शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

स्त्रीवाद के परिप्रेक्ष्य में फेमिनिज्म-3- जातिश्रेष्ठत्व,परपीड़क रतिभावना और पोर्नोग्राफी


         इंटरनेट के आने के साथ संचार की गति और दायरे में मूलगामी बदलाव आया है। जो लोग प्रेसचेतना के आधार पर पोर्न के प्रभाव को देख रहे हैं वे भूल कर रहे हैं। पोर्न आज रीयलटाइम गतिविधि है। यूजर कभी भी उसका उपभोग कर सकता है। यूजर को इससे क्या मिलता है यह तो वही जाने लेकिन जिन देशों में पोर्न देखना अपराध है वहां पर पोर्न का सार्वजनिक स्थानों पर रखे कम्प्यूटरों के जरिए सेवन करना अपराध है। दूसरी बात यह है कि पोर्न का सोशल बेवसाइट पर दुरूपयोग होने लगा है। इंटरनेट और मीडिया के जितने रूप हैं उनके विकास की एक गति रही है। इंटरनेट में सोशल नेटवर्क ऐसा विधा रूप है जिसका बहुत तेजी से विकास हुआ है। इंटरनेट पर पोर्नोग्राफी सबसे तेज गतिविधि रही है . लेकिन सोशल नेटवर्किंग ने पोर्न को भी पछाड़ना शुरू कर दिया है। मात्र चार साल में सोशल नेटवर्किंग ने पोर्न से आगे अपनी जगह बना ली है। सोशल मीडिया के रूप में इसे देखें तो पाएंगे कि रेडियो को 50 मिलियन लोगों तक पहुँचने में 38 साल लगे,टेलीनिजन को 13 साल और इंटरनेट ने मात्र चार साल में ही इतने यूजरों कर अपने को पहुँचा दिया। जबकि फेसबुक 200मिलियन लोगों तक एक साल से भी कम समय में पहुँच गया है। स्थिति यह है कि ब्रिटनी स्पियर के आज ट्विटर पर जितने अनुयायी हैं उतनी इस्राइल,स्विटजरलैंड,नॉर्वे और अनेक देशों की आबादी भी नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि सोशल मीडिया के आने के बाद से पोर्न पर जाने वालों की संख्या घट सकती है।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि पोर्नोग्राफी में पियृसत्तात्मक नजरिया रहता है। योन क्रियाओं में दिखाए जाने वाले दृश्य स्त्री के शारीरिक कष्टों सामने लाते हैं। मैथुन करने का अर्थ उत्पीडित करना या कष्ट देना नहीं है। यौन क्रिया कष्ट देने वाली क्रिया नहीं है बल्कि आनंददायी सृजनात्मक क्रिया है। लेकिन पोर्नोग्राफी में इस पक्ष की उपेक्षा की जाती है और भिन्न किस्म के कष्टमय संसार का रूपायन किया जाता है। इसी संदर्भ में आंद्रिया द्रोकिन ने लिखा-

‘‘पुरुष यौन-क्रिया का उपयोग हमें कष्ट देने के लिए करते है। इस संदर्भ में तर्क दिया जा सकता है कि स्त्री से मैथुनक्रिया करने के लिए पुरुष को उसे तकलीफ देनी पड़ती है, बर्बाद करना पड़ता है, आक्रामक होकर देह की बंदिशों को तोड़ना पड़ता है, धक्का देना पड़ता है, भाषिक और दैहिक लड़ाई में अपनी श्रेष्ठता दिखानी पड़ती है। यह भी कहा जा सकता है कि मर्द को यौन आनंद देने के लिए हमें हीन एवं अमानव बनना पड़ता है। ऐसा करते हुए हम मर्दों द्वारा संचालित किए जाते है, हम पराधीन, कृत्रिम व परजीवी बन जाते हैं।’’

पोर्न की भाषा का फासिज्म की उत्तेजक भाषा से गहरा साम्य है। घृणा की भाषा,साम्प्रदायिक भाषा और जातीय घृणा की भाषा की प्रक्रियाओं से पोर्न का गहरा संबंध है। द्रोकिन ने लिखा -

‘‘मेरे ध्यान में आता है कि कैसे घृणा की भाषा, जातीय घृणा की भाषा स्पष्ट रूप से ज्यादा कामुक होती है। यह जितनी विद्वेषपूर्ण और आक्रामक होगी इसकी कामुक अर्थवत्ता बढ़ती जाएगी मानो सेक्स दुश्मनी तथा युद्ध के विस्तार का पर्याय हो। जर्मन गणराज्य में हिटलर के प्रभुत्व को प्राप्त करने वाले ने सबसे पहले यहूदीवाद के खिलाफ वक्तव्य दिया, जो कि पोर्नोग्राफी की भाषा के समान था। इसे खुलेआम दिखाया गया, प्रकाशित किया गया, बाँटा गया। इस प्रकार की भाषाई उत्तेजना क्या कार्य करती है? यह कहती है, केवल मैं वास्तविक हूँ कोई हीन जीव या वस्तु नहीं और यदि ऐसी वस्तुओं का सर्वनाश कर मुझे सुख मिलता है तो यह प्रक्रिया निरन्तर चलनी चाहिए। इस जातिवादी हाययार्की ने भी विशुद्ध कामुक रूप ले लिया है। इसकी मदद से किसी कमजोर, निर्बल के विरूद्ध उत्पन्न अनादर, अपमान, दुर्व्यवहार को जैविक अनिवार्यता का नाम दे दिया जाता है। शब्दों और कार्यों में किसी एक लिंग या वर्ग की जैविक आक्रामकता, उत्तेजना, क्रोध, चिड़चिड़ापन, तनाव को लिंगीय प्रतिक्रिया की जैविक तीव्रता मान लिया जाता है।’’
       ‘‘इस भयानक अज्ञानता पर आश्चर्य होता है कि कैसे लोग पुरुषों की जैविक उच्चता के असामान्य, पारदर्शी झूठ को पहचान नही पाते। जब-जब जातिवादी अवधारणा का कामुकीकरण किया जाता रहेगा इसे प्रभुत्व और दमन का ठोस आधार मिलता रहेगा। क्योंकि कुछ वर्चस्वशाली लोगों ने अपने काम सुख व यौन आनंद के लिए इन अवधारणाओं को जैविक सत्य एवं अनिवार्य बना दिया है। इसे उन्होंने प्राकृतिक बना दिया है जो किसी तर्क से नहीं बदलता। इस कारण ये अवधारणाएँ भी प्राकृतिक लगने लगीं हैं। इन अवधारणाओं की रक्षा करके लोग वस्तुत: अपने सेक्सुअल भावों की रक्षा करते हैं। वे कहते है: मेरी भावनाएँ स्वाभाविक है और मुझे तुम्हें कष्ट देकर संभोग की उच्चावस्था प्राप्त होती है, या तुम्हारे बारे में सोचकर मैं उत्तेजित होता हूँ तो तुम ही मेरी प्राकृतिक संगीनी हो। तुम्हारा स्वाभाविक कार्य है मेरी लिंगीय उत्तेजना को तीव्र करना है जिससे मुझे अपने महत्व एवं पुंसत्व का बोध हो। तुम कुछ नही हो, तुम्हारा कुछ न होना ही मुझे अस्तित्व प्रदान करता है। अपने अधिकार के लिए मैं तुम्हारा इस्तेमाल करता हूँ। मेरा होना मुझे शक्तिशाली बनाता है-सामाजिक शक्ति, आर्थिक शक्ति, साम्राज्य की सर्वोच्च शक्ति बनाता है। मैं तुम्हारे साथ जो चाहे कर सकता हूँ। ’’
        ‘‘उत्कृष्ट होने की यह भावना जातिगत कामुकता से प्रेरित परपीड़क रति भावना है। इसका उद्देश्य ही दूसरों को कष्ट पहुँचाना है। यह क्रूरतापूर्ण रति घृणा की भाषागत अभिव्यक्ति से जुड़कर बहुआयामी हो जाती है। जाति सूचक नामों या गुणों को किसी व्यक्ति के खिलाफ इस्तेमाल करना उसे परेशान करने, डराने, अपमानित करने, नीचा दिखाने की इच्छा से प्रेरित होता है। पूर्णत: कामुक घृणा की भाषा पोर्नोग्राफी उद्योग की व्यवस्थित सचाई होती है। जहाँ पूरा एक वर्ग कामुक आनंद देने एवं दूसरा वर्ग उसे लेने के लिए तैयार होता है।’’
     ‘‘मुश्किल यह है कि औरत को चोट लगना सामान्य सी बात है। ऐसा रोज़, हर वक्त, कहीं किसी के साथ, पास-पड़ोस में, रास्ते पर, घनिष्ट संबंधों में, भीड़ में होता रहता है। इस अनादर और दुर्व्यवहार के बाद भी हम स्त्रियाँ खुद को भाग्यशाली मानती हैं। बलात्कार होते-हाते बच जाने पर हम स्वयं को भाग्यशाली मानते हैं। विवाह के बाद हमें पीटा जाता है और यह भी हमारा भाग्य हैं। हम हमेशा खुश होते है कि हमारे साथ कम बुरा हुआ। और हम स्वयं से कहते है कि अब भी हम नहीं रुके तो बहुत बुरा हो सकता है।’’















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