सोमवार, 27 सितंबर 2010

बाबरी मसजिद प्रकरण- अब साठ साल बाद सुप्रीम कोर्ट क्या करेगा ?

    अब साठ साल बाद अचानक हमारे देश के सर्वोच्च न्यायालय को लगा है कि बाबरी मसजिद विवाद का कोई सर्वमान्य हल निकाल लिया जाए।सवाल उठता है यह काम सर्वोच्च न्यायालय ने पहले क्यों नहीं किया ? उसे रथयात्रा के समय या बाबरी मसजिद गिराए जाने से पहले इसका ख्याल क्यों नहीं आया ? सर्वोच्च न्यायालय ने साठ साल बाद इस मसले पर समाधान कराने के चक्कर में कम से कम भारतीय न्यायपालिका का मान नहीं बढ़ाया है। इससे हमारी दुनिया में भारतीय न्याय की नाक कटी है। चूंकि अब यह मामला सर्वोच्च अदालत के सामने है अतः इसके कुछ महत्वपूर्ण कानूनी पहलुओं पर गौर कर लेना समीचीन होगा।  
बाबरी मस्जिद स्थान पर कानूनी विवाद की शुरूआत सबसे पहले सन् 1885 में हुई थी। उस जमाने में एक मुकदमा 'रघुवरदास महंत जन्मस्थान अयोध्या बनाम सैक्रेट्री ऑफ स्टेट फार इंडिया' के नाम से चला था। इसका फैसला 24 दिसंबर 1885 को हुआ। महंत रघुवरदास ने उस समय दावा किया था कि एक चबूतरा जो मस्जिद के सामने है तथा जिसकी लंबाई पूरब-पश्चिम 21 फुट और उत्तर-दक्षिण में चौड़ाई 17 फुट है, इसी चबूतरे की जगह पर राम पैदा हुए थे। महंत रघुवरदास का दावा था कि वे इस जगह वर्षों से सेवा पूजा करते आ रहे हैं। अत: उन्हें इस पर मंदिर बनाने की अनुमति दी जाए।
फैजाबाद के सब जज पंडित हरिकिशन ने यह याचिका खारिज कर दी और फैसले में कहा कि मस्जिद के सामने मंदिर बनाने की अनुमति नहीं दी जा सकती। इस फैसले के विरोण में महंत रघुवर दास ने जिला जज एवं अवध के जुडीशियल कमिश्नर के यहा क्रमश: दावे दायर किए, पर दोनों ही जगह उनकी याचिकाएं खारिज हुईं और पंडित हरिकिशन का फैसला बरकरार रखा गया।
      स्मरणीय है, महंत रघुवरदास के मुकदमे में मस्जिद की जगह मंदिर बनाने की मांग नहीं की गई थी, बल्कि चबूतरे पर राममंदिर बनाने की अनुमति मांगी गई थी, जबकि, आज हिंदू सांप्रदायिक संगठन बाबरी मस्जिद को गिराकर उसकी जगह मंदिर बनाना चाहते हैं, या मस्जिद को स्थानांतरित करना चाहते हैं। आज अगर यह विवाद चबूतरे तक सीमित होता तो शायद सुलझ भी जाता, क्योंकि मुसलमानों के धार्मिक नेताओं को इस पर कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि यह स्थान मस्जिद से अलग है।
स्वतंत्र भारत में 23 दिसंबर 1949 को नए सिरे से यह मसला उठा है। 22-23 दिसंबर की रात में कुछ लोगों ने विवादित स्थल पर राम की मूर्ति रदी। इस बात को स्थानीय पुलिस थानेदार ने प्राथमिक रिपोर्ट में भी दर्ज किया, जिलाधीश ने 'रेडियो संदेश' में उ.प्र. सरकार को इसी रूप में सूचित किया, इस घटना से पहले मस्जिद में लगातार नमाज पढ़ी जाती रही थी, मस्जिद में मूर्तिया पधारने का काम जबर्दस्ती किया गया, इस बात की ताकीद सभी सरकारी बयानों से भी होती है। मस्जिद में मूर्ति र¹ने के आरोप में 50-60 व्यक्तियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 147,295,448 के तहत थानाध्यक्ष रामदेव दुबे की प्राथमिकी रिपोर्ट के आधार पर केस बनाया गया। इसी रिपोर्ट के आधार पर जाब्ता फौजादारी की धारा 145 के तहत शांतिभंग होने का मुकदमा भी दायर किया गया, जिस पर मजिस्ट्रेट मार्कडेय सिंह ने 29 दिसंबर 1949 को बाबरी मस्जिद की कुर्की का आदेश देते हुए निर्णय दिया। साथ ही, फैजाबाद नगगरपालिका के तत्कालीन अध्यक्ष प्रिय दत्तराम को रिसीवर बना दिया। प्रिय दत्तराम ने 5 जनवरी 1950 को कार्यभार संभाला। यह मसला काफी गंभीर एवं संवेदनात्मक था। इस पर बुर्जुआ सरकारों ने समुचित ध्यान भी नहीं दिया, वरना, इसी धारा के तहत यह मामला सुलझाया भी जा सकता था। अदालत मुसलमानों का मस्जिद के विवदित हिस्से पर कब्जा बहाल भी कर सकती थी। इसी धारा (145) के तहत जब नई कांग्रेस एवं पुरानी कांग्रेस के बीच में नई दिल्ली स्थित 7, जंतर-मंतर केंद्रीय कार्यालय को लेकर कानूनी विवाद उठा था तो मजिस्टे्रट ने कहा कि 13 दिसंबर 1971 को इस भवन पर नई कांग्रेस ने जबरिया कब्जा किया है और पुरानी कांग्रेस को कब्जे से बेद¹ल किया है। अत: पुरानी कांग्रेस का कार्यालय पर कब्जा बहाल किया जाए, जब तक कि सक्षम न्यायालय इस विवाद पर फैसला न कर दे।
बाबरी मस्जिद प्रकरण में भी सन् 1949 हो या 1986 इसी तरह का फैसला कराया जा सकता था। पर, बुर्जुआ सरकार की मंशाएं कुछ और थीं! जिस समय मस्जिद में मूर्ति र¹ने की घटना हुई थी उस समय पंडित नेहरू बेहद ¹फा हुए थे पर अक्षम साबित हुए क्योंकि जिलाधीश ने किसी भी आदेश को मानने से इनकार कर दिया। तत्कालीन मुख्य सचिव भगवान सहाय तथा आईजीपी वी.एन.लाहिड़ी ने मस्जिद में र¹ी मूर्तियां हटाने के लिए जिलाधीश के.के.नैय्यर को कई संदेश भेजे। पर सब बेकार साबित हुए। बाद में जिलाधीश के.के.नैय्यर ने इस्तीफा देकर जनसंघ की टिकट पर संसद का चुनाव लड़ा।
विवादित स्थान पर रिसीवर की नियुक्ति के बाद से यह विवाद दीवानी अदालत में है जिसमें अयोध्या निवासी गोपाल सिंह विशारद 16 जनवरी 1950 का मुकदमा, राम चौक अयोध्या निवासी परमहंस रामचंद्र दास 5 दिसंबर 1950 का मुकदमा, अयोध्या स्थित निर्मोही अखाड़े के महंत का मुकदमा 17 दिसंबर 1959 एवं सुन्नी सैंट्रल वक्फ बोर्ड लनऊ का मुकदमा 1961 एक साथ सुने जा रहे हैं। इन मुकदमों में पहले दो मुकदमों में विशारद और रामचंद्र दास केंद्रीय मुद्दा है विवादित जगह पर पूजा का अधिकार बहाल रना, विशारद की याचिका पर न्यायालय ने विवादित स्थल से मूर्तियां न हटाने और पूजा सेवा से न रोकने की अंतरिम आदेश भी दिया हुआ है पर इस दावे में बाबरी मस्जिद को गिराने, स्थानांतरित करने या उसकी जगह राम मंदिर बनाने की बात कहीं भी नहीं गई है। निर्मोही अखाड़े के महंत के मुकदमे में केंद्रीय मुद्दा है विवादित मंदिर के प्रबंध, पुजारी के अधिकार एवं चढ़ावा प्राप्त करने का। इसमें मस्जिद को गिराकर मंदिर बाने की बात नहीं उठाई गई है। सुन्नी सैंट्रल वक्फ बोर्ड के मुकदमे में विवादित स्थान को मस्जिद की जगह घोषित करने तथा वक्फ बोर्ड को सौंपने की प्रार्थना की गई है यानी कि चारों मुख्य मुकदमों में विवादित जगह के बारे में अदालत से न्याय मांगा गया है। इनमें से कोई भी मुकदमा या उसका पैरोकार मस्जिद गिराकर मंदिर बनाने या मस्जिद की जगह ही राम पैदा हुए थे, यह सब बातें नहीं उठाता।
इस न्यायिक प्रक्रिया के दौरान महत्वपूर्ण दो घटनाएं घटी हैं, पहली घटना है 26 फरवरी 44 के गजट नोटिफिकेशन को अदालत द्वारा 21 अप्रैल 1966 को खारिज कर दिया जाना।
दूसरी घटना है 8 अगस्त 1970 को रिसीवर की मृत्यु। उसके बाद नए रिसीवर की नियुक्ति के लिए अदालत में विवाद चल ही रहा था कि इसी बीच 25 जनवरी 1986 को स्थानीय वकील उमेश चंद्र पांडेय ने मुंसिफ सदर फैजाबाद के यहां एक प्रार्थनापत्र दिया जिसमें मांग की गई कि विवादित स्थल का ताला खोल दिया जाए और हिंदुओं के पूजा-सेवा के अधिकार पर कोई पाबंदी न लगाई जाए। मुंसिफ सदर ने इस याचिका पर समुचित कागजों के अभाव में फैसला नहीं दिया और याचिका खारिज कर दी।
बाद में इस आदेश के खि्लाफ फैजाबाद के जिला जज के यहां संबंधित पक्ष ने याचिका दी जिस पर जिला जज ने ताला खोलने का आदेश दिया। इस आदेश के विरूद्ध 3 फरवरी 1986 को फैजाबाद निवासी मुहम्मद हाशिम ने हाईकोर्ट में याचिका दी। जिस पर अग्रिम आदेश तक यथास्थिति बनाए रखने का आदेश न्यायमूर्ति ब्रजेश कुमार ने दिया। जिला जज के निर्णय के ि¹लाफ सैंट्रल वक्फ बोर्ड ने 12 मई 1986 को उच्चन्यायालय में एक याचिका दायर की थी। दोनों की एक साथ सुनवाई हो रही थी कि 23 जुलाई 1987 को न्यायमूर्ति कमलेश्वर नाथ सिविल जज फैजाबाद ने नए रिसीवर की नियुक्ति के मसले पर दायर एक अपील पर 23 जुलाई 1987 को निर्णय दिया कि दीवानी प्रक्रिया संहिता की धारा 24 के तहत निचली अदालत में चल रहे चारों दावों को एक ऐसे अतिरिक्त जिला जज के सामने सुनवाई के लिए रखा जाए जिसका 18 माह तक स्थानांतरण न हो सके।
इस आदेश के पांच महीने बाद अचानक 15 दिसंबर 1987 को सरकार ने इलाहाबाद हाईकोर्ट लनऊ बैंच में याचिका दी कि विवादित संपत्ति से संबंधित फैजाबाद न्यायालय में चल रहे सभी मुकदमों को अपने यहां स्थानांतरित करके सुनवाई करें। यह प्रार्थना पत्र फरवरी 1989 तक विचाराधीन रहा। इसी दौरान जुलाई 1989 को 'भगवान श्रीराम विराजमान' के प्रतिनिधि के रूप में देवकीनंदन अग्रवाल ने सिविल जज फैजाबाद के यहां एक नया मुकदमा दायर कर दिया, जिसमें संपूर्ण विवदित संपत्ति को राम जन्मभूभि घोषित करने तथा विपक्षी मुस्लिम समुदाय और सरकार को इस बात को रोकने का आदेश देने की प्रार्थना की गई कि वे मौजूदा इमारत को गिराकर नया मंदिर बनाने में कोई हस्तक्षेप न करें। 10 जुलाई 1989 को हाईकोर्ट ने विवाद से संबंधित सभी मुकदमों का अपने यहां स्थानांतरण करने का आदेश दिया और तीन जजों की पूर्णपीठ ने सरकार के 7 अगस्त के प्रार्थनापत्र पर विवादास्पद संपत्ति का अगले आदेश तक स्वरूप न बदले जाने का आदेश दिया।
इसी दौरान हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक संगठनों ने 9 नवंबर 1989 को नए मंदिर के शिलान्यास का कार्यक्रम घोषित कर दिया। उ.प्र. सरकार चाहती थी कि शिलान्यास हो। उसने 6 नवंबर को पूर्णपीठ से यह पूछा कि विवादास्पद संपत्ति में वास्तव में कौन-कौन सा स्थान आता है। साथ ही, यह भी जानना चाहा कि 14 अगस्त 1949 को पारित यथास्थिति बनाए र¹ने का आदेश क्या पूरी संपत्ति के लिए है? हाईकोर्ट (लनऊ बैंच) की पूर्णपीठ ने स्पष्ट किया कि 14 अगस्त का आदेश विवादित भूखंडों के लिए भी लागू होता है जिसमें 586 नंबर का वह भूखंड भी शामिल है  और जिस पर 9 नवंबर 1989 को शिलान्यास किया गया था। तब से यह विवाद एक नई दिशा ग्रहण कर चुका है। इस समूची प्रक्रिया में एक बात उभरकर आती है कि देवकीनंदन अग्रवाल की याचिका के पहले की जितनी भी याचिकाएं हैं उन सबमें बाबरी मस्जिद को गिराकर मंदिर बनाने का मुद्दा नया है और इसकी शुरूआत 7 अक्टूबर 1984 में राम जन्मभूमि ऐक्शन कमेटी की स्थापना से हुई जिसमें ताला खोलो आंदोलन एवं राम रथयात्रा के कार्यक्रम शुरू किए। पर इंदिरा गांधी की हत्या के कारण ये कार्यक्रम कुछ समय के लिए स्थगित कर दिए गए। बाद में 23 अक्टूबर 1985 से विश्व हिंदू परिषद् के नेतृत्व ने ताला खोलो अभियान देश में 25 शहरों में शुरू किया और 1 फरवरी 1986 को विवादास्पद इमारत का ताला खोलने का आदेश स्थानीय जिला जज ने दे दिया। बाद में शिलान्यास के बारे में सारे देश से ईंट लाई गईं। शिलान्यास जुलूसों का आयोजन किया गया। राजीव सरकार यह सब मूकदर्शक की तरह देती रही। इस प्रक्रिया में सामाजिक-राजनीतिक प्रक्रिया का सांप्रदायिकीकरण करने में सांप्रदायिक  शक्तियां सफल हो गईं। यह प्रक्रिया कारसेवा के 30 अक्टूबर, 2 नवंबर एवं 6 दिसंबर 1990 के चरण के बाद से सघन एवं तेज हुई है जिसका राजनीतिक प्रतिवाद भी हो रहा है पर प्रतिवाद की शक्तियों पर सांप्रदायिक शक्तियों ने अभी तो बढ़त हासिल कर ली है। इसमें राज्य की निष्क्रियता ने सबसे गंभीर भूमिका अदा की है जिसके कारण चारों तरफ सांप्रदायिक हिंसा एवं वैचारिक उन्माद पैदा हो गया है। इस उन्माद एवं हिंसा का दो स्तरों पर समाधान किया जाए। पहला-प्रशासनिक एवं राजनीतिक। दूसरा-विचारधारात्मक। ये दोनों प्रक्रियाएं साथ-साथ चलें तब ही सांप्रदायिक शक्तियों एवं सांप्रदायिक विचारधारा को अलग-थलग कर पाएंगे।


4 टिप्‍पणियां:

  1. इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  2. इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  3. इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  4. नाज़िया खातून अन्सारी28 सितंबर 2010 को 8:32 pm बजे

    इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...