मंगलवार, 7 सितंबर 2010

निकृष्ट उद्देश्यों से प्रेरित सामाजिक क्रांति

     एशिया और भारत को लेकर इतिहासकारों में विभिन्न किस्म का मूल्यांकन मिलता है। इसमें भी कार्ल मार्क्स के मूल्यांकन को लेकर काफी विवाद है। भारत में जब अंग्रेजों का शासन स्थापित हुआ तो देश क्या था ? किस तरह की अवस्था थी ? किस तरह की संरचनाएं थीं ? कार्ल मार्क्स की इस सबको लेकर अपनी समझ थी।
कार्ल मार्क्स ने लिखा ‘‘अंगरेजों ने पूर्वी भारत में अपने पूर्वाधिकारियों से वित्त और युद्ध के विभागों को तो ले लिया है, लेकिन सार्वजनिक निर्माण विभाग की ओर उन्होंने पूर्ण उपेक्षा दिखलाई है। फलस्वरूप, एक ऐसी खेती, जिसे स्वतंत्र व्यवसाय और निर्बाध व्यापार के मुक्त व्यापार वाले ब्रिटिश सिद्धांत के आधार पर नहीं चलाया जा सकता था, पतन के गढ़े में पहुंच गई है। लेकिन एशियाई साम्राज्यों में हम इस बात को देखने के काफी आदी हैं कि एक सरकार के मातहत खेती की हालत बिगडती है और किसी दूसरी सरकार के मातहत वह फिर सुधर जाती है। वहां पर फसलें अच्छी या बुरी सरकारों के अनुसार होती हैं जैसे कि यूरोप में वे अच्छे या बुरे मौसम पर निर्भर करती हैं। इस तरह, उत्पीड़न और खेती की उपेक्षा बुरी बातें होते हुए भी ऐसी नहीं थीं कि उन्हें भारतीय समाज को ब्रिटिश हस्तक्षेपकारियों द्वारा पहुंचाई गई अंतिम चोट मान लिया जाता यदि, उनके साथ-साथ, एक और भी बिलकुल ही भिन्न महत्व की बात न जुड़ी होती, एक ऐसी बात जो पूरी एशियाई दुनिया के इतिहास में एक बिलकुल नई चीज थी।’’
   कार्ल मार्क्स ने आगे लिखा कि ‘‘ भारत के अतीत का राजनीतिक स्वरूप चाहे कितना ही अधिक बदलता हुआ दिखलाई देता हो, प्राचीन से प्राचीन काल से लेकर 19वीं शताब्दी के पहले दशक तक उसकी सामाजिक स्थिति अपरिवर्तित ही बनी रही है। नियमित रूप से असंख्य कातने वालों और बुनकरों को पैदा करने वाला करघा और चर्खा ही उस समाज के ढांचे की धुरी थे।’’
‘‘अनादि काल से यूरोप भारतीय कारीगरों के हाथ के बनाए हुए बढ़िया कपड़ों को मंगाता था और उनके बदले में अपनी मूल्यवान धातुओं को भेजता था; और, इस प्रकार, वहां के सुनार के लिए वह कच्चा माल जुटा देता था। सुनार भारतीय समाज का एक आवश्यक अंग होता है। बनाव-श्रृंगार के प्रति भारत का मोह इतना प्रबल है कि उसके निम्नतम वर्ग तक के लोग, वे लोग जो लगभग नंगे बदन घूमते हैं, आम तौर पर कानों में सोने की एक जोडी बालियां और गले में किसी न किसी का सोने का एक जेवर अवश्य पहने रहते हैं। हाथों और पैरों की उंगलियों में छल्ले पहनने का भी आम रिवाज है। औरतें और बच्चे भी अकसर सोने या चांदी के भारी-भारी कड़े हाथों और पैरों में पहनते हैं और घरों में सोने या चांदी की देवमूर्तियां पाई जाती हैं। ’’
‘‘ब्रिटिश आक्रमणकारी ने आकर भारतीय करघे को तोड़ दिया और चर्खे को नष्ट कर डाला। इंग्लैंड ने भारतीय कपड़े को यूरोप के बाजार से खदेड़ना शुरू किया; फिर उसने हिंदुस्तान में सूत भेजना शुरू किया; और अंत में उसने कपड़े की मातृभूमि को ही अपने कपड़ों से पाट दिया। 1818 और 1836 के बीच ग्रेट ब्रिटेन से भारत आने वाले सूत का परिमाण 5,200 गुना बढ़ गया। 1824 में मुश्किल से 10 लाख गज अंगरेजी मलमल भारत आती थी, लेकिन 1837 में उसकी मात्रा 6 करोड़ 40 लाख गज से भी अधिक पहुंच गई। लेकिन, इसी के साथ-साथ, ढाका की आबादी 1,50,000 से घटकर 20,000 ही रह गई। भारत के जो शहर अपने कपड़ों के लिए प्रसिद्ध थे, उनका इस तरह अवनत हो जाना ही इसका सबसे भयानक परिणाम नहीं था। अंग्रेजी भाप और विज्ञान ने सारे हिंदुस्तान में खेती और उद्योग की एकता को नष्ट कर दिया।’’
कार्ल मार्क्स ने अंग्रेजों के भारत आने और यहां पर तबाही मचाने का जो विवरण दिया है वह आँखें खोलने वाला है,इस विवरण से हम सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं कि भारत में अंग्रेजों ने किस तरह की तबाही मचायी थी और इसके बाबजूद अंग्रेजों के तत्कालीन भक्त भारतीय बुद्धिजीवी इस परिवर्तन और तबाही को भारत में रहकर भी देखने में अंग्रेजों के आते ही पुरानी सामाजिक और प्रशासनिक संरचनाओं के दिन लद गए,उन्हें ब्रिटिश शासकों ने सचेत रूप से निशाना बनाया।
     कार्ल मार्क्स ने सामाजिक संरचनाओं का विस्तार से जिक्र करने के बाद लिखा ‘‘सामाजिक संगठन के ये छोटे-छोटे एक ही तरह के रूप अब अधिकतर मिट गए हैं, और मिटते जा रहे हैं। टैक्स इकट्ठा करने वाले अंग्रेज अफसरों और अंगरेज सिपाहियों के पाशविक हस्तक्षेप के कारण वे इतने नहीं मिटे हैं जितने कि अंगरेजी भाप और अंगरेजी मुक्त व्यापार की कारगुजारियों के कारण। गांवों में रहने-सहने वाले उन परिवारों का आधार घरेलू उद्योग थे। हाथ से सूत बुनने, हाथ से सूत कातने और हाथ से ही खेती करने के उस अनोखे संयोग से उन्हें आत्मनिर्भरता की शक्ति प्राप्त होती थी।’’
    ‘‘अंगरेजों के हस्तक्षेप ने सूत कातने वाले को लंकाशायर में और बुनकर को बंगाल में रख कर, या हिंदुस्तानी सूत कातने वाले और बुनकर दोनों का सफाया करके उनके आर्थिक आधार को नष्ट करके इन छोटी-छोटी अर्ध्द बर्बर, अर्ध्द सभ्य बस्तियों को छिन्न-विछिन्न कर दिया है और इस तरह उसने एशिया की महानतम और सच कहा जाए तो एकमात्र सामाजिक क्रांति कर डाली है।’’
‘‘यह ठीक है कि उन असंख्य उद्योगशील पितृसत्तात्मक और निरीह सामाजिक संगठनों का इस तरह टूटना और टुकडों-टुकड़ों में बिखर जाना विपत्तियों के सागर में पड़ जाना, और साथ ही साथ उनके व्यक्तिगत सदस्यों द्वारा अपनी प्राचीन सभ्यता और जीविका कमाने के पुश्तैनी साधनों को खो बैठना निस्संदेह ऐसी चीजें हैं जिनसे मानव-भावना अवसाद में डूब जाती है; लेकिन, हमें यह न भूलना चाहिए कि, ये काव्यमय ग्रामीण बस्तियां ही, ऊपर से वे चाहे कितनी ही निर्दोष दिखलाई देती हों, पूर्व की निरंकुशशाही का सदा ठोस आधार रही हैं, कि मनुष्य के मस्तिष्क को उन्होंने संकुचित से संकुचित सीमाओं में बांधे रखा है जिससे वह अंधविश्वासों का असहाय साधन बन गया है, परंपररागत रूढियों का गुलाम बन गया है और उसकी समस्त गरिमा और ऐतिहासिक ओज उससे छिन गया है।’’
      ‘‘ उस बर्बर अहमन्यता को हमें नहीं भूलना चाहिए जो, अपना सारा ध्यान जमीन के किसी छोटे से टुकड़े पर लगाए हुए, साम्राज्यों को टूटते-मिटते, अवर्णनीय अत्याचारों को होते, बड़े-बड़े शहरों की जनसंख्या का कत्लेआम होते चुपचाप देखती रही। इन चीजों की तरफ देखकर उसने ऐसे मुंह फिरा लिया है जैसे कि वे कोई प्राकृतिक घटनाएं हों। वह स्वयं भी हर उस आक्रमणकारी का असहाय शिकार बनती रही है जिसने उसकी तरफ किंचित भी दृष्टिपात करने की परवाह की है।’’
‘‘ हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दूसरी तरफ, इसी प्रतिष्ठाहीन, गतिहीन और सर्वथा जड़ जीवन ने, उस तरह के निष्क्रिय अस्तित्व ने, अपने से बिलकुल भिन्न, विनाश की अनियंत्रित, उद्देश्यहीन, असीमित शक्तियों को भी जगा दिया था, और मनुष्य-हत्या तक को हिंदुस्तान की एक धार्मिक प्रथा बना दिया था।’’
‘‘ हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इन छोटी-छोटी बस्तियों को जात-पांत के भेदभावों और दासता की प्रथा ने दूषित कर रखा है, कि मनुष्य को परिस्थितियों का सर्वसत्ताशाली स्वामी बनाने के बजाए उन्होंने उसे बाह्य परिस्थितियों का दास बना दिया है, कि अपने आप विकसित होने वाली एक सामाजिक सत्ता को उसने एक कभी न बदलने वाला स्वाभाविक प्रारब्ध का रूप दे दिया है और, इस प्रकार उसने एक ऐसी प्रकृति-पूजा को प्रतिष्ठित कर दिया है जिसमें मनुष्य अपनी मनुष्यता खोता जा रहा है। इस मनुष्य का अध:पतन इस बात से भी स्पष्ट हो रहा था कि प्रकृति का सर्वसत्ताशाली स्वामी मनुष्य घुटने टेककर बानर हनुमान और गऊ शबला की पूजा करने लगा था।’’
‘‘यह सच है कि हिंदुस्तान में इंग्लैंड ने निकृष्टतम उद्देश्यों से प्रेरित होकर सामाजिक क्रांति की थी और उपने उद्देश्यों को साधने का उसका तरीका भी बहुत मूर्खतापूर्ण था। लेकिन सवाल यह नहीं है। सवाल यह है कि क्या एशिया की सामाजिक अवस्था में एक बुनियादी क्रांति के बिना मानव-जाति अपने लक्ष्य तक पहुंच सकती है ? यदि नहीं, तो मानना पड़ेगा कि इंग्लैंड के चाहे जो गुनाह रहे हों, उस क्रांति को लाने में वह इतिहास का एक अचेतन साधन था।’’


                                     

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