयं भारतीयों ने की थी, अथवा उन कुछ यूरोपियनों ने जो उनके साथ हैंइस बात का निर्णय करना निस्संदेह कठिन है। लेकिन एक चीज निश्चित है : ये कोशिशें, यद्यपि उन पर अमल ठिकाने से नहीं किया गया था, अपनी योजना
और तैयारी में सेवास्तोपोल की सक्रिया सुरक्षा की योजना और तैयारी से बहुत मिलती-जुलती हैं, और जिस तरह से उनको कार्यान्वित किया गया था, उससे मालूम होता है मानो किसी यूरोपियन अफसर ने सिपाहियों के लिए एक सही योजना तैयार कर दी थी, लेकिन सिपाही या तो उसे अच्छी तरह समझ नहीं पाए, या फिर संगठन और नेतृत्व के अभाव के कारण ये अमली योजनाएं उनके हाथों में महज कमजोर और बेजान कोशिशें बन कर रह गईं।
(5 दिसंबर 1857 के न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून, अंक 5188, में एक संपादकीय लेख के रूप में प्रकाशित हुआ।)
















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