मंगलवार, 13 जुलाई 2010

ग्लोबलाइजेशन का शोकगीत -1-

      आर्थिक मदी ने भूमंडलीकरण का छंद तोड़ दिया है। हमारे देश में अभी भी ऐसे लोग हैं जो अनभिज्ञ हैं कि आखिरकार भूमंडलीकरण क्या था और वह क्या कर गया। कम से कम भूमंडलीकरण के अंत में हमें यह जान लेना चाहिए कि भूमंडलीकरण क्या था और उसने किस तरह की तबाही पैदा की।  
       भूमंडलीकरण का मूल लक्ष्य है सामुदायिक संरचनाओं का क्षय और बाजार के तर्क की प्रतिष्ठा। इस तरह के आधार पर जो विमर्श तैयार किया जा रहा है वह वर्चस्ववादी है। विश्वबैंक ,इकोनामिक कारपोरेशन एंड डवलपमेंट और आईएमएफ जैसी संस्थाओं के द्वारा जो नीतियां थोपी जा रही हैं उनका लक्ष्य है श्रम मूल्य घटाना, सरकारी खर्च घटाना,  काम को और भी लोचदार बनाना। यही मौजूदा दौर का प्रधान विमर्श है।
         यथार्थ में यह नव्य-उदारतावाद के यूटोपिया को लागू करने का विमर्श है। इसके कारण राजनीतिक समस्याएं पैदा हो रही हैं। नव्य-उदारतावादी विमर्श, विमर्शों में से एक विमर्श नहीं है,बल्कि यह 'ताकतवर विमर्श' है। ताकतवर विमर्श इस अर्थ में, यह कठोर है,आक्रामक है,यह अपने साथ सारी दुनिया की ताकतें एकीकृत कर लेना चाहता है ।यह आर्थिक निर्णय और चयन को अपने अनुकूल ढाल रहा है। वर्चस्ववादी आर्थिक संबंधों को निर्मित कर रहा है। नए किस्म के चिन्हशास्त्र को बना रहा है। 'थ्योरी ' के नाम पर ऐसी सैद्धान्तिकी बना रहा है जो सामूहिकता की भूमिका को नष्ट कर रही है। वित्तीय विनियमन पर इसका अर्थसंसार टिका है। इसके तहत राज्य का आधार सिकुड़ रहा है,बाजार का आधार व्यापक बन रहा है। सामूहिक हितों के सवालों को अप्रासंगिक बना रहा है। इसने व्यक्तिवादिता ,व्यक्तिगत तनख्वाह और सुविधाओं को केन्द्र में ला खड़ा किया है। तनख्वाह का व्यक्तिकरण मूलत: सामूहिक तनख्वाह की विदाई की सूचना है। नव्य -उदारतावाद मूलत: बाजार के तर्क से चलने वाला दर्शन है। इसमें बाजार ही महान है। इसके लिए परिवार,राष्ट्र,मजदूर संगठन,पार्टी, क्षेत्र आदि किसी भी चीज का महत्व नहीं है,यदि किसी चीज का  महत्व है तो वह है उपभोग का। उपभोग को बाजार के तर्क ने परम पद पर प्रतिष्ठित कर दिया है।
      भूमंडलीकरण ने जब सूचना तकनीकी के साथ नत्थी कर लिया तो उसने पूंजी की गति को अकल्पनीय रुप से बढ़ा दिया। इसके कारण छोटे निवेशकों के मुनाफों में तात्कालिक इजाफा हुआ,वे अपने मुनाफों के साथ स्थायी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुनाफों की तुलना करने लगे हैं। बड़े कारपोरेशन बाजार के साथ सामंजस्य बिठाने की कोशिश कर रहे हैं।नव्य उदारीकरण के दौर में संरचनात्मक हिंसाचार में इजाफा हुआ है। असुरक्षा बढ़ी है। मुक्त व्यापार गुरूमंत्र बन गया है। मीडिया के द्वारा साधारण जनता की अभिरुचि के निर्माण की प्रक्रिया में व्यक्तिवादिता, प्रतिस्पर्धा और विशिष्टता इन तीन तत्वों का खासकर ख्याल रखा जाता है। अभिरुचि वर्गीकृत होती है और यह वर्गीकरण क्लासीफायर की व्यंजना है। इस स्थिति को हासिल करने की संभावना सिर्फ उन लोगों के पास है जिन्हें शिक्षा मिली है और जिनके पास पैसा है। इन लोगों की अभिरुचि उन लोगों से भिन्न होती है जो इनसे भिन्न हैं।
    नव्य-उदारतावाद ने सारी दुनिया में अमेरिकी सभ्यता और समाज को पश्चिम के आदर्श मॉडल के रुप में पेश किया है। यह प्रक्रिया 1971 से आरंभ होती है। अमेरिका के राष्ट्रपति निक्सन को इस प्रक्रिया को शुरू करने का श्रेय जाता है। राष्ट्रपति निक्सन ने इसी वर्ष ब्रिटॉन वुड सिस्टम की समाप्ति की घोषणा की थी,इसके बाद सन् 1973 में विश्व के बड़े देशों के नेता निश्चित विनिमय दर व्यवस्था की बजाय चंचल विनिमय दर व्यवस्था के बारे में एकमत हुए थे। इसके बाद सन् 1974 में अमेरिका ने अंतर्राष्ट्रीय पूंजी गतिविधि पर सभी किस्म की पाबंदियां हटा दीं।
      सन् 1989 में सोवियत संघ में समाजवादी व्यवस्था का अंत हुआ। बर्लिन की दीवार गिराई गई,जर्मनी को एकीकृत किया गया। इसके बाद नव्य-उदारतावाद की आंधी सारी दुनिया में चल निकली। इस आंधी का पहला पड़ाव था मध्यपूर्व का युद्ध ,जिसने सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर दूरगामी प्रभाव छोड़े।तेल की कीमतों में अंधाधुंध वृध्दि हुई। मौजूदा ग्लोबलाइजेशन वित्ताीय साम्राज्यवादी संस्थानों के दिशा-निर्देशों पर चल रहा है। इसमें अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों विश्वबैंक,अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष आदि का वर्चस्व है।
     पूंजी के अबाध आवागमन और सूचना तकनीक के प्रसार ने एकदम नये किस्म की दुनिया निर्मित की है,यह वह दुनिया है जिसने पुरानी औद्योगिक क्रांति के गर्भ से पैदा हुई दुनिया को बुनियादी तौर पर बदल दिया,औद्योगिक क्रांति और रैनेसां के गर्भ से पैदा हुए वैचारिक विमर्श और पैराडाइम को बदल दिया, यह सारा परिवर्तन इतनी तेज गति से हुआ है कि अभी तक हम सोच भी नहीं पाए हैं कि आखिरकार ग्लोबलाइजेशन किस तरह की दुनिया रच रहा है, मध्यवर्ग इसकी चमक में खो गया है,वहीं गरीब किसान और मजदूर अवाक् होकर देख रहा है।
     आरंभ में नव्य-उदारतावाद को लोग समझ ही नहीं पाए किंतु धीरे-धीरे इसका जनविरोधी स्वरूप सामने आने लगा और साधारण नागरिकों में इसके प्रति प्रतिवाद के स्वर फूटने लगे। ग्लोबलाइजेशन की चमक और टीवी चैनलों की आंधी ने सोचने के सभी उपकरणों को कुंद कर दिया है, कुछ क्षण के लिए यदि कोई आलोचनात्मक विचार आता भी है तो अगले ही क्षण उसके प्रति अनास्था पैदा हो जाती है।
     ग्लोबलाईजेशन ने मानव मस्तिष्क को संशय और अविश्वास से भर दिया है। अब हमें किसी पर विश्वास नहीं रहा,सारे नियम और कानून बार-बार हमें यही संकेत दे रहे हैं कि अपने पड़ोसी पर नजर रखो,उस पर विश्वास मत करो। आपके पास जो बैठा है उससे दूर रहो, उससे संपर्क,संवाद, खान-पान मत करो। विश्वास और आस्था से भरी दुनिया में संशय और अविश्वास की आंधी इस कदर चल निकली है कि अब प्रत्येक देश में प्रत्येक व्यक्ति पर नजर रखी जा रही है। प्रत्येक देश की मुद्रा का मूल्य घटा है,अगर किसी मुद्रा का मूल्य नहीं घटा है तो वह है अमेरिकी डॉलर।

           

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