बुधवार, 4 अगस्त 2010

घृणा और उपेक्षा को महान बनाया है मनमोहन कोड ने

मनमोहन कोड में ‘मन’ और ‘मोहन’ ये दो पदबंध हैं। मनमोहन कोड की सारी क्रियाएं ‘मन’ और ‘नरवस सिस्टम’ तक जाती हैं। यही वजह है कि भूमंडलीकरण की जंग शरीर के अंदर और बाहर दोनों ओर चलती है। खासकर मन के अंदर भूमंडलीकरण ने तूफान मचाया है। अब हमें छोटी-छोटी बातें उत्तेजित करती हैं। बड़ी बातें परेशान नहीं करतीं। जब भी प्रतिक्रिया देते हैं तो चरम पर होते हैं। इन दिनों प्रतिक्रिया चरम पर होती है अथवा नहीं होती। जिन चीजों को लेकर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं उन्हें अपनी धमनियों में महसूस करते हैं।
     कल तक हमारे अंदर धैर्य था आज हम अधीर हैं। कल तक हम सहिष्णुता की आदर्श प्रतिमा थे आज हम असहिष्णुता की प्रतिमूर्ति बने फिर रहे हैं। आज हमें जरा -जरा सी बातें परेशान करने लगी हैं, उन पर मीडिया में हंगामा हो रहा है, सजा देने की मांग हो रही है।यह हमारे मनमोहन कोड का खेल है।
      मनमोहन सिंह स्वयं देखने में एकदम शांत व्यक्ति हैं। शांतिप्रिय हैं। सभ्य हैं। बुद्धिजीवी हैं। लेकिन मनमोहन कोड एकदम अशांत है। अशांति और बेचैनी का प्रतीक है। वह सीधे हमारे नरवस सिस्टम में रहता है। मनमोहन सिंह बेहद जिम्मेदार और सामाजिक किस्म के प्राणी हैं। जबकि मनमोहन कोड असामाजिक है। समाज के प्रति इसमें बेगानापन और बेरुखी का भाव है।
     अब अप्रिय चीजें देखकर गुस्सा आता है। इतने अधीर क्यों हैं ,इसके सही कारणों को बताने में असमर्थ होते हैं। आप जानते है अधीरता का कोई असर नहीं होता। जैसे बच्चे खिलौनों के लिए मचलते हैं वैसे ही हम भी मचलने लगे हैं। बच्चों की अधीरता, जिद्दीपन और प्रतिवाद का तरीका बड़ों के सामान्य स्वभाव का हिस्सा बन गया है।
      इस तरह की प्रस्तुतियां टीवी से लेकर सभामंचों तक और दैनन्दिन जीवन में सहज ही देखी जा सकती हैं। अब हम भीड़ में अकेले हैं। यह ऐसी भीड़ है जो हमें हजम कर गयी है। हमें कुछ खास चीजों से एलर्जी हो गयी है अथवा खास चीजों के प्रति अतिसंवेदनशील हो गए हैं। यह हमारी सकारात्मक प्रतिक्रिया के चरम की अभिव्यक्ति है। एलर्जी में जिस तरह अतिरिक्त पैदा हो जाता है वैसे ही हमारे व्यवहार में भी अतिरिक्त पैदा हो गया है। इसके कारण अतिसंवेदनशीलता पैदा हो गयी है। यह अति संवेदनशीलता किसी भी बात को लेकर पैदा हो सकती है।
   मनमोहन कोड के जमाने में प्रतिवाद कम हुए हैं अथवा गैर-जरूरी मसलों पर प्रतिवाद हुए हैं। इरेशन प्रतिवाद हुए हैं। रेशनल प्रतिवाद कम होते चले गए हैं। इरेशनल प्रतिवाद के कारण रेशनल चीजों के प्रति उपेक्षाभाव बढ़ा है। लोग नफ़रत करते हैं लेकिन क्यों नफरत करते हैं। वे नहीं जानते। वे नफरत के लिए जिम्मेदारी भी उठाने को तैयार हैं।
     हमारे देश में एक बड़ा तबका तैयार कर दिया गया है जो मुसलमानों से नफरत करता है। जातियों की टकराहट बढ़ी है। क्षेत्रीय टकराहटें बढ़ी हैं। उत्तर-पूर्व में विभिन्न आदिवासी और गैर आदिवासी समुदायों के बीच टकराव बढ़ा है। हमारे बीच में नकारात्मक और प्रतिक्रियात्मक ऊर्जा ज्यादा बढ़ी है। अब हमारे बीच में घृणा, एलर्जी, असंतोष,अस्वीकार आदि में इजाफा हुआ है। समाज में घृणा के प्रचारकों और असहिष्णु लोगों की संख्या बढ़ी है। घृणा का बढ़ना अंततः शारीरिक हमलों तक ले जाता है। घृणा करने वाले नहीं जानते वे क्यों घृणा कर रहे हैं।
     एक जमाने में वर्गीय घृणा होती थी, पूंजीपति से मजदूर नफरत करता था,जमींदारों से किसान नफरत करता था उस घृणा में एक बुर्जुआ पेसन था। उस घृणा ने समाज को आगे बढ़ाने में ऐतिहासिक भूमिका अदा की थी। मजदूर अपने हकों के लिए लड़ते थे, पूंजीपति के खिलाफ प्रचार और संघर्ष करते थे और अपने लिए रियायत हासिल करते थे, इससे समाज का विकास हुआ। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो वर्गीय घृणा ने सामाजिक विकास में ऐतिहासिक भूमिका अदा की।
     लेकिन इन दिनों हमें जो घृणा दिखाई दे रही है वह किसी लक्ष्य के लिए नहीं है। उससे समाज के किसी समुदाय का भला होने वाला नहीं है। मसलन् आदिवासी समुदायों में एक-दूसरे के प्रति घृणा,हिन्दुत्ववादियों में मुसलमानों के प्रति घृणा ,आरक्षण और आरक्षण विरोधियों में घृणा, नकारात्मक घृणा है। यह सामाजिक ऊर्जा का अपव्यय है। वर्गीय हिंसा की ऐतिहासिक भूमिका थी लेकिन इन दिनों पैदा हुई अवर्गीय घृणा और हिंसा सामाजिक क्षय कर रही है।
     वर्गीय घृणा और हिसा ने इतिहास बनाया। अवर्गीय हिंसा ने इतिहास को नष्ट किया है। इसे ही आज की भाषा में इतिहास का अंत कहते हैं। अथवा यह ऐसा इतिहास है जिसका अंत नहीं है। मनमोहन कोड से पैदा हुई घृणा की विशेषता है कि इसके पास समस्याओं का समाधान नहीं है। उत्तर-पूर्व में राष्ट्रीय राजमार्ग 39 जाम पड़ा है। पहले यही राजमार्ग 68 दिनों तक पृथकतावादी गुटों के बंद के कारण बंद पड़ा था। आज से फिर वे रास्ता बंद के आंदोलन पर चले गए हैं। कश्मीर में हिंसा जारी है किसी भी रूप में शांति नहीं लौटी है। माओवाद से प्रभावित इलाके अशांत और असुरक्षित पड़े हैं। कोई समाधान नजर नहीं आ रहा। राजनीति में असन्तोष और उपेक्षा के भाव ने किस तरह अपना स्थान पुख्ता कर लिया है इसे हम ममता बनर्जी और बुद्धदेव भट्टाचार्य के बीच की घृणा के रूप में देख सकते हैं।
    समाज में एक बड़ा हिस्सा है जो पूरी तरह सामाजिक नियमन के बाहर है। सामाजिक नियमन के बाहर क्यों है यह कोई नहीं जानता। आज के जमाने में एडस, कम्प्यूटर वायरस, विनियमन, कु-सूचना,वायरल अटैक सामान्य बात हैं। शिक्षित और सभ्य दिखने वाले लोग सामाजिक हिंसा कर रहे हैं। पंचायतें मौत के फरमान जारी कर रही हैं। सरेआम मौत का महिमामंडन हो रहा है। जो लोग सती महोत्सव मना रहे थे वे ही इज्जत के नाम पर हत्याएं कर रहे हैं। जाति गर्व,परिवार की मान-मर्यादा,नस्लीय और धार्मिक घृणा में इजाफा हुआ है। हत्या और घृणा करना सामान्य कार्य-व्यापार हो गया है। यह इसलिए हो रहा है क्योंकि समाज में अलगाव बढ़ा है। एक-दूसरे के प्रति उपेक्षा भाव में वृद्धि हुई है।  
          
      
    
      

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