सोमवार, 19 जुलाई 2010

लिंगभेद की ऊहापोह और औरत की अस्मिता



         स्त्री और पुरूष दो लिंग हैं और दोनों को अलग-अलग ही रहना चाहिए,अपने लिंग के प्रति वफादार होना चाहिए। लिंगों की स्वायत्त पहचान को किसी भी बहाने अस्त-व्यस्त नहीं करना चाहिए। लिंग की स्त्री और पुरूष के रूप में स्वायत्तता का अर्थ यह नहीं है कि स्त्री और पुरूष के बारे में परंपरागत रूप से वर्गीकृत धारणों को यथावत् मान लिया जाए। अथवा इसमें किसी भी किस्म के लिंग रूपान्तरण के तरीकों को स्वीकार कर लिया जाए।      

      लूस इरीगरी मानती है कि स्त्री और पुरूष दो लिंग हैं और हमारा मुख्य कार्यभार है कि इनका प्रकृति का संस्कृति में लिंग के रूप में ही रूपान्तरण किया जाए। वे स्त्री और पुरूष बने रहें और अपने लिंग  के प्रति वफादार रहें। सवाल उठता है स्वयं के प्रति, अन्य के प्रति,लिंग के प्रति कैसे वफादार रहा जा सकता है।
     इरीगरी के नजरिए की पहली विशेषता यह है कि वह स्त्री और पुरूष दोनों को स्वाभाविक आस्था के आधार पर देखती है। आस्था उसके यहां महत्वपूर्ण है। वह मानती है कि हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि स्त्री और पुरूष दोनों लिंग हैं। प्रकृति ने उन्हें अलग-अलग बनाया है। उन्हें इसी रूप में बने रहना चाहिए। इसी भिन्नता के आधार पर ही हमें कामुक भिन्नता को देखना चाहिए।
     मुश्किल यह है कि इस आधार जब आप देखते हैं तो आपके सामने चुनने के लिए बहुत कम चीजें होती हैं। इरीगरी के शब्दों में इसका अर्थ है कि जेण्डर या लिंग के प्रति वफादार रहें,आस्था रखें। जेण्डर तो प्रकृति में अवस्थित है। जेण्डर तो संस्कृति के आने के पहले से अवस्थित है। हम जब प्रकृति से संस्कृति की ओर प्रयाण करें तो हमें इसके प्रति आस्थावान रहना चाहिए। इरीगरी का मानना है '' कामुक भिन्नता स्वाभाविक और तात्कालिक है,प्रकृति की देन है,यह वास्तविक है,यह सार्वभौम असंकुचित तत्व है।''
          कामुक भिन्नता (सेक्सुअल डिफरेंस)  से पलायन संभव नहीं है। हमारे सार्वभौम जगत में दाखिल होने के पहले हमारी स्त्री और पुरूष की पहचान थी,बाद में भी यह पहचान रहती है,इसे किसी भी रूप में नष्ट नहीं किया जा सकता।   स्त्री के संदर्भ में मानवता की यह शर्त है कि  हम यह मानें कि लिंग के रूप में स्त्री है। सार्वभौम का अर्द्धांश है। उसे एक में संकुचित नहीं किया जा सकता। न तो पुरूष पूर्ण है और न स्त्री पूर्ण है। दोनों लिंग में से किसी एक में समग्रीकरण नहीं किया जा सकता।
   देरिदा ने 'फिलासफी ऑफ वायलेंस'   में अन्य की खोज के क्रम में लिखा कि अन्य, स्व के समान नहीं है। बल्कि अन्य तो अन्य की कामुक भिन्नता की देन है।देरिदा ने लिखा है '' दर्शन ने व्यक्ति और अन्य की महत्ता या अर्थ को कभी स्वीकार नहीं किया। ...  हिंसा के दर्शन के जरिए समग्र दर्शन का दमन ही उसका मूलाधार है, वही सम के सर्वसत्तावादीकरण का कार्य करता रहा है।''
     जो व्यवस्था कामुक भिन्नता को अस्वीकार करती है वह ताकत के जरिए अधिनायकवादी विचारों और पद्धतियों की ओर ले जाती है। स्त्री और पुरूष का अंतर भाषा और विचार के उदय के पहले हुआ था। शरीर को भाषा और विचार के जन्म के पहले रचा गया। स्त्री और पुरूष को समाज निर्मित भूमिकाओं में जब निर्मित किया जा रहा था तब भाषा ने जन्म लिया।
       स्त्री और पुरूष का प्रकृति से संस्कृति की ओर रूपान्तरण वैसे ही है जैसे लड़का धीरे-धीरे मर्द बनता और लड़की धीरे धीरे औरत बनती है। इसी क्रम में उनकी भूमिकाएं निर्धारित कर दी जाती हैं। इसी क्रम में लिंग के संबंध बनते हैं और प्रभुत्व का उदय होता है। इरीगरी ने लिखा है , '' पुंस वर्चस्व वाली संस्कृति के समाज में पैदा होने वाली लड़की जरूरी नहीं है कि जेण्डर की उपयुक्त अनुभूति से लैस हो, इसमें कोई संदेह नहीं है कि उसके पास औरत की मन:स्थिति होती है। किन्तु अस्मिता नहीं होती। उसे बनाना होता है।''
      यूरोपीय चिंतन में लिंग के बिना अस्मिता विमर्श नहीं है। वहां दर्शन और भाषाविज्ञान में औरत नजर नहीं आती,वहां का सारा चिन्तन पुंस निर्मिति है। वहां विषय मर्द है। वही सार्वभौम का पर्याय है। विज्ञान और दर्शन प्रत्यक्षत: पुरूष के सरोकारों की ही खोज करते हैं। वे लिंगभेदीय ज्ञान पेश करते हैं । वे ज्ञान को स्वाभाविक सार्वभौम तत्व के रूप में पेश नहीं करते।
    इरीगरी ने अपनी किताब '' थिंकिग दि डिफरेंस' की प्रस्तावना में स्त्री के अधिकार और समानता की धारणा के पीछे सक्रिय अंधत्व की आलोचना करते हुए लिखा '' स्त्री और पुरूष की भिन्नता को सम के नाम पर अस्वीकार करना, हाइपोथेटिकल सम के नाम पर सामाजिक समानता के रूप में प्रस्तुति विभ्रम पैदा करती है। यह विभाजन के प्रति पूर्वाग्रह है,यह निजी और सार्वजनिक अस्मिता के रूप में असंभव विभाजन है। ... मेरे पास स्त्री अस्मिता की समस्याएं हैं जिन्हें मौजूदा कानून हल नहीं कर सकता। मैं नहीं समझती कि (सार्वभौम मानवाधिकार घोषणापत्र ) में मैं तब तक शामिल नहीं हो सकती जब तक कि मैं अपने सेक्स को अस्वीकार नहीं करती,उसकी प्राथमिकताओं को अस्वीकार नहीं करती।''
      हमारा कानून निजी और सार्वजनिक परिवेश के आधार पर जो वर्गीकरण करता रहा है उसमें इन दोनों के बीच जो एक-दूसरे के ऊपर आरोपणभाव है उसकी अनदेखी की गई है। इरीगरी कहती है असल में यह समस्या अस्वीकार के गर्भ से पैदा हुई है।यह अस्वीकार है स्त्री की पुनर्रूत्पादन क्षमता का ,जो उसे प्रकृति ने दी है,यह क्षमता मर्द ने पास नहीं है। प्रजनन क्षमता को 'माँ' के रूप में वर्णित करना सही नहीं होगा। जन्म देने के बाद पालन-पोषण की बात आती है। जन्म देने का प्रकृति ने सिर्फ औरत को हक दिया है।
     इरीगरी ने विस्तार से इस तथ्य का विवेचन किया है कि किस तरह औरत सामाजिक विकास क्रम में पितृसत्ता के चंगुल में फंस गयी और समाज ने उसे मॉ, पालनकर्त्री और पत्नी के रूप में महिमामंडित किया। औरत को अंदर समाहित करने की प्रवृत्ति के कारण स्त्री अस्मिता से वंचित होना पड़ा है।
     सामाजिक मांगें स्त्री के निजी विकास से अलगाव पैदा करती हैं। उसके स्त्रीत्व से अलगाव पैदा करती हैं। वह अपने को ऐसी वस्तु के रूप में तैयार करती है जिससे वह अन्य के इर्दगिर्द अपनी पहचान बना सके। अन्य की जरूरतें पूरी कर सके। यहां अन्य और कोई नहीं पुरूष ही है। घरेलू भूमिका अदा करते हुए वह मर्द के पक्ष में अपनी भूमिका त्याग देती है,व्यक्तिगत जिन्दगी त्याग देती है। उसे पुरूष के हवाले कर देती है। पुरूष व्यक्तिगत जिन्दगी जीने लगता है। उसकी संतुष्टि ही संभावित की संतुष्टि पर निर्भर होती है। इसके परिणामस्वरूप जो परंपरा जन्म लेती है वह हिंसा और अलगाव के साथ सामने आती है। यह पृथकत्व पैदा करने वाली परंपरा है। जो औरत के प्रति पूरी तरह दगा करती है।
     यदि हम जेण्डर के प्रति वफादार हैं तो परंपरा को चुनौती दी जानी चाहिए। उससे उबरने की कोशिश करनी चाहिए और उसे त्याग देना चाहिए। यह जानते हुए भी कि परंपरागत भूमिका दमनात्मक और सर्वसत्तावादी है इसके बावजूद हमें जेण्डर के प्रति वफादार बने रहना चाहिए। जेण्डर अपनी भूमिका के रूप में दिखाई देता है ,यह भूमिका वह कब त्याग देता है और संस्कृति के क्षेत्र के परे कब चला जाता है,कहना मुश्किल है।   
     इरीगरी जिस भिन्नता या डिफरेंस की बात कर रही हैं,वह भिन्नता स्त्रीवादी विचारकों के यहां भिन्न अर्थ रखती है। यह भिन्नता पूर्वनिर्धारित नियम से भिन्न दिखने वाली भिन्नता नहीं है। बल्कि यह शुद्ध भिन्नता है। यह स्वयं से भिन्नता है, यह ऐसी भिन्नता है जिसकी कोई अस्मिता नहीं है।
     इसका अर्थ यह है कि भिन्नता का भिन्नता से अलग कोई और अर्थ नहीं है। यह कामुक भिन्नता नहीं है। कामुक भिन्नता तो भाषा के परे भी मौजूद रहती है।इसका अर्थ अभी भी पूरी तरह खुल नहीं पाया है,उसे हम पूरी तरह जान नहीं पाए हैं। इसी को हम स्त्री और पुरूष के सारतत्व के रूप में देखते हैं।
     देरिदा का मानना है 'भाषा के पहले विचार नहीं था।' इसका अर्थ है कामुक भिन्नता भाषा के पहले भी मौजूद थी। इसका अर्थ यह भी है कि कामुक भिन्नता भाषा और विचार से परे है। यह बात आज हमारे सोच के बाहर है। 
    

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