मंगलवार, 2 नवंबर 2010

जॉर्ज सिंपसन- उसने अपनी जान क्यों ली ? - 4- समापन किश्त

परिवार के बारे में परिकल्पना : आत्महत्या का प्रयास करने वालों या आत्महत्या करने वालों का भावात्मक पैटर्न शैशव और प्रारंभिक बचपन में ही पारिवारिक संबंधों द्वारा निर्धारित हो जाता है। परिवार में समाजीकरण सभी के लिए कुंठा का स्रोत है। इसलिए आत्महत्या सब के लिए संभावित छुटकारा मार्ग है। आत्महत्या से जुड़े बाद के सामाजिक कारकों और प्रारंभिक भावात्मक बनावट के बीच संबंध खोजना जरूरी है।
इसके अलावा आत्महंतकों और आत्महत्या का प्रयास करने वालों के जीवनवृत्तों और उनके परिवार पालन-पोषण स्वरूप जैसे कि प्रजाति समूह, धार्मिक संबध्दता, आय समूह, परिवार आकार, परिवार में व्यक्ति आत्महंतक के स्थान, शिक्षा स्तर के बीच अंत:संबंध स्थापित करना जरूरी है।
आत्महत्या और राष्ट्रीयता : अलग-अलग देश में अलग-अलग आत्महत्या दर होती है। आंशिक रूप में यह अंतर रिकार्ड रखने में या महत्वपूर्ण आंकड़ों की क्वालिटी में अंतर के कारण हो सकता है। जर्मन प्रभाव वाले देशों और जापान में उच्च आत्महत्या दर है। जर्मनीय देशों में यह धर्म की वजह से हो सकता है। यहां लूथरवाद और काल्विनवाद के प्रभाव का विश्लेषण होना चाहिए। ये पाप भावनाओं को व्यक्ति पर डाल देते हैं, कुंठा को व्यापक बना देते हैं और गरीबी, दीनता, ब्रह्मचर्य जैसी बातों की धार्मिक पवित्रता को कोई क्षतिपूरक विश्वास प्रदान नहीं करते। जर्मनीय देशों में कैथोलिकों के बीच आत्महत्या दर अधिक नहीं है।
जापान (और भारत की कुछ आबादी) के मामले में परिवार जीवन और सामाजिक विश्वासों का अन्वेषण किया जाना चाहिए। आत्महत्या के कारण जापानी का मनोवैज्ञानिक विकास हमारे जैसे समाज के मनोवैज्ञानिक विकास की तुलना में पूरी तरह से उलटा है। एक जैसे बुनियादी मनोवैज्ञानिक तंत्रों के बिलकुल उलटे परिणाम कैसे हो सकते हैं? इससे एक बार फिर आचरण की आधारभूत सहजवृत्तियों के पैटर्नों के संबंध और सामाजिक अनुकूलन के जरिए उनके विभिन्न रूप लेने की समस्या पैदा होती है। यहां एक पीढ़ी द्वारा दूसरी पीढ़ी के लिए सामाजिक व्यवहार के पैटर्न दिए जाने की बात तो छोड़ दें। इस संदर्भ में एक दिलचस्प विचार यह हो सकता है कि यदि आज हम जाापान का लोकतंत्रीकरण करने और यहां के लोगों को पश्चिमी तौर-तरीकों में ढालने का प्रयास करें तो जापानी आत्महत्या दर पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा।
शहरी जीवन और आत्महत्या : आज जो निष्कर्ष निकाले गए हैं कि शहरी क्षेत्रों में आत्महत्या दरें अधिक हैं उनका शहरी जीवन के मानसिक रूप में बदतर बन जाने के संदर्भ में फिर से अन्वेषण किया जाना चाहिए। यह खोजना अलग बात है कि शहरों में बुनियादी भावात्मक पैटर्नों के बदतर हो जाने और उसके चिरस्थायी बन जाने के कारण शहरी आत्महत्या दर अधिक है और यह कहना अलग बात है कि शहरी जीवन आत्महत्या को बढ़ावा देता है।
आत्महत्या और धार्मिक संबध्दता : आम राय है कि अन्य धार्मिक समूहों के मुकाबले कैथोलिकों में आत्महत्या दर सबसे कम है। अत: यह अन्वेषण जरूरी है कि दबाई गई सहज इच्छाओं की भावात्मक अभिव्यक्ति के लिए कैथोलिकों को अन्यों के मुकाबले कितने अवसर मिलते हैं।

अब सवाल यह पैदा होता है कि फिर कैथोलिक आत्महत्या क्यों करते हैं क्योंकि आत्महत्याएं तो वहां भी होती हैं। इससे गैर कथोलिकों द्वारा आत्महत्या के पक्के कारणों का पता चलेगा। और धर्म परिवर्तित कैथोलिकों में आत्महत्या दर कितनी है, क्या वह अन्य कैथोलिकों और धार्मिक समूहों के मुकाबले कम है या अधिक?
इसके बाद नई समस्या खड़ी होती है कि क्या कैथोलिकों द्वारा आत्महत्याओं की सही सूचना दी जा रही है क्योंकि कैथोलिक चर्चों में आत्महत्या के निषेध से गंभीर जटिलताएं पैदा हो सकती हैं।
प्रोटेस्टेंटों में हर जगह कैथोलिकों और अकसर यहूदियों के मुकाबले आत्महत्या दर अधिक है। मोरसेली और दुर्खीम ने इसका कारण यह बताया है कि प्रोटेस्टेंटवाद में वैयक्तिकतावाद पर अधिक बल दिया जाता है और इसमें विचारशील चिंतन और व्यक्ति-चेतना पर बहुत बल दिया जाता है। यदि यह सही है तो सर्वाधिक वैयक्तिकवादी प्रोटेस्टेंट पंथों में आत्महत्या दरें सबसे अधिक होनी चाहिए। उदाहरण के लिए, अमरीका में यूनिटेरियनों में आत्महत्या दर बहुत अधिक और हाई चर्च एपिस्कोपेलियनों में बहुत कम होनी चाहिए। क्या ऐसा है? हमें मालूम नहीं। इसके अलावा मानसिक जीवनवृत्त को धार्मिक संबध्दता से जोड़ने वाले आंकड़े भी हमारे पास नहीं हैं। जिन यूनिटेरियन चर्चों में मानसिक स्वास्थ्य पर बल दिया जाता है और जहां पुरोहित अपने कष्ट पीड़ित सदस्यों की एक सामान्य प्रथा के रूप में मनोविश्लेषक चिकित्सा कराते हैं वहां आत्महत्या दर कम हो सकती है।
उन्नीसवीं सदी में पश्चिमी सभ्यता की तीन प्रमुख धर्म-धाराओं में यहूदियों में आत्महत्या दर सबसे कम थी लेकिन हाल के आंकड़े (जो नाजियों के अधीन यूरोप में राजनीतिक घटनाक्रम को विशेष रूप में दरशाते हैं) बताते हैं कि उनमें यह दर शेष दो से अधिक हो गई है।
धार्मिक वातावरण को आत्महत्या की मनोविकृति संबंधी व्याख्या से पूरी तरह से संबध्द किया जा सकता है। कैथोलिकों की आत्महत्या से अपेक्षाकृत निरापदता की दुर्खीम की परिकल्पना, जिसकी तत्कालीन निश्चित रूप में संकीर्ण बीमीय और सामाजिक आंकड़ों द्वारा पुष्टि हो जाती है, की गहरी जड़ें मनोविकृति विज्ञान में हो सकती हैं। कैथोलिकवाद द्वारा प्रदान की जाने वाली इस निरापदता का कारण दुर्खीम ने यह बताया है कि वह अपनी सर्वव्यापी भावनाओं और विश्वासों के जरिए व्यक्ति को समूह से जोड़ता है। लेकिन ये सामान्य भावनाएं और विश्वास क्या हैं? कैथोलिक भावनाएं और विश्वास व्यक्ति को पापबोध से मुक्त करते हैं, सभी पापों को प्रायश्चित्तीय बनाते हैं, पिता स्थापन्नों की जटिल, श्रेणीबध्द प्रणाली और मां की सरल हृदय और काव्यमय छवि स्थापित करते हैं।
कम सख्त प्रोटेस्टेंट पंथ शैशवकालीन दमन और कुंठा के लिए कविता, कला और अनुष्ठानों के जरिए उदात्त अभिव्यक्ति का मार्ग उपलब्ध नहीं कराते। पाप की एक जबर्दस्त भावना बनी रहती है जिसका स्वीकारोक्ति द्वारा प्रायश्चित नहीं किया जा सकता। इसके लिए ईश्वर और बड़ों का अकेले ही कोपभाजन बनना पड़ता है। काल्विनवाद और कुछ हद तक लूथरवाद दमनात्मक और वैयक्तिक तरीके से पाप से निपटते हैं। प्रारंभिक प्रोटेस्टेंटवाद में अचेतन को उसके ऊपर ही फेंक दिया जाता है और बाद में पूरी तरह गैर धार्मिक दंड विधान उस पर नियंत्रण रखते हैं।
आत्महत्या और लिंग : सफल आत्महत्याएं स्त्रियों के बजाए पुरुषों में अधिक हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि आत्महत्या के प्रयास पुरुष के मुकाबले स्त्रियों के मामले में अधिक हैं। आंकड़ों की अविश्वसनीयता की बात थोड़ी देर के लिए छोड़ दें तो भी सवाल यह पैदा होता है कि क्या यह स्त्रियों की सामाजिक हैसियत के कारण है या स्त्रियों और पुरुषों के बीच भावनात्मक अंतर के कारण है या दोनों के अंत:संबंध के कारण है, और कैसे और किस हद तक?
आत्महत्या और आयु : ऐसा माना जाता है कि आत्महत्या दर आयु के साथ बढ़ती है। लेकिन क्या यह संभवत: इस कारण नहीं है कि प्रारंभिक कुंठाएं अधेड़ जीवन की असफलताओं के कारण बदतर बन जाती हैं? और अधेड़ उम्र की आत्महत्या दरों और प्रगाढ़ वैवाहिक और पारिवारिक संबंधों में विफलता के बीच क्या ताल्लुक है?
हमारे पास उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार उम्र में वृध्दि के साथ आत्महत्या दर में वृध्दि होती है। यह दर बूढ़ों में विशेष रूप में अधिक है। इस उम्र में कई तरह की समस्याएं पैदा होती हैं। सर्वप्रथम, क्या ऐसा है कि जब व्यक्ति बूढ़ा होता है तो आत्महत्या को मृत्यु का कारण मानने में कम अनिच्छा होती है? दूसरे, वृध्दावस्था में अपकर्षक बीमारियां अपने उत्कर्ष पर होती हैं और इसका मन पर जबर्दस्त प्रभाव होता है। तीसरे, क्या हम आत्महत्या को स्वयं को इस ज्ञान के साथ मारना कह सकते हैं कि मृत्यु वैसे भी दूर नहीं है? चौथे, क्या बूढ़ों को विस्मृति में डाल देना उस अवस्था के लिए आमंत्रण है जिसे मनोविश्लेषक मातृ सुलभ विस्मृति कहते हैं; अर्थात अनजन्मे की मीठी नींद की ओर लौटना? ये सवाल और दूसरे सवाल जरा चिकित्सा नामक नई चिकित्सा शाखा के केंद्र में होने चाहिए विशेष रूप से वृध्द कही जाने वाली जनसंख्या के मामले में?
आत्महत्या और आय वर्ग : उच्च आय वर्गों में आत्महत्या दर अपेक्षाकृत अधिक है। धन, जिसे हमारे जैसे समाज में सफलता का मानदंड माना जाता है, प्रतिरक्षा की कोई गारंटी नहीं है। क्या यह शैशवकाल और किशोरावस्था में अति सुरक्षा के कारण है? और स्वनिर्मित लोगों द्वारा आत्महत्या के विषय में क्या कहा जाए? डबलिन और बनजेल का निष्कर्ष है कि आर्थिक तत्वों और आत्महत्या के बीच कोई सरल कारण-कार्य संबंध नहीं है। तो क्या सभी आर्थिक समूहों में आत्महत्या एक जैसी भावनात्मक समस्याओं का प्रमाण है?
आत्महत्या और युध्द : गोलाबारी युध्द के दौरान आत्महत्या दर गिर जाती है; आंकड़े यही बताते हैं। लेकिन गोलाबारी युध्द के दौरान इसमें शामिल लोगों को चुपचाप आत्महत्या करने का अच्छा अवसर मिल जाता है। साहस दिखने वाली घटना वास्तव में आत्महत्या प्रवृत्ति हो सकती है। बहरहाल जब लगे कि वैसे भी जीवन की उम्मीद नहीं है तो व्यक्ति आत्महत्या की सोच सकता है।
नागरिक जनसंख्या का जहां तक संबंध है मन पर इसके प्रभाव के पूरे सवाल के बारे में अन्वेषण किया जाना शेष है।
आत्महत्या और वैवाहिक दर्जा : वैवाहिक दर्जे और आत्महत्या में पूरा अंत:संबंध माना जाता है। तलाकशुदा पुरुषों में गैर तलाकशुदा पुरुषों के मुकाबले अधिक आत्महत्या दर, तलाकशुदा स्त्रियों में गैर तलाकशुदा स्त्रियों के मुकाबले अधिक लेकिन तलाकशुदा पुरुषों से कम आत्महत्या दर पाई जाती है। फिर से विवाह करने वाले तलाकशुदा लोगों में आत्महत्या दर की क्या स्थिति है?
विधवाओं-विधुरों के समूह में संतानहीनों में आत्महत्या दर अधिक है। लेकिन इस तत्व की व्याख्या के लिए मनोविकृति संबंधी जीवनवृत्तों पर आधारित सामान्यीकरण और विवाह, तलाक या वैधव्य से गढ़े जा चुके भावनात्मक जीवन के साथ वैवाहिक दर्जे के संबंध के विषय में कुछ जानकारी जरूरी है। और फिर से विवाह करने वाली विधवाओं-विधुरों में आत्महत्या दर की क्या स्थिति है? यदि विवाह, विशेष रूप में संतान संपन्न विवाह यदि आत्महत्या से रक्षा करता है तो ऐसे सभी विवाहों में ऐसा क्यों नहीं होता है? क्या आत्महत्या संभावना जीवनसाथी और परिवार के प्रति समर्पण पर विजय पा लेती है? यदि ऐसा है तो आत्महत्या की संभावना इतनी प्रबल कैसे हो जाती है?
आत्महत्या और नीग्रो : हमारे समाज में श्वेत के मुकाबले नीग्रो लोगों में आत्महत्या दर बहुत कम है। (यदि आंकड़े सही हैं तो) नीग्रो दुर्भाग्य और आत्महत्या के बीच कोई स्पष्ट संबंध नहीं है। क्या व्यवस्थित दमन और दुर्भाग्य के कारण व्यक्ति मानव अस्तित्व की तंगहाली और त्रासदी के साथ समझौता कर लेता है? जीवन से कोई उम्मीद न रखने के कारण उन्हें, चाहे जितना कम मिले, कभी निराशा नहीं होगी। लेकिन इस मामले में उच्च वर्गीय और सुशिक्षित नीग्रो लोगों और कम आय वाले गरीब नीग्रो लोगों में आत्महत्याओं का गंभीरता से अध्ययन किया जाना चाहिए। क्या जो नीग्रो भौतिक और बौध्दिक तौर पर उच्चवर्गीय श्वेत जीवन-स्तर के नजदीक हैं अन्य नीग्रो लोगों के मुकाबले अधिक आत्महत्या करते हैं?
लेकिन नीग्रो स्त्रियों की दर श्वेत स्त्रियों की दर के नजदीक है जबकि नीग्रो पुरुषों और श्वेत पुरुषों के मामले में ऐसा नहीं है। यहां इन नीग्रो स्त्रियों के निजी जीवन की गहरी जानकारी से मदद मिल सकती है। साथ ही नीग्रो लोगों ने आत्महत्या से संबंध की समस्या के साथ रंग के प्रश्न भी पूरी तरह से जुड़े हुए हैं।
आत्महत्या और रोगनाशक थैरेपी : जिन व्यक्तियों के मामलों में विश्लेषण कक्षों और क्लिनिकों में आत्महत्या प्रवृत्ति अधिक दिखाई दी और जिनके इलाज में सफलता मिली ऐसे व्यक्तियों के बाद के जीवन में आत्महत्या दर क्या रहती है? क्या यह प्रवृत्ति जीवन की ओर मुड़ गई है? किस तरह के जीवन की ओर?
इन परिकल्पनाओं को सामने रखना निश्चित रूप में उनका उत्तर देना नहीं है।
हमारे समाज में मानव व्यक्तित्व के लिए बहुत सम्मान है। इसलिए आत्महत्या से घृणा हमारा बुनियादी मूल्य है। इसके बाद सवाल यह पैदा होता है कि आत्महत्या से लड़ने के लिए क्या किया जाए। मनोविकृति विज्ञान के नजरिए से इसके लिए माता-पिताओं और भावी माता-पिताओं को मानसिक स्वास्थ्य के सिध्दांतों का कड़ा प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। नर्सरी स्कूल, ग्रेड स्कूल और हाई स्कूल अध्यापकों को इन नियमों की सघन जानकारी दी जानी चाहिए और 'नए युग' के इन संगठनों में मनोविकृति अभिलेख की व्यापक व्यवस्था की जानी चाहिए। समाज विज्ञान के दृष्टिकोण से जो सामाजिक वातावरण व्यक्तियों में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देता है और उसे बदतर बनाता है और स्थायी बनाता है उसका शमन करना जरूरी है।
कुछ समय से व्यावसायिक संगठन समाजवैज्ञानिकों पर जोर दे रहे हैं कि वे उत्तर देने के बजाए अनुसंधान कार्यक्रम चलाएं। यहां आत्महत्या के मामले में अनुसंधान पचास से अधिक वर्षों से चल रहा है और कुछ लोगों का मानना है कि अब उत्तर देने का समय आ गया है। इसका उत्तर यह है कि हमें केवल समस्याओं के चिह्न को बाहर निकालने की चटनी मिली है। मानव विवेकहीनता के जिस वहशी प्रकोप को झेलता आ रहा है उस पर यह चाबी काबू नहीं पा सकती।
जो लोग अनुसंधान के इस क्षेत्र में प्रवेश करना चाहते हैं उन्हें इसकी दिक्कतों के लिए तैयार रहना चाहिए। उन्हें किसी तुरंत निदान की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। किसी प्रशासनिक युक्ति से आत्महत्याएं कम नहीं होंगी बल्कि दयालुतापूर्ण उपचार से होंगी। दयालुतापूर्ण उपचार जो अविवेकपूर्ण जीवविज्ञान और मनोविज्ञान, जिनकी गहराइयों तक हम हाल ही में पहुंचे हैं और जो इन्हें वास्तविकताएं मानने में संकोच
और पापशंका के कारण पोषित होते हैं, से घिरी मानवता की त्रासदी पर आधारित हो।
विवेकहीनता से लड़ने के लिए विज्ञान के निष्कर्षों और मानव-विवेक को सामाजिक संरचना और इस संरचना में व्यक्ति की क्रिया में शामिल किया जाना चाहिए। पश्चिम की लंबी विचार परंपरा में दुर्खीम मनोविश्लेषकों के साथ इस बात पर बल देते हैं कि विवेकपूर्ण जीवन के कई शत्रु हैं और इनमें से प्रमुख शत्रु गंभीर प्रमाणों पर आधारित अपनी खोजों को अपने आसपास के सामाजिक संसार पर लागू न करना है। हमारे पास जो प्रमाण है वह उनके पास नहीं था। लेकिन यह तो जन्म और इतिहास का संयोग है। लि सुइसाइड में उनके प्राक्कथन में उनके ही शब्दों का ही प्रयोग करें तो : 'अब तक मिले परिणामों की अपूर्णता से हतोत्साहित होने की जरूरत नहीं है; ऐसी स्थिति में घुटने नहीं टेकने चाहिए बल्कि नए प्रयास किए जाने चाहिए...इससे वैज्ञानिाक श्रम में निरंतरता बनी रहेगी...निरंतरता जो प्रगति का आधार है।
( एमिल दुर्खीम की किताब- आत्महत्या की भूमिका)

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