सोमवार, 18 अक्तूबर 2010

बाजार और ‘बाजारवाद ’ की गलत समझ के प्रतिवाद में -गिरीश मिश्रा

      पिछले कुछ वर्षों में हिंदी साहित्यकार और पत्रकार बडी संख्या में बाजार और एक अस्त्विहीन अवधारणा 'बाजारवाद' के खिलाफ लठ लेकर पडे हैं। कहना न होगा कि इन जिहादियों को न तो अर्थशास्त्र का ज्ञान है और न ही इतिहास का। अर्थशास्त्र में 'बाजारवाद' नाम की कोई भी अवधारणा नहीं है। अगर विश्वास न हो तो किसी भी प्रामाणिक कोश को देख लें। पालग्रेव के विश्वकोश में भी ढूंढे तो 'मार्केटिज्म' शब्द नहीं मिलेगा। वस्तुत: हमारे यहां 'बाजारवाद' का हौवा खडा करने वाले, यदि गालब्रेथ के शब्दों में कहें तो मासूम धोखाधडी क़े शिकार हैं। इसकी जड़ में वह कोशिश है जो रेखांकित करती है कि पूंजीवाद का स्वरूप बदल गया है और वह एक शोषक सामाजिक व्यवस्था नहीं रह गई है। इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर पूंजीवाद के बदले 'बाजार प्रणाली' (हमारे यहां 'बाजारवाद') कहने पर जोर दिया जा रहा है जिससे आम लोगों के बीच यह भ्रम पैदा हो कि यह नई व्यवस्था है जिसका पूंजीवाद से कोई लेना देना नहीं है।
      गालब्रेथ के शब्दों में, 'पूंजीवाद के एक हितकर विकल्प के रूप में बाजार प्रणाली की चर्चा एक मनोहर मगर अर्थहीन छद्मवेश के रूप में होती है जिससे निगम से जुडे ग़हनतर यथार्थ को छिपाया जा सके।' यह यथार्थ है कि उत्पादक की शक्ति उपभोक्ता की मांग को प्रभावित और नियंत्रित करती है। वे रेखांकित करते हैं कि बाजार प्रणाली हमारे (हिंदी जगत में 'बाजारवाद') पूंजीवाद के बदले प्रयोग का अर्थहीन, त्रुटिपूर्ण, परंतु मनोहर और रुचिकर रूप है। इसके जरिए शोषण और हेराफेरी पर पर्दा डालने की कोशिश होती है।
आजकल अधिकतर लेखक और पत्रकार बाजार को गाली देते और हर संभव सामाजिक, सांस्कृतिक एवं नैतिक विकृति के लिए जिम्मेदार ठहराते मिलते हैं। अगर ध्यान से देखें तो पाएंगे कि उनका इतिहास का ज्ञान नगण्य है। इस दावे को स्पष्ट करने के लिए कुछ शताब्दियां पीछे मुड क़र देखें। सत्रहवीं सदी के एक सबसे प्रभावशाली फ्रेंच चिंतक वाल्तेयर को लें। उनके अनुसार कोई भी लेखक जनमत को इसी बिना पर प्रभावित नहीं कर सकता कि वह बहुत बढिया लिखता और तर्कसंगत विश्लेषण प्रस्तुत करता है। महत्वपूर्ण बात है कि वह जो लिखता है वह अधिक से अधिक पाठकों तक पहुंच पाता है या नहीं।
    वर्ष  1694 में जन्मे वाल्तेयर का निधन 1778 में हुआ। उनके जीवन काल में पाश्चात्य जगत में भारी परिवर्तन हुआ और आधुनिक पूंजीवाद आया। आधुनिक पूंजीवाद का दबदबा बढने के पूर्व अधिकतर लेखक किसी शासक या बडे सामंत पर निर्भर रहते थे। हमारे अपने देश में लेखक, कवि, कलाकार, चिंतक आदि राजदरबारों से जुडे होते थे। गुप्तकाल और मुगल काल के नौ रत्नों के विषय में हम भली भांति जानते हैं। बिहारी, भूषण आदि कवि किसी न किसी राजा के आश्रित थे। पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी को झालावाड में महाराज से अपनी पुस्तक 'संपत्ति शास्त्र' के लेखन के दौरान काफी आर्थिक सहायता मिली थी। ओरछा नरेश हों या बिहार के सबसे बडे ज़मींदार दरभंगा महाराज सबके यहां विद्वान पलते तथा लेखन कार्य करते थे। बंगाल के महिषादल के जमींदार के यहां निराला वर्षों तक रहे। कहना न होगा कि इस राजश्रय के कारण लेखकों, कलाकारों और चिंतकों को एक स्पष्ट सीमा में रहना पडता था यानी उनकी स्वतंत्रता प्रतिबंधित थी।
   अठारहवीं सदी के दौरान आधुनिक पूंजीवाद के उदय के साथ बाजार का विस्तार हुआ। फलस्वरूप लेखक, कलाकार और चिंतक की शासक या सामंत के ऊपर निर्भर रहकर काम करने की आवश्यकता काफी कम हो गई। ऐसा बाजार के जरिए अपनी रचनाओं का वितरण करने की भरपूर संभावनाओं के आने के कारण हुआ।
     लेखकों, चिंतकों और कलाकारों को जीविकोपार्जन के लिए बाजार ने स्वतंत्र अवसर दिए। उनकी कृतियों का प्रभाव क्षेत्र विस्तृत हुआ और वे अपने असंख्य पारखियों की पसंद नापसंद को ध्यान में रखकर सृजन करने लगे। साथ ही शासक वर्ग और धर्म गुरुओं द्वारा लेखन और चिंतन को सीमित करने की संभावना कम हो गई।
     लेखक और चिंतक बाजार के जरिए नए विचारों तथा दृष्टिकोण से भरपूर पठन सामग्रियों को प्राप्त तथा उनका परायण कर अपने कार्य की दिशा तय करने लगे। इससे राजनीति के स्वरूप में भारी परिवर्तन हुआ, जिसकी अभिव्यक्ति वाल्तेयर के मरने के ग्यारह साल बाद फ्रांसीसी क्रांति में देखी गई।
      अठारहवीं सदी के दौरान लेखकों एवं चिंतकों की अपने भरण -पोषण के लिए तत्कालीन शासक वर्ग पर निर्भरण खत्म होने का क्रम शुरू हो गया। जीवन के आरंभिक काल में वाल्तेयर भी भरण-पोषण के लिए विभिन्न शासकों पर निर्भर रहे। यही बात एडमंड वर्क और कुछ हद तक एडम स्मिथ के लिए भी कही जा सकती है। शासक वर्ग का संरक्षण अनेक रूपों में प्राप्त होता था।
     मसलन, प्रशासन में ओहदा, पेंशन और अनुदान या मुफ्त खाना-पीना और लेखन और चिंतन की स्वतंत्रता एक दायरे के आगे नहीं जा सकती थी। ऐसा स्वयं वाल्तेयर के साथ अनेक बार हुआ कि तत्कालीन संरक्षक को उन्होंने अपने लेखन और चिंतन के लिए कुछ अधिक आजादी लेकर नाराज कर दिया जिससे उन्हें प्रताडना का शिकार होना पडा। उन्हें अपने फ्रेंच और फिर जर्मन संरक्षक का कोपभाजन बनना पडा और भागकर इंग्लैंड जाना पडा।  बाजार का वर्चस्व बढने के साथ ही उन्होंने अपना एक बडा पाठक समूह बनाया तथा पुस्तकों की बिक्री होने वाली कमाई से अपनी जीवनयापन का खर्च जुटाया। अब वे अपनी सामंती संरक्षकों की नहीं बल्कि आम पाठकों की पसंद नापसंद का ख्याल रखने लगे। यह बाजार में मांग की मात्रा के जरिए व्यक्तहोने लगी। सामंती संरक्षकों द्वारा पाबंदी लगाने और संरक्षण वापस लेने का भय न रहा। वाल्तेयर ने बाजार पर निर्भर हो कमाई करने और उससे जीवन-यापन करने को नौतिक दृष्टि से उचित माना। इससे आत्मनिर्भरता और स्वाभिमान की भावना बढी।
 अपने इंग्लैंड प्रवास के दौरान वाल्तेयर इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि धार्मिक सहनशीलता और बाजार के बीच घनिष्ट संबंध होता है। बाजार के विकास और विस्तार के साथ ही उसके दायरे में विभिन्न धर्मों और समुदायों के लोग आते और उससे जुडते जाते हैं। उनके बीच रिश्ते बनते हैं और आपसी भरोसा कायम होता है, जो कारोबार के लिए अपरिहार्य होता है। यदि धर्म, राष्ट्रीयता, भाषा, रहन-सहन को लेकर भेदभाव हो तो बाजार बिखर जाएगा, यह उनके नोटबुक में जोनाथन स्विफ्ट की कृति 'टेल ऑफ ए टब' को लेकर की गई टिप्पणी से स्पष्ट है। उनके अनुसार बाजार के पनपने के लिए अंतःचेतना की स्वतंत्रता आवश्यक पूर्व शर्त होती है। हर देश के बंदरगाह पर जाकर देखें, विभिन्न धर्मों, समुदायों, पूजा पध्दतियों और भाषाओं से जुडे क़ारोबारी मिलेंगे। वहां एक ही चीज मायने रखती है- परस्पर विश्वास और शांति का वातावरण।
     वाल्तेयर की टिप्पणी का आखिरी वाक्य इंगित करता है कि कारोबारियों का परस्पर सौहार्द इस अन्तर्निहित धारणा पर आधारित होता है कि उनकी वाणिज्यिक गतिविधियां उनके धार्मिक विश्वासों से कहीं अधिक टिकाऊ और वास्तविक है।
   कहना न होगा कि तब तक वह जमाना लद चुका था जब माना जाता था कि धार्मिक समरूपता को बलात लाकर ही राजनीतिक स्थिरता लाई जा सकती है। इसके स्थान पर यह धारणा आ गई कि वाणिज्य का विस्तार धार्मिक सहनशीलता और राजनीतिक स्थिरता को काफी  हद तक बढावा देता है। इस प्रकार बाजार की एक नई भूमिका उजागर हुई।
      इसका एक उदाहरण हमारे अपने देश में 1990 के दशक में तब मिला जब वाराणसी के हिंदू कारोबारियों ने रामरथ को ट्रक पर लादकर वापस कर दिया। उन्होंने संघ परिवार को वोट और धन देने का वचन दिया मगर रामरथ के शहर में घुमाने का विरोध किया। क्योंकि इससे बनारसी साडी  निर्माता मुसलमान कारीगरों तथा हिंदू विक्रेताओं के बीच युगों पुराना सौहार्द टूटेगा और दोनों घाटे में रहेंगे। रामरथ चला गया, शहर में शांति बनी रही और आनेवाले चुनाव में हिंदू सेठों ने धन और मत देकर भाजपा उम्मीदवार को जीता दिया।
     वाल्तेयर के अनुसार बंदरगाह ही नहीं बल्कि शेयर बाजार भी धार्मिक सहनशीलता और कारोबारियों के बीच सौहार्द को बढावा देता है। लंदन रॉयल एक्सचेंज का जिक्र करते हुए लिखा कि वह अनेक राज दरबारों से अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि वहां विभिन्न राष्ट्रों और धर्मों के लोग कारोबार करते हुए मिलते हैं जिससे मानवता का भला होता है। इस प्रकार पूंजी बाजार लोगों को प्रेरित करता है कि वे धर्म, संप्रदाय, राष्ट्र आदि के भेदों से ऊपर उठें और अपने समान उद्देश्य अधिकाधिक संपदा बटोरने के लिए जुटें।
    प्रो. जरी जेड. मुल्लर ने 'द माइंड एंड द मार्केट' में लिखा है कि वाल्तेयर मुनाफा की भावना के मसीहा हैं और लोगों को प्रेरित करते हैं कि वे आत्मभक्तिपाने की अथक कोशिश को छोड संपदा हासिल करने की प्रतिस्पर्धा में जुटें, जिससे शांति आएगी। अपनी जिंदगी खराब कर दूसरों की आत्मा की मुक्ति के लिए धार्मिक अभियान छेडने से वैध संपदा बटोरने के पीछे दौडना कहीं अधिक श्रेयस्कर है, जिससे शांति रहेगी और सबका भला होगा। वाल्तेयर के चिंतन को एडम स्मिथ ने आगे बढाया।  

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